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मूत्राशय

सूची मूत्राशय

मूत्राशय शरीर रचना विज्ञान मूत्राशय (urinary bladder) वह आन्तरिक अंग है जो मूत्र विसर्जन के पहले वृक्कों द्वारा निर्मित मूत्र को इकट्ठा रखता है। .

17 संबंधों: ऐल्ब्युमिनमेह, पुरस्थ, प्रसूति-विज्ञान, पीठ दर्द, बृहदांत्र कैन्सर, मलाशय, मलोत्सर्ग प्रणाली, मेरुदण्ड, योनि रोग, शल्य प्रसव, सिस्टोस्कॉपी, सुश्रुत संहिता, स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा (शल्की सेल कैंसर), वृक्क अश्मरी, कोदो, अपमूत्रण, अंग (शारीरिकी)

ऐल्ब्युमिनमेह

ऐल्ब्युमिनमेह (Albuminuria) एक रोग है, जिसके होने पर मूत्र में असामान्य मात्रा में ऐलब्युमिन पाया जाता है। यह एक प्रकार का प्रोटीनमेह (proteinuria) है। सामान्य अवस्था में सभी के मूत्र में ऐल्बुमिन पाया जाता है किन्तु वृक्क (किडनी) के रोग होने पर मूत्र में ऐल्बुमिन की मात्रा बहुत बढ़ जाती है। ऐलब्युमिनमेह स्वयं कोई रोग नहीं है; वह कुछ रोगों का केवल एक लक्षण है। मूत्र को गरम करके उसमें नाइट्रिक अम्ल या सल्फ़ोसैलिसिलिक अम्ल मिलाकर ऐलब्युमिन की जाँच की जाती है। बेस जोंस नामक प्रोटीनों की उपस्थिति में ५५ डिग्री सेल्सियस तक गरम करने पर गँदलापन आने लगता है। किंतु ८० डिग्री सेल्सियस तक उसे गरम करने पर गँदलापन जाता रहता है। इस गँदलेपन को मापा जा सकता है और कैलोरीमापक विधि से उसकी मात्रा भी ज्ञात की जा सकती है। निम्नलिखित रोगों में ऐलब्युमिन मूत्र में पाया जाता है.

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पुरस्थ

पुरस्थ या पौरुष ग्रंथि (प्रॉस्टेट) केवल पुरुषों में पाई जाने वाली एक छोटी ग्रंथि है, जो लिंग और मूत्राशय के बीच में होती है। .

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प्रसूति-विज्ञान

प्रसूति-विज्ञान (लैटिन शब्द ऑब्स्टेयर, अर्थात्, "साथ देते रहना" से) गर्भावस्था (प्रसव से पहले की अवधि), शिशु-जन्म और प्रसव के बाद की अवधि के दौरान महिलाओं और उनके बच्चों की देखभाल से जुड़ी हुई शल्य चिकित्सीय विशेषता है। प्रसूति-विद्या गैर-शल्य समतुल्य है। पशु प्रसूति-विज्ञान, पशु चिकित्सा की अवधारणा के समान है। लगभग सभी आधुनिक प्रसूति-विशेषज्ञ, स्त्री रोग विशेषज्ञ भी हैं। .

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पीठ दर्द

पीठ दर्द ("डोर्सलाजिया " के नाम से भी जाना जाता है) पीठ में होनेवाला वह दर्द है, जो आम तौर पर मांसपेशियों, तंत्रिका, हड्डियों, जोड़ों या रीढ़ की अन्य संरचनाओं में महसूस किया जाता है। इस दर्द को अक्सर गर्दन दर्द, पीठ के उपरी हिस्से के दर्द,पीठ के निचले हिस्से के दर्द या टेलबोन के दर्द(रीढ़ के आखिरी छोर की हड्डी में) में विभाजित कर सकते हैं। यह अचानक होनेवाला दर्द या स्थाई दर्द भी हो सकता है; यह लगातार या कुछ अन्तराल पर भी हो सकता है, यह दर्द किसी एक ही जगह पर हो सकता है या अन्य हिस्सों में फ़ैल भी सकता है यह एक हल्का या तेज दर्द हो सकता है या इसमें छेदने या जलन की अनुभूति हो सकती है। यह दर्द भुजा और हाथ में, पीठ के उपरी या निचले हिस्से में फ़ैल सकता है, (और पंजे या पैर में फ़ैल सकता है) और दर्द के अलावा इसमें कमजोरी, सुन्न हो जाना या झुनझुनी जैसे लक्षण भी शामिल हो सकते हैं। पीठ का दर्द लोगों को अक्सर होने वाली शिकायतों में से एक है। अमेरिका में पीठ के निचले भाग में तेज दर्द (लूम्बेगो भी कहा जाता है) चिकित्सक के पास जाने के सबसे आम कारणों में पांचवें स्थान पर है। दस में से नौ वयस्कों को अपने जीवन के किसी न किसी बिंदु पर पीठ दर्द का अनुभव होता है और काम करने वाले दस में से पांच वयस्कों को हर साल पीठ दर्द होता है।ए.टी.

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बृहदांत्र कैन्सर

कोलोरेक्टल कैंसर में जिसे बृहदांत्र कैंसर या बड़ी आंत का कैंसर भी कहा जाता है, बृहदांत्र, मलाशय या उपांत्र में कैंसर का विकास शामिल होता है। इससे दुनिया भर में प्रतिवर्ष 655,000 मौतें होती हैं, संयुक्त राज्य में कैंसर का यह चौथा सबसे सामान्य प्रकार है और पश्चिमी दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतों का तीसरा प्रमुख कारण है। कोलोरेक्टल कैंसर, बृहदांत्र में एडिनोमेटस पौलिप से पैदा होता है। मशरूम के आकार की ये वृद्धि आमतौर पर सामान्य होती है, पर समय बीतते-बीतते इनमे से कुछ कैंसर में बदल जाती हैं। स्थानीयकृत बृहदान्त्र कैंसर का आमतौर पर बृहदांत्रोस्कोपी के माध्यम से निदान किया जाता है। तेजी से बढ़ने वाले वे कैंसर जो बृहदांत्र की दीवार तक सीमित रहते हैं (TNM चरण I और II), सर्जरी द्वारा ठीक किये जा सकते हैं। यदि इस चरण में चिकित्सा नहीं हुई तो वे स्थानीय लिम्फ नोड तक फ़ैल जाते हैं (चरण III), जहां 73% को सर्जरी और कीमोथिरेपी द्वारा ठीक किया जा सकता है। दूरवर्ती अंगो को प्रभावित करने वाला मेटास्टैटिक कैंसर (चरण IV) का इलाज सामान्यतया संभव नहीं है, हालांकि कीमोथेरेपी जिन्दगी बढ़ा देती है और कुछ बेहद बिरले उदाहरणों में सर्जरी और कीमोथिरेपी दोनों से रोगियो को ठीक होते देखा गया है। रेक्टल कैंसर में रेडिऐशन का इस्तेमाल किया जाता है। कोशिकीय और आणविक स्तर पर, कोलोरेक्टल कैंसर Wnt सिग्नलिंग पाथवे में परिवर्तन के साथ शुरू होता है। जब Wnt (डब्लूएनटी) एक ग्राही को कोशिका पर बांध देता है तो इससे आणवीय घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है। इस श्रृंखला का अंत β- कैटेनिन के केन्द्रक में जाने और DNA पर जीन को सक्रिय करने में होता है। कोलोरेक्टल कैंसर में इस श्रृंखला के साथ जीन क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। प्रायः APC नाम का जीन जो Wnt पाथवे में "अवरोध" होता है, क्षतिग्रस्त हो जाता है। बिना क्रियाशील APC ब्रेक के Wnt पाथवे "चालू" स्थिति में अटक जाता है। .

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मलाशय

बृहदान्त्र के अन्तिम भाग को मलाशय (rectum) कहते हैं। मानव और कुछ अन्य स्तनधारियों का मलाशय सीधा (स्ट्रेट) होता है। मानव का मलाशय लगभग 12 सेमी.

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मलोत्सर्ग प्रणाली

मलोत्सर्ग प्रणाली एक निष्क्रिय जैविक प्रणाली है जो जीवों के भीतर से अतिरिक्त, अनावश्यक या खतरनाक पदार्थों को हटाती है, ताकि जीव के भीतर होमीयोस्टेसिस को बनाए रखने में मदद मिल सके और शरीर के नुकसान को रोका जा सके। यह चयापचय के अपशिष्ट उत्पादों और साथ ही साथ अन्य तरल और गैसीय अपशिष्ट के उन्मूलन के लिए जिम्मेदार है। चूंकि अधिकांश स्वस्थ रूप से कार्य करने वाले अंग चयापचय सम्बंधी और अन्य अपशिष्ट उत्पादित करते हैं, संपूर्ण जीव इस प्रणाली के कार्य करने पर निर्भर करता है; हालांकि, केवल वे अंग जो विशेष रूप से उत्सर्जन प्रक्रिया के लिए होते हैं उन्हें मलोत्सर्ग प्रणाली का एक हिस्सा माना जाता है। चूंकि इसमें कई ऐसे कार्य शामिल हैं जो एक दूसरे से केवल ऊपरी तौर पर संबंधित हैं, इसका उपयोग आमतौर पर शरीर रचना या प्रकार्य के और अधिक औपचारिक वर्गीकरण में नहीं किया जाता है। .

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मेरुदण्ड

बाहर से मेरूदंड का दृष्य मेरूदंड के विभिन्न भाग मेरूदंड के विभिन्न भाग (रंगीन) मानव शरीर रचना में 'रीढ़ की हड्डी' या मेरुदंड (vertebral column या backbone या spine)) पीठ की हड्डियों का समूह है जो मस्तिष्क के पिछले भाग से निकलकर गुदा के पास तक जाती है। इसमें ३३ खण्ड (vertebrae) होते हैं। मेरुदण्ड के भीतर ही मेरूनाल (spinal canal) में मेरूरज्जु (spinal cord) सुरक्षित रहता है। .

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योनि रोग

ईसा मसीह से ६०० वर्ष पूर्व महर्षि चरक एवं सुश्रुत ने अपनी संहिताओं में योनरोगों को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए, अलग अध्याय में ही इनका वर्ण किया है, यद्यपि योनि शब्द से उन्होंने दो अर्थ ग्रहण किए हैं। प्रथम अर्थ में योनि से वह मार्ग समझा जाता है जो भग से गर्भशय की ग्रीवा तक होता है, जिसे आँग्ल भाषा में वैजिना (Vagina) कहते हैं। द्वितीय अर्थ में योनि से समस्त प्रजननांगों को समझा जाता है। योनि की अंत:सीमा गर्भशय की ग्रीवा (cervix uteri) तथा बहि: सीमा योनि का अग्रद्वार है, जो भग (valva) में खुलता है। यानि की पूर्वसीमा मूत्राशय, मूत्रनलिका तथा येनिपथ को विभक्त करनेवाली पेशीयुक्त दीवार है। इस प्रकार यह एक गोल नलिका है, जिसकी लंबाई ३.५ इंच से ४ इंच तथा परिधि लगभग ४ इंच है। इसकी पूर्व-पश्चिम दीवार सदा एक दूसरे से सटी रहती है। इसको चारों ओर से आच्छादित करनेवाली पेशियाँ मृदु एवं सुनभ्य होती हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर (जैसे प्रसव के समय) पर्याप्त विस्तरित हो जाती हैं। योनि के बहिर्द्वार पर छिद्रित आच्छादन होता हैं, जिसे योनिच्छद (Hymen vaginae) कहते हैं। इसके छिद्र से प्रति मास रजस्राव के समय रज बाहर निकलता है तथा प्रथम संभोग के समय यह विदीर्ण हो जाता है। .

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शल्य प्रसव

एक आधुनिक अस्पताल में एक दल द्वारा सीज़ेरियन अनुभाग का प्रदर्शन. शल्य प्रसव परिच्छेद (अमेरिका: सीज़ेरियन सेक्शन), जिसे सी-सेक्शन (C-section), सीज़ेरियन सेक्शन (Caesarian section), सीज़ेरियन सेक्शन (Cesarian section), सीज़र (Caesar), इत्यादि भी कहते हैं, एक ऐसी शल्यक्रिया है, जिसमें एक या एक से अधिक शिशुओं के जन्म के लिए या कभी-कभी मृत भ्रूण को बाहर निकालने के लिए मां के पेट (लैप्रोटोमी) और गर्भाशय में (हिस्टेरोटॉमी) एक या एक से अधिक चीरे लगाए जाते हैं। सीज़ेरियन सेक्शन प्रक्रिया के प्रयोग द्वारा देर से की जाने वाले गर्भपात को हिस्टेरोटॉमी गर्भपात कहते हैं तथा यह विरले ही प्रयोग में लाया जाता है। सीज़ेरियन सेक्शन (शल्य प्रसव परिच्छेद) का प्रयोग प्रायः योनिमार्ग द्वारा शिशु जन्म की प्रक्रिया में मां या शिशु की जान या स्वास्थ के खतरे में पड़ने पर किया जाता है, हालांकि इन दिनों प्राकृतिक विधि से शिशु जन्म होने की स्थिति में भी मांग किए जाने पर इसका प्रयोग किया जा रहा है। हाल के वर्षों में इसकी दर काफी तेजी से बढ़ी है, जिसमें चीन 46% तथा अन्य एशियाई, लेटिन अमेरिकी देशों तथा अमेरिका में 25% के स्तर पर हैं। .

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सिस्टोस्कॉपी

शल्य चिकित्सा कक्ष में रोगाणुमुक्त किया हुआ फ्लेक्सिबल सिस्टोस्कोप सिस्टोस्कॉपी (Cystoscopy) (si-ˈstäs-kə-pē) मूत्रमार्ग (urethra) के माध्यम से की जाने वाली, मूत्राशय (urinary bladder) की एंडोस्कोपी है। यह सिस्टोस्कोप की सहायता से की जाती है। नैदानिक सिस्टोस्कॉपी स्थानीय एनेस्थेसिया (local anaesthesia) के साथ की जाती है। शल्य-क्रियात्मक सिस्टोस्कॉपी प्रक्रिया के लिए कभी-कभी व्यापक एनेस्थेसिया (general anaesthesia) भी दिया जाता है। मूत्रमार्ग वह नली है जो मूत्र को मूत्राशय से शरीर के बाहर ले जाती है। सिस्टोस्कोप में दूरदर्शी (telescope) अथवा सूक्ष्मदर्शी (microscope) की तरह ही लेंस लगे होते हैं। ये लेंस चिकित्सक को मूत्रमार्ग की आतंरिक सतहों पर फोकस (संकेंद्रित) करने की सुविधा प्रदान करते हैं। कुछ सिस्टोस्कोप ऑप्टिकल फ़ाइबर (कांच का लचीला तार) का प्रयोग करते हैं जो उपकरण के अग्रभाग से छवि को दूसरे सिरे पर लगे व्यूइंग पीस (अवलोकन पीस) पर प्रदर्शित करते हैं। सिस्टोस्कोप एक पेन्सिल की मोटाई से लेकर 9 मिली मीटर तक मोटे होते हैं तथा इनके अग्रभाग पर प्रकाश स्रोत होता है। कई सिस्टोस्कोप में कुछ अतिरिक्त नलियां भी लगी होती हैं जो मूत्र सम्बन्धी समस्याओं के उपचार हेतु शल्य-क्रियात्मक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक उपकरणों का मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। सिस्टोस्कॉपी दो प्रकार की होती हैं - फ्लेक्सिबल तथा रिजिड - यह सिस्टोस्कोप के लचीलेपन के अंतर पर आधारित होती है। फ्लेक्सिबल सिस्टोस्कॉपी दोनों लिंगों में स्थानीय एनेस्थेसिया की सहायता से की जाती है। आमतौर पर, एनेस्थेटिक के रूप में ज़ाईलोकेन जेल (xylocaine gel) (उदाहरण के लिए ब्रांड नाम इन्सटिलाजेल) का प्रयोग किया जाता है, इसे मूत्रमार्ग में डाला जाता है। रिजिड सिस्टोस्कॉपी भी सामान परिस्थितियों में की जा सकती है, परन्तु सामान्य रूप से यह व्यापक एनेस्थेसिया देकर, विशेष रूप से पुरुष मरीजों में प्रोब से होने वाले कष्ट के कारण, की जाती है। एक डॉक्टर निम्नलिखित स्थितियों में सिस्टोस्कॉपी की सलाह दे सकता है.

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सुश्रुत संहिता

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा का प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे। सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। सुश्रुतसंहिता के उपदेशक काशिराज धन्वन्तरि हैं, एवं श्रोता रूप में उनके शिष्य आचार्य सुश्रुत सम्पूर्ण संहिता की रचना की है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ में रोगों की शल्यचिकित्सा एवं शालाक्य चिकित्सा ही मुख्य उद्देश्य है। शल्यशास्त्र को आचार्य धन्वन्तरि पृथ्वी पर लाने वाले पहले व्यक्ति थे। बाद में आचार्य सुश्रुत ने गुरू उपदेश को तंत्र रूप में लिपिबद्ध किया, एवं वृहद ग्रन्थ लिखा जो सुश्रुत संहिता के नाम से वर्तमान जगत में रवि की तरह प्रकाशमान है। आचार्य सुश्रुत त्वचा रोपण तन्त्र (Plastic-Surgery) में भी पारंगत थे। आंखों के मोतियाबिन्दु निकालने की सरल कला के विशेषज्ञ थे। सुश्रुत संहिता शल्यतंत्र का आदि ग्रंथ है। .

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स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा (शल्की सेल कैंसर)

स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा (एसएससी (SCC)) कार्सिनोमाटस कैंसर है, जो त्वचा, होंठ, मुंह, घेघा, मूत्राशय, प्रोस्टेट, फेफड़ों, योनि और गर्भाशय ग्रीवा सहित कई अलग विभिनन अंगों में होता है। यह शल्की इपिथेलियम (इपिथेलियम, जो शल्की सेल को अलग पहचान देता है) का एक घातक ट्यूमर है। अपने आम नाम के बावजूद, विविध लक्षण और पूर्वानुमान वाले अद्वितीय प्रकार के कैंसर है। .

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वृक्क अश्मरी

विविध प्रकार की पथरियाँ, जिनमें से कुछ कैल्सियम आक्जेलेट से बनी हैं और कुछ यूरिक एसिड की किडनी स्टोन या गुर्दे की पथरी (वृक्कीय कैल्कली,रीनल कॅल्क्युली, नेफरोलिथियासिस) (अंग्रेजी:Kidney stones) गुर्दे एवं मूत्रनलिका की बीमारी है जिसमें, वृक्क (गुर्दे) के अन्दर छोटे-छोटे या बड़े पत्थर का निर्माण होता है। गुर्दें में एक समय में एक या अधिक पथरी हो सकती है। सामान्यत: ये पथरियाँ अगर छोटी हो तो बिना किसी तकलीफ मूत्रमार्ग से शरीर से बाहर निकाल दी जाती हैं, किन्तु यदि ये पर्याप्त रूप से बड़ी हो जाएं (२-३ मिमी आकार के) तो ये मूत्रवाहिनी में अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। इस स्थिति में मूत्रांगो एवं कमर और पेट के आसपास असहनीय पीड़ा होती है जिसे रीनल कोलिक कहा जाता है । यह स्थिति आमतौर से 30 से 60 वर्ष के आयु के व्यक्तियों में पाई जाती है और स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में चार गुना अधिक पाई जाती है। बच्चों और वृद्धों में मूत्राशय की पथरी ज्यादा बनती है, जबकि वयस्को में अधिकतर गुर्दो और मूत्रवाहक नली में पथरी बन जाती है। आज भारत के प्रत्येक सौ परिवारों में से दस परिवार इस पीड़ादायक स्थिति से पीड़ित है, लेकिन सबसे दु:खद बात यह है कि इनमें से कुछ प्रतिशत रोगी ही इसका इलाज करवाते हैं और लोग इस असहनीय पीड़ा से गुज़रते है। एवम् अश्मरी से पीड़ित रोगी को काफ़ी मात्रा में पानी पीना चाहिए। जिन मरीजों को मधुमेह की बीमारी है उन्हें गुर्दे की बीमारी होने की काफी संभावनाएं रहती हैं। अगर किसी मरीज को रक्तचाप की बीमारी है तो उसे नियमित दवा से रक्तचाप को नियंत्रण करने पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि अगर रक्तचाप बढ़ता है, तो भी गुर्दे खराब हो सकते हैं। .

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कोदो

कोदो या कोदों या कोदरा (Paspalum scrobiculatum) एक अनाज है जो कम वर्षा में भी पैदा हो जाता है। नेपाल व भारत के विभिन्न भागों में इसकी खेती की जाती है। धान आदि के कारण इसकी खेती अब कम होती जा रही है। इसका पौधा धान या बडी़ घास के आकार का होता है। इसकी फसल पहली बर्षा होते ही बो दी जाती है और भादों में तैयार हो जाती है। इसके लिये बढि़या भूमि या अधिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती। कहीं-कहीं यह रूई या अरहर के खेत में भी बो दिया जाता है। अधिक पकने पर इसके दाने झड़कर खेत में गिर जाते हैं, इसलिये इसे पकने से कुछ पहले ही काटकर खलिहान में डाल देते हैं। छिलका उतरने पर इसके अंदर से एक प्रकार के गोल चावल निकलते हैं जो खाए जाते हैं। कभी कभी इसके खेत में 'अगिया' नाम की घास उत्पन्न हो जाती है जो इसके पौधों को जला देती है। यदि इसकी कटाई से कुछ पहले बदली हो जाय, तो इसके चावलों में एक प्रकार का विष आ जाता है। वैद्यक के मत से यह मधुर, तिक्त, रूखा, कफ और पित्तनाशक होता है। नया कोदो कुरु पाक होता है, फोडे़ के रोगी को इसका पथ्य दिया जाता है। कोदो के दानों को चावल के रूप में खाया जाता है और स्थानीय बोली में 'भगर के चावल' के नाम पर इसे उपवास में भी खाया जाता है। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा तथा 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाई जाती है। कोदो-कुटकी मधुमेह नियन्त्रण, यकृत (गुर्दों) और मूत्राशय के लिए लाभकारी है। .

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अपमूत्रण

बालक द्वारा अपमूत्रण का कलात्मक निरूपण बालिका द्वारा अपमूत्रण का कलात्मक निरूपण मूत्र को शरीर के बाहर निकालना अपमूत्रण या 'मूत्र त्यागना' (Urination) कहलाता है। इस क्रिया में मूत्राशय का मूत्र यूरेथ्रा, मूत्रद्वारा होते हुए शरीर से बाहर निकाला जाता है। स्वस्थ मनुष्यों (एवं अन्य अनेक पशुओं में) में अपमूत्रण की प्रक्रिया स्वैच्छिक नियन्त्रण में होती है किन्तु छोटे बच्चों, कुछ वृद्धों, तथा तंत्रिका की चोटों से ग्रसित रोगियों में यह अनिच्छिक रूप से (बिना चाहे) भी निकल सकता है। .

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अंग (शारीरिकी)

जीवविज्ञान (biology) की दृष्टि से एक विशिष्ट कार्य करने वाले उत्तकों के समूह को अंग (organ) कहते हैं। .

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