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शौचालय

सूची शौचालय

फ्लश शौचालय शौच आसन पर बैठाकर बच्चे को शौच कराती माँ लोथल में प्राप्त सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय का स्नानघर, शौचालय तथा जलनिकासी (ड्रेनेज) प्रणाली बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दिनों में प्रयुक्त होने वाला शौचालय - '''ऑउटहाउस''' शौचालय एक ऐसी सुविधा है जो मानव के मल एवं मूत्र के समुचित व्यवस्था के लिये प्रयोग किया जाता है। शौचालय शब्द का प्रयोग उस कक्ष के लिये किया जा सकता है जिसमें मल-मूत्र विसर्जन कराने वाली युक्ति लगी होती है; या यह उस युक्ति के लिये भी प्रयुक्त होता है। .

7 संबंधों: मल, मूत्र, मूत्रालय, सिंधु घाटी सभ्यता, सुलभ इन्टरनेशनल, कम्पोस्टकारी शौचालय, उत्सर्जन

मल

घोड़े की लीद (मल) एवं घोड़ा मल (Feces, faeces, or fæces) वह वर्ज्य पदार्थ (waste product) है जिसे जानवर अपने पाचन नली से मलद्वार के रास्ते निकलते हैं। .

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मूत्र

मानव का मूत्र-तंत्र मूत्र, मानव और अन्य कशेरुकी जीवों मे वृक्क (गुर्दे) द्वारा स्रावित एक तरल अपशिष्ट उत्पाद है। कोशिकीय चयापचय के परिणामस्वरूप कई अपशिष्ट यौगिकों का निर्माण होता है, जिनमे नाइट्रोजन की मात्रा अधिक हो स्कती है और इनका रक्त परिसंचरण तंत्र से निष्कासन अति आवश्यक होता है। आयुर्वेद अनुसार मूत्र को तीन प्रकार के मलो में शामिल किया है एवं शरीर मे इसका प्रमाण 4 अंजली माना गया है । .

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मूत्रालय

मूत्रालय उस शौचालय को मूत्रालय (urinal) कहते हैं जो केवल मूत्रत्याग (मूतने) के निमित्त बना होता है। मूत्रालय कई तरह के होते हैं - एक व्यक्ति के लिये या अनेक व्यक्तियों के लिये; पुरुषों के मूत्रालय या स्त्रियों के मूत्रालय; व्यक्तिगत मूत्रालय या सामुदायिक मूत्रालय; आदि .

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सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता अपने शुरुआती काल में, 3250-2750 ईसापूर्व सिंधु घाटी सभ्यता (3300 ईसापूर्व से 1700 ईसापूर्व तक,परिपक्व काल: 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू.) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। जो मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में, जो आज तक उत्तर पूर्व अफगानिस्तान,पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम और उत्तर भारत में फैली है। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता के साथ, यह प्राचीन दुनिया की सभ्यताओं के तीन शुरुआती कालक्रमों में से एक थी, और इन तीन में से, सबसे व्यापक तथा सबसे चर्चित। सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। यह हड़प्पा सभ्यता और 'सिंधु-सरस्वती सभ्यता' के नाम से भी जानी जाती है। इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ। मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर २०१४ में भिर्दाना को सिंधु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं। 7वी शताब्दी में पहली बार जब लोगो ने पंजाब प्रांत में ईटो के लिए मिट्टी की खुदाई की तब उन्हें वहां से बनी बनाई इटे मिली जिसे लोगो ने भगवान का चमत्कार माना और उनका उपयोग घर बनाने में किया उसके बाद 1826 में चार्ल्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1856 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। 1856 में कराची से लाहौर के मध्य रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान बर्टन बंधुओं द्वारा हड़प्पा स्थल की सूचना सरकार को दी। इसी क्रम में 1861 में एलेक्जेंडर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना की। 1904 में लार्ड कर्जन द्वारा जॉन मार्शल को भारतीय पुरातात्विक विभाग (ASI) का महानिदेशक बनाया गया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। १९२१ में दयाराम साहनी ने हड़प्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया व दयाराम साहनी को इसका खोजकर्ता माना गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है। प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता के १४०० केन्द्रों को खोजा जा सका है जिसमें से ९२५ केन्द्र भारत में है। ८० प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से ३ प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है। .

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सुलभ इन्टरनेशनल

सुलभ शौचालय एक सामाजिक-सेवा से जुडी स्वयंसेवी एवं लाभनिरपेक्ष संस्था है। यह संस्था पर्यावरण की स्वच्छता, अ-परम्परागत ऊर्जा, अपशिष्ट प्रबन्ध, सामाजिक सुधार एवं मानवाधिकार को बढावा देने के क्षेत्र में काम करती है। इस संस्था से लगभग ५०,००० स्वयंसेवक जुडे हुए हैं। सुलभ इन्टरनेशनल की स्थापना डॉ बिन्देश्वर पाठक ने सन १९७४ में की। .

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कम्पोस्टकारी शौचालय

कम्पोस्टकारी शौचालय में मल को शीघ्र विघटित करने के लिये कई पदार्थ उपयोग किये जा सकते हैं। इनमें लकड़ी का बुरादा प्रमुख है। मूत्र को अलग रखकर निर्जलीकरण करने वाला कम्पोस्टिंग शौचालय 1: ह्यूमस विभाग, 2: संवातन (Ventilation) पाइप, 3: शौचालय की सीट, 4:मूत्रालय, 5:मूत्र संग्रह एवं निर्जलीकरण, A:दूसरी मंजिल, B:पहली मंजिल, C:भूतल कंपोस्टकारी शौचालय (composting toilet) मानव मल के ट्रीटमेंट का सवायु (aerobic) विधि है जिसमें कंपोस्टिंग प्रक्रिया का उपयोग करने के फलस्वरूप बहुत कम (या बिल्कुल नहीं) जल डालना पड़ता है। यह विधि प्राय वायुहीन विनष्टन (decomposition) से तीव्र होती है। ज्ञातव्य है कि सेप्टिक तंत्रों में वायुहीन विनष्टन पद्धति ही ही प्रयुक्त होती है। कम्पोस्टकारी शौचालय प्रायः केन्दीकृत जलमल ट्रीटमेन्ट संयंत्रों (सीवर) के विकल्प के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। इनके निम्नलिखित लाभ हैं- ये शौचालय, गड्ढा शौचालय से भिन्न हैं जिससे भूजल के प्रदूषित होने का खतरा बना रहता है। .

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उत्सर्जन

उपापचयी (मेटाबोलिक) क्रियायों के फलस्वरूप बने उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं। सजीव कोशिकाओं के अन्दर विभिन्न प्रकार की जैव-रासायनिक क्रियाएँ होती रहती हैं। इन क्रियायों के समय कुछ बेकार एवं विषैले पदर्थ उत्पन्न होते हैं जो कोशिकाओं अथवा शरीर के लिए उपयोगी नहीं होते हैं। यदि उन्हें शरीर में इकट्ठा होने दिया जाय तो वे प्राणघातक भी हो सकते हैं। इन्हीं पदार्थों को उत्सर्जन की क्रिया में शरीर बाहर निकाल देता है। कुछ हानिकारक एवं उत्सर्जी पदार्थ कार्बन डाईऑक्साइड, अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल तथा कुछ अन्य नाइट्रोजन के यौगिक हैं। ये पदार्थ जिन विशेष अंगों द्वारा शरीर से बाहर निकाले जाते हैं उन्हें उत्सर्जन अंग कहते हैं। पौधों एवं प्राणियों दोनों में उत्सर्जन की क्रिया होती है परन्तु पौधों में कोई विशेष उत्सर्जन-अंग या तंत्र नहीं होता है अतः पौधे अपने उत्सर्जी पदार्थ पत्तियों, छालों, फलों, बीजों के माध्यम से शरीर से निष्कासित कर देते हैं। प्राणियों में सभी उत्सर्जी पदार्थों के शरीर से बाहर निकालने की लिए उत्सर्जी अंग पाए जाते हैं। मेरूदण्डी प्राणियों में मुख्य उत्सर्जी अंग वृक्क (चित्रित) है जो गहरे लाल रंग का सेम की बीज की आकृति का होता है। वृक्क अपने लाखों वृक्क नलिकाओं के माध्यम से रक्त को छानकर शुद्ध करता है एवं छने हुए वर्ज्य पदार्थों को मूत्र के माध्यम से निष्कासित कर देता है। .

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