लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
इंस्टॉल करें
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

ग्रैव अपकशेरुकता

सूची ग्रैव अपकशेरुकता

ग्रैव अपकशेरुकता (सर्वाइकल स्पाॉन्डिलाइसिस या सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस) ग्रीवा (गर्दन) के आसपास के मेरुदंड की हड्डियों की असामान्य बढ़ोतरी और सर्विकल वर्टेब के बीच के कुशनों (इसे इंटरवर्टेबल डिस्क के नाम से भी जाना जाता है) में कैल्शियम का डी-जेनरेशन, बहिःक्षेपण और अपने स्थान से सरकने की वजह से होता है। लगातार लंबे समय तक कंप्यूटर या लैपटॉप पर बैठे रहना, बेसिक या मोबाइल फोन पर गर्दन झुकाकर देर तक बात करना और फास्ट-फूड्स व जंक-फूड्स का सेवन, इस मर्ज के होने के कुछ प्रमुख कारण हैं।। याहू जागरण।।१८ फरवरी, २००८। डॉ॰ पंकज भारती, होलिस्टिक फिजीशियन प्रौढ़ और वृद्धों में सर्वाइकल मेरुदंड में डी-जेनरेटिव बदलाव साधारण क्रिया है और सामान्यतः इसके कोई लक्षण भी नहीं उभरते। वर्टेब के बीच के कुशनों के डी-जेनरेशन से नस पर दबाव पड़ता है और इससे सर्विकल स्पाॅन्डिलाइसिस के लक्षण दिखते हैं। सामान्यतः ५वीं और ६ठी (सी५/सी६), ६ठी और ७वीं (सी६/सी७) और ४थी और ५वीं (सी४/सी५) के बीच डिस्क का सर्विकल वर्टेब्रा प्रभावित होता है। .

5 संबंधों: पेशीशोषी पार्श्व काठिन्य (एमियोट्रॉफ़िक लैटरल स्कलिरॉसिस), ब्रह्म मुद्रा, संधि (शरीररचना), संधि शोथ, गर्दन

पेशीशोषी पार्श्व काठिन्य (एमियोट्रॉफ़िक लैटरल स्कलिरॉसिस)

पेशीशोषी पार्श्व काठिन्य (संक्षिप्त ALS, जिसे लाउ गेहरिग रोग के रूप में भी संदर्भित किया जाता है) गतिजनक न्यूरॉन रोग का एक रूप है। ALS, एक प्रगामी, घातक, तंत्रिका-अपजननात्मक रोग है, जो स्वैच्छिक मांसपेशियों की गतिविधियों को नियंत्रित करने वाली केंद्रीय स्नायु प्रणाली की तंत्र कोशिकाएं गतिजनक न्यूरॉन के ह्रास के कारण होता है। उत्तरी अमेरिका में इस अवस्था को लोकप्रिय न्यूयॉर्क यांकीज़ बेसबॉल खिलाड़ी के नाम पर अक्सर लाउ गेहरिग रोग कहा जाता है, 1939 में जिनका इस रोग से पीड़ित के रूप में निदान किया गया था। .

नई!!: ग्रैव अपकशेरुकता और पेशीशोषी पार्श्व काठिन्य (एमियोट्रॉफ़िक लैटरल स्कलिरॉसिस) · और देखें »

ब्रह्म मुद्रा

ब्रह्म मुद्रा पद्मासन में बैठ कर की जाती है ब्रह्म मुद्रा योग की एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्रा है। यह योग की लुप्त हुई क्रियाओं में से एक है और इसके बारे में बहुत कम ज्ञान उपलब्ध है। इसके अंतर्गत ब्रह्ममुद्रा के तीन मुख और भगवान दत्तात्रेय के स्वरूप को स्मरण करते हुए कोई साधक तीन दिशाओं में अपना सिर घुमाता है। इसी कारण इसे ब्रह्ममुद्रा कहा जाता है। यह मुद्रा गर्दन के लिए विशेष लाभदायक तो है ही,। वेब दुनिया।।११ दिसंबर, २००८। पं.राजेश शास्त्री। ज्योतिष ऑनलाइन।।१० जुलाई, २००९ और जन साधारण लोगों के लिए जबकि लोग अनिद्रा, तनाव, मानसिक अवसाद जैसे रोगों से ज्यादा घिर रहे हैं एक अचूक उपाय है। ब्रह्म मुद्रा में कमर सीधी रखते हुए पद्मासन में बैठना होता है।। दरबारु ब्लॉग।।२० अगस्त, २००९। वैसे वज्रासन या सिद्धासन में भी बैठा जा सकता है।। वेब दुनिया। फिर अपने हाथों को घुटनों पर और कंधों को ढीला छोड़कर गर्दन को धीरे-धीरे दस बार ऊपर-नीचे करना होता है। सिर को पीछे की झुकने देते हैं। गर्दन को चलाते समय श्वास क्रिया को सामान्य रूप से चलने देते हैं और आंखें खुली रखते हैं। इस के साथ ही गर्दन को झटका दिए बिना दाएं-बाएं भी बारी-बारी से चलाना होता है। ब्रह्म मुद्रा के अंतर्गत ब्रह्ममुद्रा के तीन मुख और भगवान दत्तात्रेय के स्वरूप को स्मरण करते हुए कोई साधक तीन दिशाओं में अपना सिर घुमाता है। इसी कारण इसे ब्रह्ममुद्रा कहा जाता है। ठोड़ी कंधे की सीध में रखते हैं। दाएं-बाएं दस बार गर्दन घुमाने के बाद पूरी गोलाई में यथासंभव गोलाकार घुमाकर इस क्रम में कानों को कंधों से छुआते हैं। इसी का अभ्यास लगातार करने को ब्रह्ममुद्रा योग कहा जाता है। इसके चार से पांच चक्र तक किये जा सकते हैं। यह मुद्रा करते हुए ध्यान रखना चाहिये कि मेरुदंड पूर्ण रूप से सीधा रहना चाहिये। इसके अलावा जिस गति से गर्दन ऊपर जाये, उसी गति से गर्दन नीचे भी लानी चाहिये। सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस या अवटु ग्रंथि की निम्नसक्रियता तथा अतिसक्रियता (थायरॉयड) के रोगियों को ध्यान रखना चाहिये कि वे ठोड़ी को ऊपर की ओर दबायें। गर्दन को नीचे की ओर ले जाते समय कंधे न झुकायें, कमर, गर्दन व कंधे सीधे रखें। गले या गर्दन का कोई गंभीर रोग होने पर चिकित्सक की सलाह के बाद ही अभ्यास करें। ब्रह्ममुद्रा योग करने से आवश्यकता से अधिक नींद आने या नींद न आने की समस्या दूर होती है। ध्यान या साधना और अपने काम में मन लगने लगता है और आलस्य भी कम होता जाता है। अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए यह विशेष लाभदायक होता है, क्योंकि इससे पढ़ाई की थकान दूर होती ह और आंखों की कमजोरी भी दूर होती है। इससे चक्कर नहीं आते। जिन्हें ज्यादा सपने आते हैं उन्हें इससे विशेष लाभ होता है तथा बदलते मौसम के सर्दी-जुकाम और खांसी से छुटकारा भी मिलता है। .

नई!!: ग्रैव अपकशेरुकता और ब्रह्म मुद्रा · और देखें »

संधि (शरीररचना)

400px संधि या जोड़ (जर्मन: Gelenke, फ्रेंच: Articulations, अंग्रेज़ी: Joints) शरीर के उन स्थानों को कहते हैं, जहाँ दो अस्थियाँ एक दूसरे से मिलती है, जैसे कंधे, कुहनी या कूल्हे की संधि। इनका निर्माण शरीर में गति सुलभ करने और यांत्रिक आधार हेतु होता है। इनका वर्गीकरण संरचना और इनके प्रकार्यों के आधार पर होता है। .

नई!!: ग्रैव अपकशेरुकता और संधि (शरीररचना) · और देखें »

संधि शोथ

संधि शोथ यानि "जोड़ों में दर्द" (लैटिन, जर्मन, अंग्रेज़ी: Arthritis / आर्थ्राइटिस) के रोगी के एक या कई जोड़ों में दर्द, अकड़न या सूजन आ जाती है। इस रोग में जोड़ों में गांठें बन जाती हैं और शूल चुभने जैसी पीड़ा होती है, इसलिए इस रोग को गठिया भी कहते हैं। संधिशोथ सौ से भी अधिक प्रकार के होते हैं। अस्थिसंधिशोथ (osteoarthritis) इनमें सबसे व्यापक है। अन्य प्रकार के संधिशोथ हैं - आमवातिक संधिशोथ या 'रुमेटी संधिशोथ' (rheumatoid arthritis), सोरियासिस संधिशोथ (psoriatic arthritis)। संधिशोथ में रोगी को आक्रांत संधि में असह्य पीड़ा होती है, नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है, ज्वर होता है, वेगानुसार संधिशूल में भी परिवर्तन होता रहता है। इसकी उग्रावस्था में रोगी एक ही आसन पर स्थित रहता है, स्थानपरिवर्तन तथा आक्रांत भाग को छूने में भी बहुत कष्ट का अनुभव होता है। यदि सामयिक उपचार न हुआ, तो रोगी खंज-लुंज होकर रह जाता है। संधिशोथ प्राय: उन व्यक्तियों में अधिक होता है जिनमें रोगरोधी क्षमता बहुत कम होती है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही समान रूप से यह रोग आक्रांत करता है। .

नई!!: ग्रैव अपकशेरुकता और संधि शोथ · और देखें »

गर्दन

गर्दन सिर को धड़ से जोड़ती है गर्दन शरीर का वह हिस्सा होती है जो मानव और अन्य रीढ़-वाले जीवों में सिर को धड़ से जोड़ती है। लातिन भाषा में गर्दन से सम्बंधित चीज़ों के लिए "सर्विकल" शब्द इस्तेमाल किया जाता है। .

नई!!: ग्रैव अपकशेरुकता और गर्दन · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस, सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »