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मार्कण्डेय पुराण

सूची मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण प्राचीनतम पुराणों में से एक है। यह लोकप्रिय पुराण मार्कण्डेय ऋषि ने क्रौष्ठि को सुनाया था। इसमें ऋग्वेद की भांति अग्नि, इन्द्र, सूर्य आदि देवताओं पर विवेचन है और गृहस्थाश्रम, दिनचर्या, नित्यकर्म आदि की चर्चा है। भगवती की विस्तृत महिमा का परिचय देने वाले इस पुराण में दुर्गासप्तशती की कथा एवं माहात्म्य, हरिश्चन्द्र की कथा, मदालसा-चरित्र, अत्रि-अनसूया की कथा, दत्तात्रेय-चरित्र आदि अनेक सुन्दर कथाओं का विस्तृत वर्णन है। .

27 संबंधों: देवीमाहात्म्य, नैमिषारण्य, पितृमेध, पुराण, प्रेमानन्द भट्ट, पेहवा, बाणभट्ट, भारत में मधुमक्खी पालन, भारतीयकरण, मधु-कैटभ, मन्मथनाथ दत्त, यमी, शतरूपा, शंकरदेव, शक्ति (देवी), सिद्धिदात्री, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, सौन्दर्य प्रसाधन, सैन्य विज्ञान, हिन्दू धर्म ग्रंथ, हिन्दू धर्मग्रन्थों की सूची, विन्ध्याचल, विश्वेदेव, गुरु गोबिन्द सिंह, गुजराती साहित्य, कश्यप, कालिंजर दुर्ग

देवीमाहात्म्य

ताड़पत्र पर भुजिमोल लिपि में लिखी देवीमाहात्म्य की सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि देवीमाहात्म्यम् (अर्थ: देवी का महात्म्य) हिन्दुओं का एक धार्मिक ग्रन्थ है जिसमें देवी दुर्गा की महिषासुर नामक राक्षस के ऊपर विजय का वर्णन है। यह मार्कण्डेय पुराण का अंश है। इसमें ७०० श्लोक होने के कारण इसे 'दुर्गा सप्तशती' भी कहते हैं। इसमें सृष्टि की प्रतीकात्मक व्याख्या की गई है। जगत की सम्पूर्ण शक्तियों के दो रूप माने गये है - संचित और क्रियात्मक। नवरात्रि के दिनों में इसका पाठ किया जाता है। इस रचना का विशेष संदेश है कि विकास-विरोधी दुष्ट अतिवादी शक्तियों को सारे सभ्य लोगों की सम्मिलित शक्ति "सर्वदेवशरीजम" ही परास्त कर सकती है, जो राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। इस प्रकार आर्यशक्ति अजेय है। इसमे गमन (इसका भेदन) दुष्कर है। इसलिए यह 'दुर्गा' है। यह अतिवादियों के ऊपर संतुलन-शक्ति (stogun) सभ्यता के विकास की सही पहचान है। .

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नैमिषारण्य

नैमिषारण्य लखनऊ से ८० किमी दूर लखनऊ क्षेत्र के अर्न्तगत सीतापुर जिला में गोमती नदी के बाएँ तट पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। मार्कण्डेय पुराण में अनेक बार इसका उल्लेख ८८००० ऋषियों की तपःस्थली के रूप में आया है। वायु पुराणान्तर्गत माघ माहात्म्य तथा बृहद्धर्मपुराण, पूर्व-भाग के अनुसार इसके किसी गुप्त स्थल में आज भी ऋषियों का स्वाध्यायानुष्ठान चलता है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्रवा ने यहीं ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनायी थीं। वाराह पुराण के अनुसार यहां भगवान द्वारा निमिष मात्र में दानवों का संहार होने से यह 'नैमिषारण्य' कहलाया। वायु, कूर्म आदि पुराणों के अनुसार भगवान के मनोमय चक्र की नेमि (हाल) यहीं विशीर्ण हुई (गिरी) थी, अतएव यह नैमिषारण्य कहलाया। .

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पितृमेध

पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्एक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। .

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पुराण

पुराण, हिंदुओं के धर्म संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं। जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत्का बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है। 'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'।Merriam-Webster's Encyclopedia of Literature (1995 Edition), Article on Puranas,, page 915 पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं।Gregory Bailey (2003), The Study of Hinduism (Editor: Arvind Sharma), The University of South Carolina Press,, page 139 हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। John Cort (1993), Purana Perennis: Reciprocity and Transformation in Hindu and Jaina Texts (Editor: Wendy Doniger), State University of New York Press,, pages 185-204 पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएं, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताए जा सकते हैं। कर्मकांड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि संबंधी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परंपरागत वृत्तांतों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा सांप्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं। पुराण उस प्रकार प्रमाण ग्रंथ नहीं हैं जिस प्रकार श्रुति, स्मृति आदि हैं। पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं कहीं विरोध भी हैं पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं। .

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प्रेमानन्द भट्ट

प्रेमानन्द भट्ट (1649–1714) गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे 'प्रेमानन्द' के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। गुजराती साहित्य में वे 'आख्यान' के लिए प्रसिद्ध हैं जो काव्य का एक विशेष प्रकार है। प्रेमानंद के काव्य में गुजरात की आत्मा का पूर्णं प्रस्फुटन हुआ है। प्राचीन पौराणिक कथाओं और गुजराती जनता की रुचि के बीच जो कुछ व्यवधान शेष रह गया था उसे प्रेमानंद ने अपनी प्रतिभा एवं अद्वितीय आख्यान-रचना-कौशल द्वारा सर्वथा पूर दिया। मालण, नाकर आदि पूर्ववर्ती गुजराती आख्यानकारों ने जिस पथ का निर्माण किया था प्रेमानंद के कृतित्व में वह सर्वाधिक प्रशस्त अवस्था में दृष्टिगत होता है। वे निर्विवाद रूप से गुजराती के श्रेष्ठतम आख्यानकार हैं। .

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पेहवा

पिहोवा (पेहवा, पेहोवा) हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले का एक नगर है। इसका पुराना नाम 'पृथूदक' है। यह एक प्रसिद्ध तीर्थ है। .

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बाणभट्ट

बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्य लेखक और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के आस्थान कवि थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र था और कादंबरी दुनिया का पहला उपन्यास था। कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट जी का देहांत हो गया तो उपन्यास पूरा करने का काम उनके पुत्र भूषणभट्ट ने अपने हाथ में लिया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है। .

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भारत में मधुमक्खी पालन

भारत में मधुमक्खी पालन का प्राचीन वेद और बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख किया गया हैं। मध्य प्रदेश में मध्यपाषाण काल की शिला चित्रकारी में मधु संग्रह गतिविधियों को दर्शाया गया हैं। हालांकि भारत में मधुमक्खी पालन की वैज्ञानिक पद्धतियां १९वीं सदी के अंत में ही शुरू हुईं, पर मधुमक्खियों को पालना और उनके युद्ध में इस्तेमाल करने के अभिलेख १९वीं शताब्दी की शुरुआत से देखे गए हैं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहित किया गया। मधुमक्खी की पाँच प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं जो कि प्राकृतिक शहद और मोम उत्पादन के लिए व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। .

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भारतीयकरण

भारतीयकरण' का अर्थ है- जीवन के विविध क्षेत्रों में भारतीयता का पुनःप्रतिष्ठा। ‘भारतीयता’ शब्द ‘भारतीय’ विशेषण में ‘ता’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है जो संज्ञा (भाववाचक संज्ञा) रूप में परिणत हो जाता है। भारतीय का अर्थ है - भारत से संबंधित। भारतीयता से तात्पर्य उस विचार या भाव से है जिसमें भारत से जुड़ने का बोध होता हो या भारतीय तत्वों की झलक हो या जो भारतीय संस्कृति से संबंधित हो। भारतीयता का प्रयोग राष्ट्रीयता को व्यक्त करने के लिए भी होता है। भारतीयता के अनिवार्य तत्व हैं - भारतीय भूमि, जन, संप्रभुता, भाषा एवं संस्कृति। इसके अतिरिक्त अंतःकरण की शुचिता (आंतरिक व बाह्य शुचिता) तथा सतत सात्विकता पूर्ण आनन्दमयता भी भारतीयता के अनिवार्य तत्व हैं। भारतीय जीवन मूल्यों से निष्ठापूर्वक जीना तथा उनकी सतत रक्षा ही सच्ची भारतीयता की कसौटी है। संयम, अनाक्रमण, सहिष्णुता, त्याग, औदार्य (उदारता), रचनात्मकता, सह-अस्तित्व, बंधुत्व आदि प्रमुख भारतीय जीवन मूल्य हैं। .

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मधु-कैटभ

मधु-कैटभ का वध करते हुए विष्णु देवी महात्म्य का एक चित्र। मधु और कैटभ सृष्टि के निर्माण की प्राचीन भारतीय अवधारणा से जुड़े हुए असुर हैं। इन दोनों का जन्म कल्पान्त तक सोते हुए विष्णु के दोनों कानों से हुई थी। जब वे ब्रह्मा को मारने दौड़े तो विष्णु ने उन्हें नष्ट कर दिया। तभी से विष्णु को 'मधुसूदन' एवं 'कैटभाजित्' कहते हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कैटभ का नाश उमा द्वारा हुआ था जिससे उन्हें 'कैटभा' कहते हैं। हरिवंश पुराण की अनुश्रुति है कि दोनों राक्षसों की मेदा की ढेर के कारण पृथ्वी का नाम मेदिनी पड़ गया। .

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मन्मथनाथ दत्त

मन्मथनाथ दत्त संस्कृत एवं पालि के विद्वान, बांग्ला लेखक, इतिहासविद तथा प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अनुवादक थे। 'शास्त्री' की उपाधि मिलने के पश्चात वे 'मन्मथनाथ शास्त्री' नाम से जाने जाते हैं। आज उनके जीवन के बारे में बहुत कम ज्ञात है। मन्मथनाथ दत्त ने एम ए तथा एम आर ए एस की शिक्षा पायी थी। कई वर्षों तक कोलकाता के केशव अकादमी के रेक्टर रहे। १८९५ से १९०५ के बीच वे श्रीरामपुर कॉलेज के रेक्टर रहे। वे भारत के महानतम अनुवादक कहे जा सकते हैं। उन्होने महाभारत का तीन खण्डों में अनुवाद किया और रामायण का पाँच खण्डों में। इसके अलावा उन्होने सायण के ऋग्वेद के भाष्य का अनुवाद किया। मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, गरुड पुराण, भागवतम्, महानिर्वाणतन्त्र, मनु स्मृति, हरिवंशम्, पराशर संहिता, गौतमसंहिता, कामन्दकीय नीतिसार का भी अनुवाद किया। वे 'वेल्थ ऑफ इण्डिया' नामक एक मासिक पत्रिका भी निकालते थे। .

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यमी

यमी सूर्य की कन्या, जिसकी माता का नाम संज्ञा था। इसके सगे भाई यम अथवा यमराज हैं। यम तथा यमी एक साथ जुड़वाँ जन्मे थे और यमी का दूसरा नाम यमुना भी है। इन भाई-बहन की कथा विष्णुपुराण (३-२-४) एवं मार्कण्डेय पुराण (७४-४) पुराणों में सविस्तार वर्णित है। ऋग्वेद के अनुसार विवस्वान् के आश्वद्वय यम तथा यमी सरण्यु के गर्भ से हुए थे (१०। १४)। विवस्वान की कन्या यमी ने इंद्र के आदेश से शक्तिपुत्र पराशर के कल्याणार्थ दासराज के घर सत्यवती नाम से जन्म लिया (शिवपुराण)। इनकी कथा कूर्मपुराण में भी पाई जाती है। यम द्वितीया के संबंध में एक दंतकथा है कि इसी दिन यम अपनी बहन यमी के यहाँ अतिथि होकर गए तो उन्होंने अपने भाई को एक विशेष पकवान (अवध में 'फरा') बनाकर खिलाया। यमराज इसे खाकर अपनी बहन पर परम प्रसन्न हुए और चलते समय उनसे वरदान माँगने को कहा। यमुना ने अंत में यही वर माँगा कि जो भी भाई बहन यमद्वितीया के दिन मेरे तट पर स्नान कर यही पकवान बनाकर खाएँ वे यमराज की यातना से मुक्त रहें। .

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शतरूपा

शतरूपा संसार की प्रथम स्त्री थी ऐसी हिंदू मान्यता है। इनका जन्म ब्रह्मा के वामांग से हुआ था (ब्रह्मांड. 2-1-57) तथा स्वायंभुव मनु की पत्नी थीं। सुखसागर के अनुसार सृष्टि की वृद्धि के लिये ब्रह्मा जी ने अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम 'का' और 'या' (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयंभुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव कहलाये। इन्हें प्रियव्रत, उत्तानपाद आदि सात पुत्र और तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं। नरमानस पुत्रों के बाद ब्रह्मा ने अंगजा नाम की एक कन्या उत्पन्न की जिसके शतरूपा, सरस्वती आदि नाम भी थे। मत्स्य पुराण में लिखा है कि ब्रह्मा से इसे स्वायंभुव मनु, मारीच आदि सात पुत्र हुए (मत्स्य. 4-24-30)। हरिहरपुराण के अनुसार शतरूपा ने घोर तपस्या करके स्वायँभुव मनु को पति रूप में प्राप्त किया था और इनसे 'वीर' नामक एक पुत्र हुआ। मार्कण्डेयपुराण में शतरूपा के दो पुत्रों के अतिरिक्त ऋद्धि तथा प्रसूति नाम की दो कन्याओं का भी उल्लेख है। कहीं कहीं एक और तीसरी कन्या देवहूति का भी नाम मिलता है। शिव तथा वायुपुराणों में दो कन्याओं प्रसूति एवं आकूति का नाम है। वायुपुराण के अनुसार ब्रह्म शरीर के दो अंश हुए थे जिनमें से एक से शतरूपा हुई थीं। देवीभागवत आदि में शतरूपा की कथाएँ कुछ भिन्न दी हुई हैं। श्रेणी:श्रीमद्भागवत श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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शंकरदेव

श्रीमन्त शंकरदेव असमिया भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा हिन्दू समाजसुधारक थे। .

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शक्ति (देवी)

दुर्गा के रूप में शक्ति शक्ति, ईश्वर की वह कल्पित माया है जो उसकी आज्ञा से सब काम करनेवाली और सृष्टिरचना करनेवाली मानी जाती है। यह अनंतरूपा और अनंतसामर्थ्यसंपन्ना कही गई है। यही शक्ति जगत्रूप में व्यक्त होती है और प्रलयकाल में समग्र चराचर जगत् को अपने में विलीन करके अव्यक्तरूपेण स्थित रहती है। यह जगत् वस्तुत: उसकी व्यवस्था का ही नाम है। गीता में वर्णित योगमाया यही शक्ति है जो व्यक्त और अव्यक्त रूप में हैं। कृष्ण 'योगमायामुवाश्रित:' होकर ही अपनी लाला करते हैं। राधा उनकी आह्वादिनी शक्ति है। शिव शक्तिहीन होकर कुछ नहीं कर सकते। शक्तियुक्त शिव ही सब कुछ करने में, न करने में, अन्यथा करने में समर्थ होते हैं। इस तरह भारतीय दर्शनों में किसी न किसी नाम रूप से इसकी चर्चा है। पुराणों में विभिन्न देवताओं की विभिन्न शक्तियों की कल्पना की गई है। इन शक्तियों को बहुधा देवी के रूप में और मूर्तिमती माना गया है। जैसे, विष्णु की कीर्ति, कांति, तुष्टि, पुष्टि आदि; रुद्र की गुणोदरी, गोमुखी, दीर्घजिह्वा, ज्वालामुखी आदि। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार समस्त देवताओं की तेजोराशि देवी शक्ति के रूप में कही गई है जिसकी शक्ति वैष्णवी, माहेश्वरी, ब्रह्माणी, कौमारी, नारसिंही, इंद्राणी, वाराही आदि हैं। उन देवों के स्वरूप और गुणादि से युक्त इनका वर्णन प्राप्त होता है। तंत्र के अनुसार किसी पीठ की अधिष्ठात्री देवी शक्ति के रूप में कही गई है, जिसकी उपासना की जाती है। इसके उपासक शाक्त कहे जाते हैं। यह शक्ति भी सृष्टि की रचना करनेवाली और पूर्ण सामर्थ्यसंपन्न कही गई है। बौद्ध, जैन आदि संप्रदायों के तंत्रशास्त्रों में शक्ति की कल्पना की गई है, इन्हें बौद्धाभर्या भी कहा गया है। तांत्रिकों की परिभाषा में युवती, रूपवती, सौभाग्यवती विभिन्न जाति की स्त्रियों को भी इस नाम से कहा गया है और विधिपूर्वक इनका पूजन सिद्धिप्रद माना गया है। प्रभु, मंत्र और उत्साह नाम से राजाओं की तीन शक्तियाँ कही गई हैं। कोष और दंड आदि से संबंधित शक्ति प्रभुशक्ति, संधिविग्रह आदि से संबंधित मंत्रशक्ति और विजय प्राप्त करने संबंधी शक्ति को उत्साह शक्ति कहा गया। राज्यशासन की सुदृढ़ता के निमित्त इनका होना आवश्यक कहा गया है। शब्द के अंतर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार शब्दशक्ति नाम से अभिहित है। ये व्यापार तीन कहे गए हैं - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। आचार्यों ने इसे शक्ति और वृत्ति नाम से कहा है। घट के निर्माण में मिट्टी, चक्र, दंड, कुलाल आदि कारण है और चक्र का घूमना शक्ति या व्यापार है और अभिधा, लक्षणा आदि व्यापार शक्तियाँ हैं। मम्मट ने व्यापार शब्द का प्रयोग किया है तो विश्वनाथ ने शक्ति का। 'शक्ति' में ईश्वरेच्छा के रूप में शब्द के निश्चित अर्थ के संकेत को माना गया है। यह प्राचीन तर्कशास्त्रियों का मत है। बाद में 'इच्छामात्र' को 'शक्ति' माना गया, अर्थात् मनुष्य की इच्छा से भी शब्दों के अर्थसंकेत की परंपरा को माना। 'तर्कदीपिका' में शक्ति को शब्द अर्थ के उस संबंध के रूप में स्वीकार किया गया है जो मानस में अर्थ को व्यक्त करता है। .

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सिद्धिदात्री

माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता है। ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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सौन्दर्य प्रसाधन

कुछ सौन्दर्य प्रसाधन और लगाने के औजार स्त्री की रागालंकृत आँख का पास से लिया गया फोटो अंगराग या सौन्दर्य प्रसाधन या कॉस्मेटिक्स (Cosmetics) ऐसे पदार्थों को कहते हैं जो मानव शरीर के सौन्दर्य को बढ़ाने या सुगन्धित करने के काम आते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों का सौंदर्य अथवा मोहकता बढ़ाने के लिए या उनको स्वच्छ रखने के लिए शरीर पर लगाई जाने वाली वस्तुओं को अंगराग (कॉस्मेटिक) कहते हैं, परंतु साबुन की गणना अंगरागों में नहीं की जाती। अंगराग प्राकृतिक या कृत्रिम दोनो प्रकार के होते हैं। वे विशेषतः त्वचा, केश, नाखून को सुन्दर और स्वस्थ बनाने के काम आते हैं। ये व्यक्ति के शरीर के गंध और सौन्दर्य की वृद्धि करने के लिये लगाये जाते है। शरीर के किसी अंग पर सौन्दर्य प्रसाध लगाने को 'मेक-अप' कहते हैं। इसे शरीर के सौन्दर्य निखारने के लिये लगाया जाता है। 'मेक-अप' की संस्कृति पश्चिमी देशों से आरम्भ होकर भारत सहित पूरे विश्व में फैल गयी है। 'मेक-अप' कई प्रक्रियाओं की एक शृंखला है जो चेहरे या सम्पूर्ण देह की छबि को बदलने का प्रयत्न करती है। यह किसी प्रकार की कमी को ढकने या छिपाने के साथ-साथ सुन्दरता को उभारने का काम भी करती है। .

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सैन्य विज्ञान

सैन्य विज्ञान (Military Science) के अन्तर्गत युद्ध एवं सशस्त्र संघर्ष से सम्बन्धित तकनीकों, मनोविज्ञान एवं कार्य-विधि (practice) आदि का अध्ययन किया जाता है। भारत सहित दुनिया के कई प्रमुख देश जैसे अमेरिका, इजराइल, जर्मनी, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, रूस, इंगलैंड, चीन, फ्रांस, कनाडा, जापान, सिंगापुर, मलेशिया में सैन्य विज्ञान विषय को सुरक्षा अध्ययन (Security Studies), रक्षा एवं सुरक्षा अध्ययन (Defence and Security Studies), रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन (Defence and Strategic studies), सुरक्षा एवं युद्ध अध्ययन नाम से भी अध्ययन-अध्यापन किया जाता है। सैन्य विज्ञान ज्ञान की वह शाखा है जिसमें सैनिक विचारधारा, संगठन सामग्री और कौशल का सामाजिक संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। आदिकाल से ही युद्ध की परम्परा चली आ रही है। मानव जाति का इतिहास युद्ध के अध्ययन के बिना अधूरा है और युद्ध का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी मानव जाति की कहानी। युद्ध मानव सभ्यता के विकास के प्रमुख कारणों में से एक हैं। अनेक सभ्यताओं का अभ्युदय एवं विनाश हुआ, परन्तु युद्ध कभी भी समाप्त नहीं हुआ। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ वैसे-वैसे नवीन हथियारों के निर्माण के फलस्वरूप युद्ध के स्वरूप में परिवर्तन अवश्य आया है। सैन्य विज्ञान के अन्तर्गत युद्ध एवं सशस्त्र संघर्ष से सम्बन्धित तकनीकों, मनोविज्ञान एवं कार्य-विधि आदि का अध्ययन किया जाता है। सैन्य विज्ञान के निम्नलिखित छः मुख्य शाखायें हैं.

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हिन्दू धर्म ग्रंथ

वैदिक सनातन वर्णाश्रम व्यक्ति प्रवर्तित धर्म नहीं है। इसका आधार वेदादि धर्मग्रन्थ है, जिनकी संख्या बहुत बड़ी है। ये सब दो विभागों में विभक्त हैं-.

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हिन्दू धर्मग्रन्थों की सूची

हिन्दूओं के धर्मग्रंथ मुख्यतः संस्कृत में हैं। बाद के काल में आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी अनेक धर्मग्रन्थों की रचना हुई। .

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विन्ध्याचल

विन्ध्याचल उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का एक धार्मिक दृष्टिकोण से प्रसिद्ध शहर है। यहाँ माँ विन्ध्यवासिनी देवी का मंदिर है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, माँ विन्ध्यवासिनी ने महिषासुर का वध करने के लिए अवतार लिया था। यह नगर गंगा के किनारे स्थित है। भारतीय मानक समय (IST) की रेखा विन्ध्याचल के रेलवे स्टेशन से होकर जाती है। .

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विश्वेदेव

विश्वेदेव (संस्कृत: विश्वेदेवाः; शाब्दिक अर्थ: सभी देवता) से तात्पर्य 'सभी देवताओं' से है। ऋग्वेद में अनेकों मंत्रों में 'विश्वदेवाः' की स्तुति की गई है जैसे 1.89, 3.54-56, 4.55, 5.41-51, 6.49-52, 7.34-37, 39, 40, 42, 43, 8.27-30, 58, 83 10.31, 35, 36, 56, 57, 61-66, 92, 93, 100, 101, 109, 114, 126, 128, 137, 141, 157, 165, 181 आदि। ऋग्वेद के मंत्र 3.54.17 में इन्द्र को विश्वेदेवाः का अध्यक्ष कहा गया है। 'विश्वेदेवाः' अग्नि तथा श्राद्ध देवता का भी नाम है और इस नाम का एक राक्षस भी हुआ है, पर प्राय: विश्वेदेवा: उन सभी नौ या दस देवताओं के समूह के लिए आता है जिनके नाम वेद, संहिता तथा अग्निपुराण आदि में दिए गए हैं। भागवत में इन्हें धर्म ऋषि तथा (दक्षकन्या), विश्वा के पुत्र बताया है और इनके नाम दक्ष, व्रतु, वसु, काम, सत्य, काल, रोचक, आद्रव, पुरुरवा तथा कुरज दिए हैं। इन सबों ने राजा मरुत के यज्ञ में सभासदों का काम किया था। वर्तमान मन्वन्तर में सात ही विश्वेदेव मान गए हैं और मार्कण्डेय पुराण के अनुसार विश्वामित्र के तिरस्कार करने के कारण इन्हें द्रौपदी के गर्भ से उनके पाँच पुत्रों के रूप में जन्म लेना और अश्वत्थामा के हाथों मरना पड़ा था। ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में विश्वेदेवा की स्तुति की गई है और शुक्ल यजुर्वेद में इन्हें गणदेवता के रूप में माना गया है। वेद संहिता में इनकी सख्या केवल नौ है और इन्हें इंद्र, अग्नि आदि से कुछ निम्न श्रेणी का माना है। ये मानवों के रक्षक तथा सत्कर्मों के पुरस्कारदाता कहे जाते हैं और ऋक्संहिता के एक मंत्र में इन्हें विश्व के अधिपति की उपाधि दी गई है। श्रेणी:हिन्दू देवता.

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गुरु गोबिन्द सिंह

गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: २२ दिसम्बर १६६६, मृत्यु: ७ अक्टूबर १७०८) सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सर्वस्वदानी' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। .

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गुजराती साहित्य

गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप 'नागर अपभ्रंश' से हुआ है। गुजराती भाषा का क्षेत्र गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के अतिरिक्त महाराष्ट्र का सीमावर्ती प्रदेश तथा राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भाग भी है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप 'गुर्जर अपभ्रंश' के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है। गुजराती साहित्य में दो युग माने जाते हैं-.

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कश्यप

आंध्र प्रदेश में कश्यप प्रतिमा वामन अवतार, ऋषि कश्यप एवं अदिति के पुत्र, महाराज बलि के दरबार में। कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि थे। इनकी गणना सप्तर्षि गणों में की जाती थी। हिन्दू मान्यता अनुसार इनके वंशज ही सृष्टि के प्रसार में सहायक हुए। .

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कालिंजर दुर्ग

कालिंजर, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक सन्दर्भ वाला, ऐतिहासिक दुर्ग है जो इतिहास में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन मन्दिर नगरी-खजुराहो के निकट ही स्थित है। कलिंजर नगरी का मुख्य महत्त्व विन्ध्य पर्वतमाला के पूर्वी छोर पर इसी नाम के पर्वत पर स्थित इसी नाम के दुर्ग के कारण भी है। यहाँ का दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। इस पर्वत को हिन्दू धर्म के लोग अत्यंत पवित्र मानते हैं, व भगवान शिव के भक्त यहाँ के मन्दिर में बड़ी संख्या में आते हैं। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। इसके बाद यह दुर्ग यहाँ के कई राजवंशों जैसे चन्देल राजपूतों के अधीन १०वीं शताब्दी तक, तदोपरांत रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे प्रसिद्ध आक्रांताओं ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल बादशाह भी कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: मुगल बादशाह अकबर ने इसे जीता व मुगलों से होते हुए यह राजा छत्रसाल के हाथों अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो गुप्त वंश के तृतीय -५वीं शताब्दी तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ शिल्पकला के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं। .

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