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सोलंकी वंश और हेमचन्द्राचार्य

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

सोलंकी वंश और हेमचन्द्राचार्य के बीच अंतर

सोलंकी वंश vs. हेमचन्द्राचार्य

सोलंकी वंश मध्यकालीन भारत का एक गुर्जर राजपूत राजवंश था। सोलंकी का अधिकार पाटन और कठियावाड़ राज्यों तक था। ये ९वीं शताब्दी से १३वीं शताब्दी तक शासन करते रहे।इन्हे गुजरात का चालुक्य भी कहा जाता था। यह लोग मूलत: सूर्यवंशी व्रात्य क्षत्रिय हैं और दक्षिणापथ के हैं परन्तु जैन मुनियों के प्रभाव से यह लोग जैन संप्रदाय में जुड़ गए। उसके पश्चात भारत सम्राट अशोकवर्धन मौर्य के समय में कान्य कुब्ज के ब्राह्मणो ने ईन्हे पून: वैदिकों में सम्मिलित किया(अर्बुद प्रादुर्भूत)।। १३वीं और १४वीं शताब्दी की चारणकथाओं में गुजरात के चालुक्यों का सोलंकियों के रूप में वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि इस वंश का संस्थापक आबू पर्वत पर एक अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ था। यह वंश, गुर्जर प्रतिहार, परमार और चहमाण सभी अग्निकुल के सदस्य थे। अपने पुरालेखों के आधार पर चौलुक्य यह दावा करते हैं कि वे ब्रह्मा के चुलुक (करतल) से उत्पन्न हुए थे, और इसी कारण उन्हें यह नाम (चौलुक्य) मिला। प्राचीन परंपराओं में ऐसा लगता है कि चौलुक्य मूल रूप से कन्नौज के कल्याणकटक नामक स्थान में रहते थे और वहीं से वे गुजरात जाकर बस गए। इस परिवार की चार शाखाएँ अब तक ज्ञात हैं। इनमें से सबसे प्राचीन मत्तमयूर (मध्यभारत) में नवीं शताब्दी के चतुर्थांश में शासन करती थी। अन्य तीन गुजरात और लाट में शासन करती थीं। इन चार शाखाओं में सबसे महत्वपूर्ण वह शाखा थी जो सारस्वत मंडल में अणहिलपत्तन (वर्तमान गुजरात के पाटन) को राजधानी बनाकर शासन करती थी। इस वंश का सबसे प्राचीन ज्ञात राजा मूलराज है। उसने ९४२ ईस्वी में चापों को परास्त कर सारस्वतमंडल में अपनी प्रभुता कायम की। मूलराज ने सौराष्ट्र और कच्छ के शासकों को पराजित करके, उनके प्रदेश अपने राज्य में मिला लिए, किंतु उसे अपने प्रदेश की रक्षा के लिए, शाकंभरी के चहमाणों, लाट के चौलुक्यों, मालव के परमारों और त्रिपुरी के कलचुरियों से युद्ध करने पड़े। इस वंश का दूसरा शासक भीम प्रथम है, जो १०२२ में सिंहासन पर बैठा। इस राजा के शासन के प्रारंभिक काल में महमूद गजनवी ने १०२५ में अणहिलपत्तन को ध्वंस कर दिया और सोमनाथ के मंदिर को लूट लिया। महमूद गजनवी के चौलुक्यों के राज्य से लौटने के कुछ समय पश्चात् ही, भीम ने आबू पर्वत और भीनमाल को जीत लिया और दक्षिण मारवाड़ के चाहमानों से लड़ा। ११वीं शताब्दी के मध्यभाग में उसने कलचुरि कर्ण से संधि करके परमारों को पराजित कर दिया और कुछ काल के लिए मालव पर अधिकार कर लिया। भीम के पुत्र और उत्तराधिकारी कर्ण ने कर्णाटवालों से संधि कर ली और मालव पर आक्रमण करके उसके शासक परमार जयसिंह को मार डाला, किंतु परमार उदयादित्य से हार खा गया। कर्ण का बेटा और उत्तराधिकारी जयसिंह सिद्धराज इस वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था। ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध से चौलुक्यों का राज्य गुर्जर कहलाता था। जयसिंह शाकंभरी और दक्षिण मारवाड़ के चहमाणी, मालव के परमारों, बुंदेलखंड के चंदेलों और दक्षिण के चौलुक्यों से सफलतापूर्वक लड़ा। उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल ने, शांकभरी के चहमाणों, मालव नरेश वल्लाल और कोंकण नरेश मल्लिकार्जुन से युद्ध किया। वह महान् जैनधर्म शिक्षक हेमचंद्र के प्रभाव में आया। उसके उत्तराधिकारी अजयपाल ने भी शार्कभरी के चाहमानों और मेवाड़ के गुहिलों से युद्ध किया, किंतु ११७६ में अपने द्वारपाल के हाथों मारा गया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी मूलराज द्वितीय के शासनकाल में मुइजउद्दीन मुहम्मद गोरी ने ११७८ में गुजरात पर आक्रमण किया, किंतु चौलुक्यों ने उसे असफल कर दिया। मूलराज द्वितीय का उत्तराधिकार उसके छोटे भाई भीम द्वितीय ने सँभाला जो एक शक्तिहीन शासक था। इस काल में प्रांतीय शासकों और सांमतों ने स्वतंत्रता के लिए सिर उठाया किंतु बघेलवंशी सरदार, जो राजा के मंत्री थे, उनपर नियंत्रण रखने में सफल हुए। फिर भी उनमें से जयसिंह नामक एक व्यक्ति को कुछ काल तक सिंहासन पर बलात् अधिकार करने में सफलता मिली किंतु अंत में उसे भीम द्वितीय के सम्मुख झुकना पड़ा। चौलुक्य वंश से संबंधित बघेलों ने इस काल में गुजरात की विदेशी आक्रमणों से रक्षा की, और उस प्रदेश के वास्तविक शासक बन बैठे। भीम द्वितीय के बाद दूसरा त्रिभुवनपाल हुआ, जो इस वंश का अंतिम ज्ञात राजा है। यह १२४२ में शासन कर रहा था। चौलुक्यों की इस शाखा के पतन के पश्चात् बघेलों का अधिकार देश पर हो गया। . ताड़पत्र-प्रति पर आधारित '''हेमचन्द्राचार्य''' की छवि आचार्य हेमचन्द्र (1145-1229) महान गुरु, समाज-सुधारक, धर्माचार्य, गणितज्ञ एवं अद्भुत प्रतिभाशाली मनीषी थे। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्रमें उनका नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाड्मयके सभी अंड्गो पर नवीन साहित्यकी सृष्टि तथा नये पंथको आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था। संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ थे, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार थे और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे। समस्त गुर्जरभूमिको अहिंसामय बना दिया। आचार्य हेमचंद्र को पाकर गुजरात अज्ञान, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्र्वासों से मुक्त हो कीर्ति का कैलास एवं धर्मका महान केन्द्र बन गया। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। १२वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परामें गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। .

सोलंकी वंश और हेमचन्द्राचार्य के बीच समानता

सोलंकी वंश और हेमचन्द्राचार्य आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): जयसिंह सिद्धराज, जैन धर्म

जयसिंह सिद्धराज

गुजरात के चालुक्य नरेश कर्ण और मयणल्लदेवी का पुत्र जयसिंह सिद्धराज (1094-1143 ई) कई अर्थों में उस वंश का सर्वश्रेष्ठ सम्राट् था। सिद्धराज उसका विरुद था। उसका जन्म 1094 ई. में हुआ था। पिता की मृत्यु के समय वह अल्पवयस्क था अतएव उसकी माता मयणल्लदेवी ने कई वर्षों तक अभिभाविका के रूप में शासन किया था। वयस्क होने और शासनसूत्र सँभालने के पश्चात् जयसिंह ने अपना ध्यान समीपवर्ती राज्यों की विजय की ओर दिया। अनेक युद्धों के अनंतर ही वह सौराष्ट्र के आभीर शासक नवघण अथवा खंगार को पराजित कर सका। विजित प्रदेश के शासन के लिए उसने सज्जन नाम के अधिकारी को प्रांतपाल नियुक्त किया किंतु संभवत: जयसिंह का अधिकार चिरस्थायी नहीं हो पाया। जयसिंह ने चालुक्यों के पुराने शत्रु नाडोल के चाहमान वंश के आशाराज को अधीनता स्वीकार करने और सामंत के रूप में शासन करने के लिए बाध्य किया। उसने उत्तर में शाकंभरी के चाहमान राज्य पर भी आक्रमण किया और उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया। किंतु एक कुशलनीतिज्ञ के समान उसने अपने पक्ष को शक्तिशाली बनाने के लिए अपनी पुत्री का विवाह चाहमान नरेश अर्णोराज के साथ कर दिया और अर्णोराज को सामंत के रूप में शासन करने दिया। मालव के परमार नरेश नरवर्मन् के विरुद्ध उसे आशाराज और अर्णोराज से सहायता प्राप्त हुई थी। दीर्घकालीन युद्ध के पश्चात् नरवर्मन् बंदी हुआ लेकिन जयसिंह ने बाद में उसे मुक्त कर दिया। नरवर्मन् के पुत्र यशोवर्मन् ने भी युद्ध को चालू रखा। अंत में विजय फिर भी जयसिंह की ही हुई। बंदी यशोवर्मन् को कुछ समय तक कारागार में रहना पड़ा। इस विजय के उपलक्ष में जयसिंह ने अवंतिनाथ का विरुद धारण किया और अंवतिमंडल के शासन के लिए महादेव को नियुक्त किया। किंतु जयसिंह के राज्यकाल के अंतिम वर्षों में यशोवर्मन् के पुत्र जयवर्मन् ने मालवा राज्य के कुछ भाग को स्वतंत्र कर लिया था। जयसिंह ने भिनमाल के परमारवंशीय सोमेश्वर को अपने राज्य के कुछ भाग को स्वतंत्र कर लिया था। जयसिह ने भिनमाल के परमारवंशीय सोमेश्वर को अपने राज्य पर पुनः अधिकार प्राप्त करने में सहायता की थी और संभवत: उसके साथ पूर्वी पंजाब पर आक्रमण किया था। जयसिंह को चंदेल नरेश मदनवर्मन् के विरुद्ध कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। संभवत: मालव में मदनवर्मन् की सफलताओं से आशांकित होकर ही उसने त्रिपुरी के कलचुरि और गहड़वालों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए। कल्याण के पश्चिमी चालुक्य वंश के विक्रमादित्य षष्ठ ने नर्मदा के उत्तर में और लाट तथा गुर्जर पर कई विजयों का उल्लेख किय है। किंतु ये क्षणिक अभियान मात्र रहे होंगे और चालुक्य राज्य पर इनका कोई भी प्रभाव नहीं था। अपने एक अभिलेख में जयसिंह ने पेर्मार्दि पर अपनी विजय का उल्लेख किया है किंतु संभावना है कि पराजित नरेश कोई साधारण राजा था, प्रसिद्ध चालुक्य नरेश नहीं। जयसिंह को सिंधुराज पर विजय का भी श्रेय दिया गया है जो सिंध का कोई स्थानीय मुस्लिम सामंत रहा होगा। जयसिंह ने बर्बरक को भी पराजित किया जो संभवत: गुजरात में रहनेवाली किसी अनार्य जाति का व्यक्ति था और सिद्धपुर के साधुओं को त्रास देता था। अपनी विजयों के फलस्वरूप जयसिंह ने चालुक्य साम्राज्य की सीमाओं का जो विस्तार किया वह उस वंश के अन्य किसी भी शासक के समय में सम्भव नहीं हुआ। उत्तर में उसका अधिकार जोधपुर और जयपुर तक तथा पश्चिम में भिलसा तक फैला हुआ था। काठियावाड़ और कच्छ भी उसके राज्य में सम्मिलित थे। जयसिंह पुत्रहीन था। इस कारण उसके जीवन के अंतिम वर्ष दुःखपूर्ण थे। उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन उसके पितृव्य क्षेमराज के प्रपौत्र कुमारपाल को मिला। किन्तु क्षेमराज औरस पुत्र नहीं था, इसलिए जयसिंह ने अपने मंत्री उदयन के पुत्र बाहड को अपना दत्तक पुत्र बनाया था। रुद्र महालय मन्दिर के भग्नावशेष अपनी विजयों से अधिक जयसिंह अपने सांस्कृतिक कृत्यों के कारण स्मरणीय है। जयसिंह ने कवियों और विद्वानों को प्रश्रय देकर गुजरात को शिक्षा और साहित्य के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इन साहित्यकारों में से रामचंद्र, आचार्य जयमंगल, यशःचन्द्र और वर्धमान के नाम उल्लेखनीय हैं। श्रीपाल को उसने कवीन्द्र की उपाधि दी थी और उसे अपना भाई कहता था। लेकिन इन सभी से अधिक विद्वान् और प्रसिद्ध तथा जयसिंह का विशेष प्रिय और स्नेहपात्र जिसकी बहुमुखी प्रतिभा के कारण अन्य समकालीन विद्वानों का महत्व चमक नहीं पाया, जैन पंडित हेमचंद्र था। अपने व्याकरण ग्रंथ सिद्धहेमचंद्र के द्वारा उसने सिद्धराज का नाम अमर कर दिया है। जयसिह शैवमतावलंबी था। मेरुत्तुंग के अनुसार उसने अपना माता के कहने पर बाहुलोड में यात्रियों से लिया जानेवाला कर समाप्त कर दिया। लेकिन धार्मिक मामले में उसकी नीति उदार और समदर्शी थी। उसके समकालीन अधिकांश विद्वान् जैन थे। किंतु इनको संरक्षण देने में उसका जैनियों के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। एक बार उसने ईश्वर और धर्म के विषय में सत्य को जानने के लिए विभिन्न मतों के आचार्यों से पूछा किन्तु अंत में हेमचंद्र के प्रभाव में सदाचार के मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ समझा। इस्लाम के प्रति भी उसकी नीति उदार थी। उसकी सर्वप्रमुख कृति सिद्धपुर में रुद्रमहालय का मंदिर था जो अपने विस्तार के लिय भारत के मंदिरों में प्रसिद्ध है। उसने सहस्रलिंग झील भी निर्मित की और उसके समीप एक कीर्तिस्तम्भ बनवाया। सरस्वती के तटपर उसने दशावतार नारायण का मंदिर भी बनवाया था। .

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जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

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सोलंकी वंश और हेमचन्द्राचार्य के बीच तुलना

सोलंकी वंश 18 संबंध है और हेमचन्द्राचार्य 49 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 2.99% है = 2 / (18 + 49)।

संदर्भ

यह लेख सोलंकी वंश और हेमचन्द्राचार्य के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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