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संस्कृत ग्रन्थों की सूची और संस्कृत साहित्य

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

संस्कृत ग्रन्थों की सूची और संस्कृत साहित्य के बीच अंतर

संस्कृत ग्रन्थों की सूची vs. संस्कृत साहित्य

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। . बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

संस्कृत ग्रन्थों की सूची और संस्कृत साहित्य के बीच समानता

संस्कृत ग्रन्थों की सूची और संस्कृत साहित्य आम में 40 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): चाणक्य, दण्डी, ध्वन्यालोक, नाट्य शास्त्र, बाणभट्ट, बीजगणित, भरत मुनि, भारवि, भास, भवभूति, भोज, महाभारत, माघ, रामायण, राजशेखर, रुय्यक, श्रीहर्ष, शूद्रक, साहित्य दर्पण, हेमचन्द्राचार्य, जयदेव, जगन्नाथ, वात्स्यायन, वामनावतार, वाल्मीकि, विशाखदत्त, व्यक्तिविवेक, वेदव्यास, गणित, आचार्य मम्मट, ..., आचार्य विश्वनाथ, आचार्य आनन्दवर्धन, कामसूत्र, कालिदास, काव्यप्रकाश, काव्यमीमांसा, काव्यालंकार, क्षेमेंद्र, अभिनवगुप्त, अभिज्ञानशाकुन्तलम् सूचकांक विस्तार (10 अधिक) »

चाणक्य

चाणक्य (अनुमानतः ईसापूर्व 375 - ईसापूर्व 283) चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे 'कौटिल्य' नाम से भी विख्यात हैं। उन्होने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है। अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है। मुद्राराक्षस के अनुसार इनका असली नाम 'विष्णुगुप्त' था। विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इसकी कथा बराबर मिलती है। बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है। चाणक्य तक्षशिला (एक नगर जो रावलपिंडी के पास था) के निवासी थे। इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है। ये उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे। उनके नाम पर एक धारावाहिक भी बना था जो दूरदर्शन पर 1990 के दशक में दिखाया जाता था। .

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दण्डी

दण्डी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इनके जीवन के संबंध में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है। कुछ विद्वान इन्हें सातवीं शती के उत्तरार्ध या आठवीं शती के प्रारम्भ का मानते हैं तो कुछ विद्वान इनका जन्म 550 और 650 ई० के मध्य मानते हैं। .

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ध्वन्यालोक

ध्वन्यालोक, आचार्य आनन्दवर्धनकृत काव्यशास्त्र का ग्रन्थ है। आचार्य आनन्दवर्धन काव्यशास्त्र में 'ध्वनि सम्प्रदाय' के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। ध्वन्यालोक उद्योतों में विभक्त है। इसमें कुल चार उद्योत हैं। प्रथम उद्योत में ध्वनि सिद्धान्त के विरोधी सिद्धांतों का खण्डन करके ध्वनि-सिद्धांत की स्थापना की गयी है। द्वितीय उद्योत में लक्षणामूला (अविवक्षितवाच्य) और अभिधामूला (विवक्षितवाच्य) के भेदों और उपभेदों पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है। तृतीय उद्योत पदों, वाक्यों, पदांशों, रचना आदि द्वारा ध्वनि को प्रकाशित करता है और रस के विरोधी और विरोधरहित उपादानों को भी। चतुर्थ उद्योत में ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य के प्रयोग से काव्य में चमत्कार की उत्पत्ति को प्रकाशित किया गया है। ध्वन्यालोक के तीन भाग हैं- कारिका भाग, उस पर वृत्ति और उदाहरण। कुछ विद्वानों के अनुसार कारिका भाग के निर्माता आचार्य सहृदय हैं और वृत्तिभाग के आचार्य आनन्दवर्धन। ऐसे विद्वान अपने उक्तमत के समर्थन में ध्वन्यालोक के अन्तिम श्लोक को आधार मानते हैं- लेकिन कुंतक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र आदि आचार्यों के अनुसार कारिका भाग और वृत्ति भाग दोनों के प्रणेता आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। आचार्य आनन्दवर्धन भी स्वयं लिखते हैं- यहाँ उन्होंने अपने को ध्वनि सिद्धान्त का प्रवर्तक बताया है। इसके पहले वाले श्लोक में प्रयुक्त ‘सहृदय’ शब्द किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं, बल्कि सहृदय लोगों का वाचक है और कारिका तथा वृत्ति, दोनों भागों के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन को ही मानना चाहिए। इस अनुपम ग्रंथ पर दो टीकाएँ लिखी गयीं- ‘चन्द्रिका’ और ‘लोचन’। हालाँकि केवल ‘लोचन’ टीका ही आज उपलब्ध है। जिसके लिखने वाले आचार्य अभिनव गुप्तपाद हैं। ‘चन्द्रिका’ टीका का उल्लेख इन्होंने ही किया है और उसका खण्डन भी किया है। इसी उल्लेख से पता चलता है कि‘चंद्रिका’ टीका के टीकाकार भी आचार्य अभिनवगुप्तपाद के पूर्वज थे। .

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नाट्य शास्त्र

250px नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्य शास्त्र कहते हैं। इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का काल ४०० ई के निकट माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 37 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है। .

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बाणभट्ट

बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्य लेखक और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के आस्थान कवि थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र था और कादंबरी दुनिया का पहला उपन्यास था। कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट जी का देहांत हो गया तो उपन्यास पूरा करने का काम उनके पुत्र भूषणभट्ट ने अपने हाथ में लिया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है। .

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बीजगणित

बीजगणित (संस्कृत ग्रन्थ) भी देखें। ---- आर्यभट बीजगणित (algebra) गणित की वह शाखा जिसमें संख्याओं के स्थान पर चिन्हों का प्रयोग किया जाता है। बीजगणित चर तथा अचर राशियों के समीकरण को हल करने तथा चर राशियों के मान निकालने पर आधारित है। बीजगणित के विकास के फलस्वरूप निर्देशांक ज्यामिति व कैलकुलस का विकास हुआ जिससे गणित की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी। इससे विज्ञान और तकनीकी के विकास को गति मिली। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने कहा है - अर्थात् मंदबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है। बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परंतु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे— बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारंभ हुआ है; परंतु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे। .

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भरत मुनि

भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र लिखा। इनका समय विवादास्पद हैं। इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है। भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है।इसमें सर्वप्रथम रस सिद्धांत की चर्चा तथा इसके प्रसिद्द सूत्र -'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" की स्थापना की गयी है| इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छंदशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। 'भारतीय नाट्यशास्त्र' अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी है क्योकि शंकर ने ब्रह्मा को तथा ब्रह्मा ने अन्य ऋषियो को काव्य शास्त्र का उपदेश दिया। विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं श्रेणी:संस्कृत आचार्य.

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भारवि

भारवि (छठी शताब्दी) संस्कृत के महान कवि हैं। वे अर्थ की गौरवता के लिये प्रसिद्ध हैं ("भारवेरर्थगौरवं")। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य उनकी महान रचना है। इसे एक उत्कृष्ट श्रेणी की काव्यरचना माना जाता है। इनका काल छठी-सातवीं शताब्दि बताया जाता है। यह काव्य किरातरूपधारी शिव एवं पांडुपुत्र अर्जुन के बीच के धनुर्युद्ध तथा वाद-वार्तालाप पर केंद्रित है। महाभारत के एक पर्व पर आधारित इस महाकाव्य में अट्ठारह सर्ग हैं। भारवि सम्भवतः दक्षिण भारत के कहीं जन्मे थे। उनका रचनाकाल पश्चिमी गंग राजवंश के राजा दुर्विनीत तथा पल्लव राजवंश के राजा सिंहविष्णु के शासनकाल के समय का है। कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है। .

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भास

भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर १९१२ में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भास-लिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। .

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भवभूति

भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति ने अपने संबंध में महावीरचरित्‌ की प्रस्तावना में लिखा है। ये विदर्भ देश के 'पद्मपुर' नामक स्थान के निवासी श्री भट्टगोपाल के पुत्र थे। इनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने अपना उल्लेख 'भट्टश्रीकंठ पछलांछनी भवभूतिर्नाम' से किया है। इनके गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' था। मालतीमाधव की पुरातन प्रति में प्राप्त 'भट्ट श्री कुमारिल शिष्येण विरचित मिंद प्रकरणम्‌' तथा 'भट्ट श्री कुमारिल प्रसादात्प्राप्त वाग्वैभवस्य उम्बेकाचार्यस्येयं कृति' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीकंठ के गुरु कुमारिल थे जिनका 'ज्ञाननिधि' भी नाम था और भवभूति ही मीमांसक उम्बेकाचार्य थे जिनका उल्लेख दर्शन ग्रंथों में प्राप्त होता है और इन्होंने कुमारिल के श्लोकवार्तिक की टीका भी की थी। संस्कृत साहित्य में महान्‌ दार्शनिक और नाटककार होने के नाते ये अद्वितीय हैं। पांडित्य और विदग्धता का यह अनुपम योग संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है। शंकरदिग्विजय से ज्ञात होता है कि उम्बेक, मंडन सुरेश्वर, एक ही व्यक्ति के नाम थे। भवभूति का एक नाम 'उम्बेक' प्राप्त होता है अत: नाटककार भवभूति, मीमांसक उम्बेक और अद्वैतमत में दीक्षित सुरेश्वराचार्य एक ही हैं, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। राजतरंगिणी के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन के सभापंडित थे, जिन्हें ललितादित्य ने पराजित किया था। 'गउडवहो' के निर्माता वाक्यपतिराज भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। .

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भोज

भोज नाम के कई प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं।.

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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माघ

माघ से निम्नांकित का बोध होता है-.

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रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

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राजशेखर

राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे। वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्यमनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं। .

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रुय्यक

कश्मीर के एक विद्वान्‌ परिवार में राजानक रुय्यक या रुचक का जन्म बारहवीं शताब्दी के प्रथम भाग में हुआ था। उद्भट के काव्यालंकार संग्रह के विवृतिकार राजानक तिलक इनके पिता थे, जो अलंकारशास्त्र के पंडित थे। 'श्रीकंठचरित्‌' में मंखक ने अध्यापक, विद्वान्‌ व्याख्याकार तथा साहित्यशास्त्री के रूप में अपने गुरु रुय्यक का परिचय दिया है। इनके ग्रंथों की संख्या बारह है। सहृदयलीला, साहित्यमीमांसा, काव्यप्रकाशसंकेत, व्यक्तिविवेकव्याख्यान्‌, तथा अलंकार सर्वस्व प्रकाशित ग्रंथ हैं। नाटकमीमांसा, अलंकारानुसारिणी, अलंकारमंजरी, अलंकारवार्तिक, (नाट्यशास्त्र, सुलंकारशास्त्र), श्रीकंठस्तव (काव्य), हर्षचरितवार्तिक, तथा बृहती (टीकाएँ) की सूचना संदर्भों से मिलती है पर अभी तक प्राप्य नहीं हैं। स्पष्ट है कि रुय्यक का प्रधान प्रतिपाद्य विषय काव्यशास्त्र - विशेषत: अलंकारमीमांसा - है। अलंकारसर्वस्व, जिसका प्रणयन 1135-50 ई. के बीच हुआ था, भाषा के पाक और चिंतन की प्रौढ़ि (परिक्वता) से इनकी सर्वश्रेष्ठ देन है। इसी लिए रुय्यक की प्रसिद्धि सर्वस्वकार के रूप में है। इसके दो भाग हैं, सूत्र तथा वृत्ति सत्तासी सूत्रों में छह: शब्दालंकार तथा पचहत्तर अर्थालंकारों का (जिनमें परिणाम, रसवदादि, विकल्प तथा विचित्र नवीन अलंकार हैं) संक्षेप में नपी तुली भाषा में निरूपण है। इन सूत्रों की वृत्ति में भामह से प्रारंभ कर सर्वस्वकार के समय तक विकसित अलंकारमीमांसा का - स्वरूप, भेद तथा उदाहरणों के साथ-मौलिक उपस्थापन हैं। इसके तीन टीकाकार हैं कश्मीर के जयरथ (1193 ई.) केरल के समुद्रबंध (1300 ई.) तथा गुजरात के श्री विद्याचक्रवर्ती (14वीं शती)। प्रथम तथा अंतिम टीकाकार निर्विावाद रूप से अलंकारसर्वस्व का लेखक रुय्यक या रुचक को ही मानते हैं; शोभाकर से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक आलंकारिकों की सुदीर्ध परंपरा में मंखक का आलंकारिक के रूप में, एक प्रसंग को छोकर, कहीं संदर्भ नहीं है। प्राचीन पांडुलिपियों की पुष्पिकाएँ रुय्यक को सर्वस्व का लेखक घोषित करती हैं। अंत: साक्ष्य भी यही बात प्रमाणित करता है, तथापि समुद्रबंध ने अलंकार सर्वस्व को मंखक की कृति माना है। संभव है, संधिविग्रहिक मंखक ने अपने गुरु के ग्रंथ का संपादन संशोधन किया हो जिससे सुदूर दक्षिण में उसके कृतित्व की भ्रांत परंपरा चल पड़ी हो। अलंकारों के शब्द, अर्थ तथा उभय में विभाग के लिए रुय्यक का सिद्धांत (जिसके बीज राजानक तिलक की काव्यालंकार संग्रह की विवृति में थे) आश्रयाश्रयिभाव का है। जो अलंकार जिस पर आश्रित होता है वह उसका अलंकार होता है। किसी शब्द का होना या न होना (अन्ययव्यतिरेक) अलंकार विभाग का नियामक नहीं है। इस प्रकार तो इवादिप्रयोगसापेक्ष शाब्दी उपमा अर्थालंकार न होकर शब्दालंकार कहलाएगी। कुंडल कान का और तार हार कंठ का आभूषण कहलाता है, क्योंकि वे उनपर आश्रित हैं; कान या कंठ के रहनने या रहने से कर्णालंकार अथवा कंठ के हार का कोई संबंध नहीं है। लौकिकालंकार का सिद्धांत काव्यालंकार के संदर्भ में भी चरितार्थ है। इस आश्रय का बोध सहृदयंवेद्या अनुभव पर अवलंबित है; शब्दार्थ के चमत्कार विच्छित्ति या वैचित्रय का वही निर्णायक निकष है। अत: आश्रयाश्रयभाव का जीवातु यद्वैचित्रयवाद है। रुय्यक ने अर्थालंकारों को सादृश्य, विरोध, श्रृंखलाबंध, तर्कन्याय, वाक्यन्याय, लोकन्याय, गूढार्थप्रतीति पर, तथा चित्तवृत्तिमूल के वर्गों में बाँटा है। इस वर्गीकरण को सर्वाधिक व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक माना जाता है। इसके पूर्व वस्तुत: किसी भी आलंकारिक ने किन्हीं मूलाधारों को लेकर व्यवस्थित वर्गीकरण की पद्धति नहीं अपनाई थी। प्रतीति का पौर्वापर्य तथा अलंकार लक्षणों का परस्पर साधर्म्य वैधर्म्य एक वर्ग में आनेवाले अलंकारों के क्रम के नियामक तत्व है। अलंकारों की सांगोपांग मीमांसा, ध्वनिसिद्धांत से उसका संबंध ही नहीं अपितु महिमभट्ट के ध्वनिविरोधी सिद्धांत अनुमितिवाद का व्याख्यान तथा ध्वनिसंप्रदाय की पुन:प्रतिष्ठा भी रुय्यक का प्रधान कार्य है। व्यक्तिविवेक व्याख्यान या 'विचार' में महिमभट्ट के मत का विवेचन करते हुए यह सिद्ध किया है कि अनुमानप्रक्रिया में ध्वनिमार्ग को या अनुमिति में व्यंग्यार्थ सौंदर्य को नहीं बाँधा जा सकता। अलंकारसर्वस्व की प्रस्तावना में रुय्यक ने भामह, उद्भट, रुद्रट आदि के अलंकारप्राधान्यवाद में तथा वामन के रीतिवाद में ध्वनि के बीज बताते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि भट्टनायक के भावना तथा भोग नामक काव्यव्यापारों में कुंतक की वक्रोक्ति तथा महिमभट्ट के 'अनुमान' में ध्वनि का अंतर्भाव संभव नहीं है। संस्कृत के साहित्यशास्त्र का रुय्यक द्वारा यह संक्षिप्त सर्वेक्षण एक महत्वपूर्ण कार्य है। .

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श्रीहर्ष

श्रीहर्ष 12वीं सदी के संस्कृत के प्रसिद्ध कवि। वे बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों - विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को सुशोभित करते थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘नैषधीयचरित्’ महाकाव्य उनकी कीर्ति का स्थायी स्मारक है। नैषधचरित में निषध देश के शासक नल तथा विदर्भ के शासक भीम की कन्या दमयन्ती के प्रणय सम्बन्धों तथा अन्ततोगत्वा उनके विवाह की कथा का काव्यात्मक वर्णन मिलता है। .

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शूद्रक

शूद्रक नामक राजा का संस्कृत साहित्य में बहुत उल्लेख है। ‘मृच्छकटिकम्’ इनकी ही रचना है। जिस प्रकार विक्रमादित्य के विषय में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं वैसे ही शूद्रक के विषय में भी अनेक दंतकथाएँ हैं। कादम्बरी में विदिशा में, कथासरित्सागर में शोभावती तथा वेतालपंचविंशति में वर्धन नामक नगर में शूद्रक के राजा होने का उल्लेख है। मृच्छकटिकम् में कई उल्लेखों से ज्ञात होता है कि शूद्रक दक्षिण भारतीय थे तथा उन्हें प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। वे वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते थे तथा गायों और ब्राह्मणों का विशेष आदर करते थे। शूद्रक का समय छठी शताब्दी था। मृच्छकटिकम के अतिरिक्त उन्होने वासवदत्ता, पद्मप्रभृतका आदि की रचना भी की। राजा शूद्रक बड़ा कवि था। कुछ लोग कहते हैं, शूद्रक कोई था ही नहीं, एक कल्पित पात्र है। परन्तु पुराने समय में शूद्रक कोई राजा था इसका उल्लेख हमें स्कन्दपुराण में मिलता है। महाकवि भास ने एक नाटक लिखा है जिसका नाम ‘दरिद्र चारुदत्त’ है। ‘दरिद्र चारुदत्त’ भाषा और कला की दृष्टि से ‘मृच्छकटिक’ से पुराना नाटक है। निश्चयपूर्वक शूद्रक के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। बाण ने अपनी ‘कादम्बरी’ में राजा शूद्रक को अपना पात्र बनाया है, पर यह नहीं कहा कि वह कवि भी था। बाण का समय छठी शती है। ऐसा लगता है कि शूद्रक कोई कवि था, जो राजा भी था। वह बहुत पुराना था। परन्तु कालिदास के समय तक उसे प्रधानता नहीं दी गई थी, या कहें कि जिस कालिदास ने सौमिल्ल, भास और कविपुत्र का नाम अपने से पहले बड़े लेखकों में गिनाया है, उसने सबकी सूची नहीं दी थी। शूद्रक का बनाया नाटक पुराना था, जो निरन्तर सम्पादित होता रहा और बाद में प्रसिद्ध हो गया। हो सकता है वह भास के बाद हुआ हो। भास का समय ईसा की पहली या दूसरी शती माना जाता है। .

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साहित्य दर्पण

साहित्य दर्पण संस्कृत भाषा में लिखा गया साहित्य विषयक ग्रन्थ है जिसके लेखक पण्डित विश्वनाथ हैं। विश्वनाथ का समय 14वीं शताब्दी ठहराया जाता है। मम्मट के काव्यप्रकाश के समान ही साहित्यदर्पण भी साहित्यालोचना का एक प्रमुख ग्रन्थ है। काव्य के श्रव्य एवं दृश्य दोनों प्रभेदों के संबंध में इस ग्रन्थ में विचारों की विस्तृत अभिव्यक्ति हुई है। इसक विभाजन 10 परिच्छेदों में है। .

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हेमचन्द्राचार्य

ताड़पत्र-प्रति पर आधारित '''हेमचन्द्राचार्य''' की छवि आचार्य हेमचन्द्र (1145-1229) महान गुरु, समाज-सुधारक, धर्माचार्य, गणितज्ञ एवं अद्भुत प्रतिभाशाली मनीषी थे। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्रमें उनका नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाड्मयके सभी अंड्गो पर नवीन साहित्यकी सृष्टि तथा नये पंथको आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था। संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ थे, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार थे और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे। समस्त गुर्जरभूमिको अहिंसामय बना दिया। आचार्य हेमचंद्र को पाकर गुजरात अज्ञान, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्र्वासों से मुक्त हो कीर्ति का कैलास एवं धर्मका महान केन्द्र बन गया। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। १२वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परामें गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। .

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जयदेव

भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ जयदेव के लिए देखें, जयदेव (गणितज्ञ) ---- बसोहली चित्र (1730 ई) गीत गोविन्द जयदेव (१२०० ईस्वी के आसपास) संस्कृत के महाकवि हैं जिन्होंने गीत गोविंद और रतिमंजरी की रचना की। जयदेव, उत्कल राज्य यानि ओडिशा के गजपति राजाओं के समकालीन थे। जयदेव एक वैष्णव भक्त और संत के रूप में सम्मानित थे। उनकी कृति ‘गीत गोविन्द’ को श्रीमद्‌भागवत के बाद राधाकृष्ण की लीला की अनुपम साहित्य-अभिव्यक्ति माना गया है। संस्कृत कवियों की परंपरा में भी वह अंतिम कवि थे, जिन्होंने ‘गीत गोविन्द’ के रूप में संस्कृत भाषा के मधुरतम गीतों की रचना की। कहा गया है कि जयदेव ने दिव्य रस के स्वरूप राधाकृष्ण की रमणलीला का स्तवन कर आत्मशांति की सिद्धि की। भक्ति विजय के रचयिता संत महीपति ने जयदेव को श्रीमद्‌भागवतकार व्यास का अवतार माना है। .

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जगन्नाथ

'''जगन्नाथ''' (सबसे दाएं) अपने भ्राता बलभद्र (सबसे बाएं) एवं बहन सुभद्रा (बीच में) के संग, राधादेश, बेल्जियम में जगन्नाथ (जगन्नाथ ଜଗନ୍ନାଥ) हिन्दू भगवान विष्णु के पूर्ण कला अवतार श्रीकृष्ण का ही एक रूप हैं। इनका एक बहुत बड़ा मन्दिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर में स्थित है। इस शहर का नाम जगन्नाथ पुरी से निकल कर पुरी बना है। यहाँ वार्षिक रूप से रथ यात्रा उत्सव भी आयोजित किया जाता है। पुरी की गिनती हिन्दू धर्म के चार धाम में होती है। Image:Lord_Jagannath.jpg|जगन्नाथ (दायें) बलभद्र (बायें) तथा सुभद्रा (मध्य में) Image:Lord_Jagannath_Statue.jpg|एक छोटे आकार का altar, जगन्नाथ, बलभद्र तथा देवी सुभद्रा के साथ Image:Car_Festival.jpg|भुवनेश्वर में रथ यात्रा महोत्सव Image:Rath_Yatra.jpg| न्यूयॉर्क शहर में इस्कॉन द्वारा आयोजित रथ यात्रा उत्सव .

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वात्स्यायन

वात्स्यायन या मल्लंग वात्स्यायन भारत के एक प्राचीन दार्शनिक थे। जिनका समय गुप्तवंश के समय (६ठी शती से ८वीं शती) माना जाता है। उन्होने कामसूत्र एवं न्यायसूत्रभाष्य की रचना की। महर्षि वात्स्यायन ने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी संपदित किया है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान महर्षि वात्स्यायन का है। .

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वामनावतार

वामन कुएँ से पानी निकालने जाते हुए वामन विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। इसके साथ ही यह विष्णु के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए — अलबत्ता बौने ब्राह्मण के रूप में। इनको दक्षिण भारत में उपेन्द्र के नाम से भी जाना जाता है। .

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वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीक (संस्कृत: महर्षि वाल्मीक) प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है।http://timesofindia.indiatimes.com/india/Maharishi-Valmeki-was-never-a-dacoit-Punjab-Haryana-HC/articleshow/5960417.cms आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये। वाल्मीकि एक आदि कवि थे पर उनकी विशेषता यह थी कि वे कोई ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि केवट थे।। .

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विशाखदत्त

विशाखदत्त संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध नाटककार थे। विशाखदत्त गुप्तकाल की विभूति थे। विशाखदत्त की दो अन्य रचनाओं- देवी चन्द्रगुप्तम्, तथा राघवानन्द नाटकम् - का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार ‘मुद्राराक्षस’ ही है। इनकी रचनाऔ मैं रसो की प्रधानता होती थी श्रेणी:संस्कृत साहित्यकार.

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व्यक्तिविवेक

व्यक्तिविवेक, आचार्य महिमभट्ट द्वारा रचित भारतीय काव्यशास्त्र का ग्रन्थ है। इसमें आचार्य ने काव्यशास्त्र में प्रवर्तित 'ध्वनि सम्प्रदाय' का खण्डन किया है। यह पुस्तक विमर्शों में विभक्त है। इसमें कुल तीन विमर्श हैं। सबसे पहले शब्द खण्डन, अर्थ खण्डन तत्पश्चात व्यंजना का खण्डन करके ध्वनि को अनुमान में अन्तर्भूत किया है। इस पुस्तक के तीन भाग हैं- कारिका, वृत्ति और उदाहरण। श्रेणी:पुस्तक श्रेणी:भारतीय काव्यशास्त्र.

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वेदव्यास

ऋषि कृष्ण द्वेपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। महाभारत के बारे में कहा जाता है कि इसे महर्षि वेदव्यास के गणेश को बोलकर लिखवाया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की, ऐसा माना जाता है। वेदव्यास यह व्यास मुनि तथा पाराशर इत्यादि नामों से भी जाने जाते है। वह पराशर मुनि के पुत्र थे, अत: व्यास 'पाराशर' नाम से भि जाने जाते है। महर्षि वेदव्यास को भगवान का ही रूप माना जाता है, इन श्लोकों से यह सिद्ध होता है। नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र। येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।। अर्थात् - जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है। व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे। नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।। अर्थात् - व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे 'शक्ति'; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र पाराशर (तथा व्यास)) .

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गणित

पुणे में आर्यभट की मूर्ति ४७६-५५० गणित ऐसी विद्याओं का समूह है जो संख्याओं, मात्राओं, परिमाणों, रूपों और उनके आपसी रिश्तों, गुण, स्वभाव इत्यादि का अध्ययन करती हैं। गणित एक अमूर्त या निराकार (abstract) और निगमनात्मक प्रणाली है। गणित की कई शाखाएँ हैं: अंकगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, सांख्यिकी, बीजगणित, कलन, इत्यादि। गणित में अभ्यस्त व्यक्ति या खोज करने वाले वैज्ञानिक को गणितज्ञ कहते हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रख्यात ब्रिटिश गणितज्ञ और दार्शनिक बर्टेंड रसेल के अनुसार ‘‘गणित को एक ऐसे विषय के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें हम जानते ही नहीं कि हम क्या कह रहे हैं, न ही हमें यह पता होता है कि जो हम कह रहे हैं वह सत्य भी है या नहीं।’’ गणित कुछ अमूर्त धारणाओं एवं नियमों का संकलन मात्र ही नहीं है, बल्कि दैनंदिन जीवन का मूलाधार है। .

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आचार्य मम्मट

आचार्य मम्मट संस्कृत काव्यशास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक समझे जाते हैं। वे अपने शास्त्रग्रंथ काव्यप्रकाश के कारण प्रसिद्ध हुए। कश्मीरी पंडितों की परंपरागत प्रसिद्धि के अनुसार वे नैषधीय चरित के रचयिता श्रीहर्ष के मामा थे। उन दिनों कश्मीर विद्या और साहित्य के केंद्र था तथा सभी प्रमुख आचार्यों की शिक्षा एवं विकास इसी स्थान पर हुआ। वे कश्मीरी थे, ऐसा उनके नाम से भी पता चलता है लेकिन इसके अतिरिक्त उनके विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है। वे भोजराज के उत्तरवर्ती माने जाते है, इस हिसाब से उनका काल दसवीं शती का लगभग उत्तरार्ध है। ऐसा विवरण भी मिलता है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में हुई। .

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आचार्य विश्वनाथ

साहित्य दर्पण का अंग्रेज़ी रूपांतरआचार्य विश्वनाथ (पूरा नाम आचार्य विश्वनाथ महापात्र) संस्कृत काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ और आचार्य थे। वे साहित्य दर्पण सहित अनेक साहित्यसम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता हैं। उन्होंने आचार्य मम्मट के ग्रंथ काव्य प्रकाश की टीका भी की है जिसका नाम "काव्यप्रकाश दर्पण" है। .

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आचार्य आनन्दवर्धन

आचार्य आनन्दवर्धन, काव्यशास्त्र में ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। काव्यशास्त्र के ऐतिहासिक पटल पर आचार्य रुद्रट के बाद आचार्य आनन्दवर्धन आते हैं और इनका ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ काव्य शास्त्र के इतिहास में मील का पत्थर है। आचार्य आनन्दवर्धन कश्मीर के निवासी थे और ये तत्कालीन कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन के समकालीन थे। इस सम्बंध में महाकवि कल्हण ‘राजतरंगिणी’ में लिखते हैं: कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन का राज्यकाल 855 से 884 ई. है। अतएव आचार्य आनन्दवर्धन का काल भी नौवीं शताब्दी मानना चाहिए। इन्होंने पाँच ग्रंथों की रचना की है- विषमबाणलीला, अर्जुनचरित, देवीशतक, तत्वालोक और ध्वन्यालोक। .

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कामसूत्र

मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। .

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कालिदास

कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। thumb .

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काव्यप्रकाश

काव्यप्रकाश (संस्कृत में काव्यप्रकाशः), आचार्य मम्मट द्वारा रचित काव्य की परख कैसे की जाय इस विषय पर उदाहरण सहित लिखा गया एक विस्तृत एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ का अध्ययन आज भी विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में पढ़ने वाले साहित्य के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। .

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काव्यमीमांसा

राजशेखर संस्क्रत कवि थे। काव्यमीमांसा कविराज राजशेखर (८८०-९२० ई.) कृत काव्यशास्त्र संबंधी मानक ग्रंथ है। 'काव्यमीमांसा' का अभी तक केवल प्रथम अधिकरण 'कविरहस्य' ही प्राप्त है और इसके भी मात्र १८ अध्याय ही मिलते हैं। १९वाँ अध्याय 'भुवनकोश' अप्राप्त है। किंतु 'कविरहस्य' अधिकरण के प्रथम तीन अध्यायों से पता चलता है कि कृतिकार ने काव्यमीमांसा में १९ अधिकरणों का समायोजन किया था और प्रत्येक अधिकरण में विषयानुरूप कई-कई अध्याय थे। उपलब्ध 'कविरहस्य' शीर्षक अधिकरण में मुख्यत: कवि शिक्षा संबंधी सामग्री है, यद्यपि लेखक ने "गुणवदलङकृतंच काव्यम" (अध्याय ६, पंक्ति २६) सूत्र के माध्यम से काव्य की परिभाषा भी प्रस्तुत की है तथापि इसका सविस्तार विवेचन नहीं किया है। हो सकता है, अगले अधिकरणों में कहीं उक्त विवेचन किया गया हो जो अब अप्राप्त हैं। 'कविरहस्य' अधिकरण के प्रथम अध्याय में राजशेखर ने काव्यशास्त्र के मूल स्रोत पर प्रकाश डालने के अतिरिक्त इसके अंतर्गत परिगणित होनेवाले विषयों की लंबी सूची भी दी है। दूसरे अध्याय में वैदिक वाङ्मय और उत्तरवदिक साहित्य के सन्दर्भ में काव्यशास्त्र का स्थान निश्चित करने के उपरांत, इसको सातवाँ वेदांग (वेदांग छह हैं) तथा १५वीं विद्या (विद्याएँ १४ हैं) कहा गया है। तीसरे अध्याय में ब्रह्मा एवं सरस्वती से काव्यपुरुष की उत्पत्ति, वाल्मीकि एवं व्यास से उसका संबंध, काव्यपुरुष का साहित्यविद्या से विवाह, पति पत्नी का भारत भर में भ्रमण और उनसे विभिन्न स्थानों पर वृत्तियों, प्रवृत्तियों तथा रीतियों का जन्म तथा अंत में काव्यपुरुष एवं साहित्यविद्या द्वारा कविमानस में स्थायी निवास का संकल्प वर्णित है। चौथे से नवें अध्याय तक पदवाक्यविवेक, काव्यपाककल्प, पाठप्रतिष्ठा, काव्यार्थयोनियाँ तथा अर्थव्याप्ति इत्यादि विषयों पर विचार किया गया है। १०वें अध्याय में कविचर्या तथा राजचर्या का सम्यक् उल्लेख है। ११वें से १८वें अध्याय तक शब्दहरण, काव्यहरण, कविसमय, भारत तथा संसार के भूगोल, घटनाओं, स्थानों एवं व्यक्तियों के वर्णन की प्राचीन पद्धतियों, कालगणना तथा ऋतुपरिवर्तनों का परिचय है। काव्यमीमांसा में प्रत्यक्षकवि (समसामयिक कवि) के बारे में कहा है- किसी किसी प्रत्यक्ष कवि का काव्य, कुलवती स्त्री का रूप और घर के वैद्य की विद्या ही अच्छी लगती है। अर्थात् अधिकांश प्रत्यक्ष कवियों का काव्य, कुलवती स्त्रियों का रूप और घर के वैद्यों की विद्या रुचिकर नहीं लगती। .

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काव्यालंकार

संस्कृत में 'काव्यालंकार नामक दो प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-.

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क्षेमेंद्र

क्षेमेन्द्र (जन्म लगभग 1025-1066) संस्कृत के प्रतिभासंपन्न काश्मीरी महाकवि थे। ये विद्वान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। ये सिंधु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र और प्रकाशेंद्र के पुत्र थे। इन्होंने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंतरशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना बोधिसत्त्वावदानकल्पलता को एक नया पल्लव (कथा) जोड़कर पूरा किया था। .

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अभिनवगुप्त

अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे। अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे। अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है। .

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अभिज्ञानशाकुन्तलम्

शकुंतला राजा रवि वर्मा की कृति. दुष्यन्त को पत्र लिखती शकुंतलाराजा रवि वर्मा की कृति. हताश शकुंतलाराजा रवि वर्मा की कृति. अभिज्ञान शाकुन्तलम् महाकवि कालिदास का विश्वविख्यात नाटक है ‌जिसका अनुवाद प्राय: सभी विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसमें राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय, विवाह, विरह, प्रत्याख्यान तथा पुनर्मिलन की एक सुन्दर कहानी है। पौराणिक कथा में दुष्यन्त को आकाशवाणी द्वारा बोध होता है पर इस नाटक में कवि ने मुद्रिका द्वारा इसका बोध कराया है। इसकी नाटकीयता, इसके सुन्दर कथोपकथन, इसकी काव्य-सौंदर्य से भरी उपमाएँ और स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुई समयोचित सूक्तियाँ; और इन सबसे बढ़कर विविध प्रसंगों की ध्वन्यात्मकता इतनी अद्भुत है कि इन दृष्टियों से देखने पर संस्कृत के भी अन्य नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल से टक्कर नहीं ले सकते; फिर अन्य भाषाओं का तो कहना ही क्या ! तो यहीं सबसे ज्यादा अच्छा है। .

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संस्कृत ग्रन्थों की सूची और संस्कृत साहित्य के बीच तुलना

संस्कृत ग्रन्थों की सूची 253 संबंध है और संस्कृत साहित्य 109 है। वे आम 40 में है, समानता सूचकांक 11.05% है = 40 / (253 + 109)।

संदर्भ

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