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व्यावसायिक कानून

सूची व्यावसायिक कानून

व्यावसायिक कानून या 'व्यावसायिक सन्नियम' (Commercial law या business law) कानूनों के उस समुच्चय का नाम है जो व्यापार, वाणिज्य, क्रय-विक्रय, में लगे व्यक्तियों एवं संगठननों के अधिकार, सम्बन्ध, तथा व्यहार का नियमन करता है।प्रायः इसे सिविल कानून (दीवानी कानून) की एक शाखा के रूप में देखा जाता है। .

9 संबंधों: परक्राम्य लिखत अधिनियम १८८१, भारतीय भागीदारी अधिनियम 1932, भारतीय संविदा अधिनियम १८७२, सिविल कानून, वस्तु विक्रय अधिनियम 1930, विदेशी विनियम प्रबंदन अधिनियम, १९९९, विधि, कंपनी अधिनियम, 1956, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (1986)

परक्राम्य लिखत अधिनियम १८८१

परक्राम्य लिखत अधिनियम १८८१ या 'विनिमय साध्य विलेख नियम १८८१' (Negotiable Instruments Act, 1881) भारत का एक कानून है जो पराक्रम्य लिखत (प्रॉमिजरी नोट, बिल्ल ऑफ एक्सचेंज तथा चेक आदि) से सम्बन्धित है। पूरे भारत में कार्य करने वाले वित्तीय संस्थान, उद्योग संगठन और यहां तक कि सामान्य जन भी अपने लेन-देन अधिकतर चेक के माध्यम से करते हैं। चेक के माध्यम से वित्तीय कारोबार में होने वाली सुविधाओं के साथ-साथ समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं। चेक के माध्यम से कारोबार में होने वाली शिकायतों को दर्ज कराने की व्यवस्था ‘परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881’ में प्रदान की गई है। .

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भारतीय भागीदारी अधिनियम 1932

भारतीय भागीदारी अधिनियम या 'भारतीय साझेदारी अधिनियम' (Indian Partnership Act, 1932) भारत की संसद द्वारा १९३२ में पारित एक अधिनियम है जो सझेदारी फर्मों का नियमन करती है। इसके पारित होने के पहले सहभागिता भारतीय अनुबन्ध अधिनियम १८७२ की कुच्छ धाराओं के द्वारा शासित थी। यह अधिनियम निगम कार्य मंत्रालय के द्वारा अधिशासित है। .

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भारतीय संविदा अधिनियम १८७२

भारतीय संविदा अधिनियम, १८७२ (Indian Contract Act, 1872) भारत का मुख्य संविदा कानून है। यह अधिनियम भारत में अंग्रेजी शासन के समय पारित हुआ था। यह 'इंग्लिश कॉमन ला' पर आधारित है। यह अधिनियम संविदाओं के निर्माण, निष्‍पादन और प्रवर्तनीयता से संबंधित सामान्‍य सिद्धांतों तथा क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, जमानत और गिरवी, तथा अभिकरण (एजेंसी) जैसी विशेष प्रकार की संविदाओं से संबंधित नियम निर्धारित करता है। यद्यपि भागीदारी अधिनियम; माल बिक्री अधिनियम; परक्राम्‍य लिखत अधिनियम और कम्‍पनी अधिनियम, तकनीकी दृ‍ष्टि से संविदा कानून के भाग हैं, फिर भी इन्‍हें पृथक अधिनियमनों में शामिल किया गया है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार, संविदा कानून द्वारा प्रवर्तनीय करार है। कानून द्वारा प्रवर्तित न किए जा सकने वाले करार संविदाएं नहीं होते। ‘’करार’’ से अभिप्राय है एक दूसरे के प्रतिफल का ध्‍यान रखते हुए दिया जाने वाला आश्‍वासन। और आश्‍वासन त‍ब दिया जाता है जब कोई प्रस्‍ताव स्‍वीकारा जाता है। इसका निहितार्थ यह है कि करार एक स्‍वीकृत प्रस्‍ताव है। दूसरे शब्‍दों में, करार में ‘’पेशकश’’ और इसकी ‘’स्‍वीकृति’’ निहित होती है। व्यापारिक सन्नियम में उन अधिनियमों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यवसाय एवं वाणिज्यिक क्रियाओं के नियमन एवं नियन्त्रण के लिए बनाये जाते हैं। व्यापारिक या व्यावसायिक सन्नियम के अन्तर्गत वे राजनियम आते हैं जो व्यापारियों, बैंकर्स तथा व्यवसायियों के साधारण व्यवहारों से सम्बन्धित हैं और जो सम्पित्त के अधिकारों एवं वाणिज्य में संलग्न व्यिक्तयों से सम्बन्ध रखते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, व्यावसायिक सन्नियम की एक महत्वपूर्ण शाखा है, क्योंकि अधिकांश व्यापारिक व्यवहार चाहे वे साधारण व्यक्तियों द्वारा किये जायें या व्यवसायियों द्वारा किये जायें, 'अनुबन्धों’ पर ही आधारित होते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 25 अप्रैल, 1872 को पारित किया गया था और 1 सितम्बर 1872 से लागू हुआ था। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम को दो भागों में बांटा जा सकता है। इसमें प्रथम भाग में धारा 1 से 75 तक है जो अनुबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों से सम्बिन्धत हैं और सभी प्रकार के अनुबन्धों पर लागू होती हैं। द्वितीय भाग में धारा 76 से 266 तक है जो विशिष्ट प्रकार के अनुबन्धों जैसे वस्तु विक्रय, क्षतिपूर्ति एवं गारण्टी, निक्षेप, गिरवी, एजेन्सी तथा साझेदारी से सम्बिन्धत हैं। 1930 में वस्तु विक्रय से सम्बिन्धत धाराओं को निरस्त करके पृथक से वस्तु विक्रय अधिनियम बनाया गया है। इसी प्रकार 1932 में साझेदारी अनुबन्धों से सम्बिन्धत धाराओं को इस अधिनियम में से निरस्त कर दिया गया और पृथक साझेदारी अधिनियम बनाया गया। .

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सिविल कानून

सिविल कानून (Civil law) के अन्तर्गत सभी कानून आते हैं जो अपराध कानून नहीं है। इसके अन्दर व्यावसायिक कानून, औद्योगिक कानून आदि आते हैं। .

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वस्तु विक्रय अधिनियम 1930

वर्तमान युग व्यापार और वाणिज्य का युग है। इस युग में प्रतिदिन अनेकों व्यापारिक अनुबंध किए जाते हैं। वस्तु विक्रय अनुबंध को कानून में एक विशेष प्रकार का अनुबंध माना जाता है। 1930 से पूर्व वस्तु-विक्रय से संबंधित नियम भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872 की धारा 76 से 123 में शामिल थे। ये व्यवस्थाएं व्यापारिक परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण पर्याप्त नहीं थे। अतः भारतीय संसद ने वस्तु-विक्रय अनुबंध की पेचीदगी और महत्व को देखते हुए सन् 1930 में वस्तु-विक्रय से संबंधित प्रावधानों को भारतीय अनुबंध अधिनियम से समाप्त करके एक पृथक वस्तु-विक्रय अधिनियम बनाया। यह अधिनियम भारतीय वस्तु-विक्रय अधिनियम 1930 था। 1963 में एक संशोधन के द्वारा 'भारतीय' शब्द को हटा दिया गया। अतः अब इसका नाम 'वस्तु-विक्रय अधिनियम' है। इसके संबंध में निम्न व्यवस्थाएं हैं-.

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विदेशी विनियम प्रबंदन अधिनियम, १९९९

विदेशी विनियम प्रबंधन अधिनियम, १९९९ | इसे फेमा के नाम से जाना जाता हैं। श्रेणी:भारत के प्रमुख अधिनियम.

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विधि

विधि (या, कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है। विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है। विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है। आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है। .

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कंपनी अधिनियम, 1956

कंपनी अधिनियम वह अति महत्‍वपूर्ण विधान है जो केन्‍द्र सरकार को कम्‍पनी के गठन और कार्यों को विनियमित करने की शक्ति प्रदान करता है। भारत की संसद द्वारा १९५६ में पारित किया गया था। इसमें समय-समय पर संशोधन किया गया। ये अधिनियम कम्पनियों के गठन को पंजीकृत करने तथा उनके निर्देशकों और सचिवो की जिम्मेदारी का निर्धारण करता है। कंपनियों अधिनियम, 1956 भारत के संघीय सरकार द्वारा कारपोरेट मामलों के मंत्रालय, कंपनियों के रजिस्ट्रार के कार्यालय, आधिकारिक परिसमापक, सार्वजनिक न्यासी, कंपनी लॉ बोर्ड आदि के माध्यम से प्रशासित किया जाता है। यह अधिनियम सरकार को कम्‍पनी के गठन को विनियमित करने और कम्‍पनी के प्रबंधन को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान करता है। कम्‍पनी अधिनियम केन्‍द्र सरकार द्वाराकम्‍पनी कार्य मंत्रालय और कम्‍पनी पंजीयक के कार्यालयों, शासकीय परिसमापक, सार्वजनिक न्‍यासी, कम्‍पनी विधि बोर्ड, निरीक्षण निदेशक आदि के माध्‍यम से प्रवृत्त किया जाता है। कम्‍पनी कार्य मंत्रालय जो पहले वित्त मंत्रालय के अधीन कम्‍पनी कार्य विभाग के रूप में जाना जाता था का प्राथमिक कार्य कम्‍पनी अधिनियम, 1956 का प्रशासन है, अन्‍य अधीनस्‍थ अधिनियम और नियम एवं विनियम जो उसके अधीन बनाए गए हैं कानून के अनुसार कारपोरेट क्षेत्र के कार्यों को विनियमित करने के लिए। कम्‍पनी अधिनियम, 1956 में कहा गया है कि कम्‍पनी का अभिप्राय, अधिनियम के अधीन गठित और पंजीकृत कम्‍पनी या विद्यमान कम्‍पनी अर्थात किसी भी पिछला कम्‍पनी कानून के तहत गठित या पंजीकृत कम्‍पनी। कानून में निहित मूल उद्देश्‍य निम्‍नलिखित हैं.

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उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (1986)

धारा 1: संक्षिप्त नाम, विस्तार, प्रारम्भ और लागू होना- भारतीय संसद द्वारा विनियमित इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 है, जिसकी अधिकारिकता जम्मू-कश्मीर को छोड कर समस्त भारतवर्ष है। केन्द्रीय सरकार द्वारा अधिसूचित तिथि के उपंरात यथा उपरोक्त यह अधिनियम सम्पूर्ण भारत वर्ष में प्रभावी है। धारा 2: परिभाषाएं- अधिनियम के अन्तर्गत निम्नवत परिभाषाएं उल्लेखित है: 1 समुचित प्रयोगशाला से अभिप्राय केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला से है। 2 शाखा कार्यालय का तात्पर्य विपरीत पक्ष द्वारा शाखा के रूप में वर्णित संस्थान से है। 3 परिवादी से तात्पर्य उपभोक्ता अथवा केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार से अभिप्रेत तथा समान हित वाले बहुसंख्यक उपभोक्ताओं में से एक या अधिक उपभोक्तागण से है। उपभोक्ता की मृत्यु की दशा में उसका कानूनी शिकायत करने व कोई अनुतोष प्राप्त करने की दृष्टि से लिखित में प्रस्तुत किया गया शिकायती पत्र, जो निम्नलिखित से सम्बधित होगा: (अ) जब किसी व्यापारी अथवा सेवा प्रदाता द्वारा अनुचित व्यापारिक व्यवहार किया गया हों। (ब) क्रय किये गये अथवा क्रय के लिए सहमत माल में त्रुटियां आना। (स) क्र्रय किये गये पदार्थ अथवा भाड़ें पर लिये गई सेवाओं में किसी प्रकार की कमी। (द) किसी व्यापारी अथवा सेवा प्रदाता द्वारा माल या सेवाओं में अधिक कीमत ली गई हो। (ध) किसी भी माल अथवा पदार्थ का निर्धारित मानक के उल्लघंन की स्थिति में तथा जीवन और सुरक्षा के लिए परिसंकट में होने की स्थिति में जो जीवन और सुरक्षा के लिए हानिकारक है। 5 उपभोक्ता से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जिसने किसी भी वस्तु पदार्थ तथा सेवा को प्राप्त करने के लिए भुगतान किया हो अथवा अशतः भुगतान किया हो या भुगतान करने का वचन दिया हो। उपभोक्ता का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से भी है, जो सेवाओं का भाडे पर लेता है या उपयोग करता है। प्रतिबंध यह हैं कि वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए सेवाऐं लेनेवाला व्यक्ति उपभोक्ता की श्रेणी में नही आता है। किन्तु स्वनियोजन द्वारा अपनी जीविका उपार्जन के प्रयोजनों के लिए ली गई सेवाऐं अथवा क्र्रय कि गई वस्तुएं इससे भिन्न सम>ी जायेंगी। 6 त्रुटि से तात्पर्य गुणवत्ता, मात्र माप-तोल, शुद्धता अथवा मानक आदि में कोई दोष, कमी अथवा अपूर्णता आना है। 7 जिला पीठ से तात्पर्य जिला उपभोक्ता संरक्षण न्यायालय से है। 8 सहकारी सोसायटी से तात्पर्य सोसायटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1860 के अधीन रजिस्टर्ड संस्था है। 9 सेवा से तात्पर्य प्रयोगकर्ता को उपलब्ध कराई गई सेवा तथा सुविधाओं का प्रबधं भी है। भुगतान करने पर प्राप्त होती है। किन्तु इसके अन्तर्गत निशुल्क अथवा व्यक्तिगत सेवाऐं नही आती। 10 अनुचित व्यापारिक व्यवहार किसी माल की बिक्री, प्रयोग या आपूर्ति अथवा सेवाओं को प्रदान करने में अनुचित आचरण एवं व्यवहार से है। धारा 3- अधिनियम का किसी अन्य विधि के अल्पीकरण में न होना: तात्पर्य यह है इस अधिनियम की व्यवस्था वर्तमान में अन्य विधि की व्यवस्थाओं की अतिरिक्त व्यवस्था के रूप में होगें अर्थात सम्बंधित अधिनियमों में अनुुतोष उपलब्ध होने की स्थिति में भी इस अधिनियम की व्यवस्थाओं का उपयोग किया जा सकता है। धारा 4- केन्द्रीय उपभोक्ता परिषद का गठन: अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार उपभोक्ता मामलों के मंत्री की अध्यक्षता में एक केन्द्रीय परिषद का गठन किया जायेगा जिसमें सरकारी व गैर सरकारी सदस्य प्रतिनिधि होगें। धारा 5- केन्द्रीय परिषद की प्रक्रिया: केन्द्रीय परिषद की बैठक वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य होगी तथा अध्यक्ष के विवेकानुसार बैठक निर्धारित स्थान व समय पर निश्चित किये गये एजेंडे पर होगी। धारा 6- केन्द्रीय परिषद के उद्धेश्य: (क) जीवन एवं सम्पति को हानि पहुँचाने वाले माल, पदार्थ एवं सेवाओं से सम्बंधित अधिकारों के प्रति सुरक्षा। (ख) उपभोक्ताओं को पदार्थ की गुणवत्ता, मात्र, शुद्धता, मानक एवं मूल्य के प्रति संरक्षण सुनिश्चित करना तथा अनुचित व्यापारिक व्यवहार से सुरक्षा। (ग) प्रतियोगी मूल्यों पर वस्तुओं को उपलब्ध कराने की व्यवस्था। (घ) उचित फोरम पर उपभोक्ताओं के हितों का सरंक्षण। (च) अनुचित व्यापारिक व्यवहार एवं उपभोक्ताओं के उत्पीडन से सम्बंधित प्रतितोष दिलाना। धारा 7- राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद: प्रत्येक राज्य में उपभोक्ता मामलों के मंत्री की अध्यक्षता में एक राज्य कांउसिल का गठन किया जायेगा जिसमें परिषद राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार वर्ष में कम से कम दो बार अवश्य बैठक करेगी। धारा 8- राज्य परिषद के उद्धेश्य - उपरोक्तलिखित केन्द्रीय परिषद की भांति राज्य परिषद का उद्धेश्य भी राज्य के क्षेत्र में उपभोक्ताओं के अधिकारों का संरक्षण करना होगा। धारा 8i - प्रत्येक जनपद में जिला कलेक्ट्रर की अध्यक्षता में परिषद का गठन राज्य सरकार द्वारा किया जायेगा जिसमें अन्य सरकारी एवं गैर सरकारी सदस्य होगें तथा परिषद की बैठक राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार होगी। धारा 8ii - जिला उपभोक्ता परिषद के उद्धेश्य: केन्द्रीय एवं राज्य परिषद की भांति जनपद की सीमा क्षेत्र में उपभोक्ताओं के हितो का सरंक्षण, इस परिषद द्वारा सुनिशि्ंचत किया जायेगा। धारा 9- जिला उपभोक्ता फोरम का गठन: प्रत्येक जनपद में राज्य सरकार द्वारा एक या अधिक जिला फोरम का गठन किया जायेगा। धारा 10- जिला फोरम का स्वरूप: प्रत्येक जनपद में जिला जज की योग्यता रखने वाले व्यक्ति की अध्यक्षता में जिला फोरम का गठन किया जायेगा जिनमें अन्य दो सदस्य होगेंं और उनमें से एक महिला सदस्य का होना अनिवार्य होगा। प्रत्येक सदस्य की नियुक्ति अध्यक्ष सहित पाँच वर्ष की अवधि के लिए की जायेगी। धारा 11- जिला फोरम की अधिकारिता: अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार जिला फोरम की जनपदीय सीमा अधिकारिता के अन्तर्गत उपभोक्ता द्वारा निम्न स्थितियों में शिकायत दर्ज कराई जा सकेगी- (अ) विपक्षी अथवा विपक्षीगण शिकायत दर्ज कराने के समय उक्त जिला फोरम के सीमा क्षेत्र में निवास करते हों, उनका कार्यालय व्यापारिक संस्थान हो अथवा उसकी शाखा हो। (ब) जहां पर एक से अधिक विपक्षी हों वहां पर उनमें से कोई एक उपरोक्तानुसार स्थित हों। (स) पूर्ण रूप अथवा अांशिक रूप से कार्य का कारण उत्पन्न होता हो। यह उल्लेखनीय है कि शिकायतकर्ता के निवास स्थान के आधार पर अधिकारिकता नही बनती है और इस सम्बंध में कोई भ्रम नही रहना चाहिए। धारा 12- शिकायत दर्ज कराने की प्रक्रिया: किसी भी उपभोक्ता अथवा पंजीकृत उपभोक्ता संगठन द्वारा अथवा जहां पर अनेकों उपभोक्ताओं का समान हित सम्बद्ध हों, एक या एक से अधिक उपभोक्ता द्वारा अथवा केन्द्रीय एवं राज्य सरकार द्वारा शिकायत दर्ज कराई जा सकती है। शिकायत के साथ शुल्क की राशि क्रमशः एक लाख पर सौ रूपये, पांच लाख तक की राशि पर दो सौ रूपये, दस लाख तक की धनराशि पर चार सौ रूपये तथा बीस लाख रूपये तक की धनराशि पर पांच सौ रूपये का बैंक ड्रा्ट अथवा पोस्टल आर्डर द्वारा जो अध्यक्ष जिला फोरम के नाम देय होगा, जमा करानी होगी। शिकायत सादे कागज पर विपक्षी गण के नाम व पते सहित शिकायत का विवरण देते हुए जो अनुतोष मांगा गया है उसके उल्लेख के साथ सम्बंधित साक्ष्य की फोटो प्रतियां संलग्न करके तीन प्रतियों में जिला फोरम में प्रस्तुत की जानी चाहिए। शिकायत के लिए वकील की अनिर्वायता नही है और शिकायत स्वयं अथवा अपने प्रतिनिधि द्वारा दर्ज कराई जा सकती है। प्रारम्भ में शिकायत को सुनवाई हेतु स्वीकार करने पर विचार किया जा सकेगा और 21 दिन की अवधि में इस सम्बध्ां में आदेश पारित किये जायेगें। कोई भी शिकायत बिना शिकायतकर्ता को सुनें अस्वीकृत नही की जायेगी। धारा 13- शिकायत दर्ज होने के उपरांत की प्रक्रिया: शिकायत प्राप्त होने पर विपक्षी को शिकायत की प्रति भेजते हुए एक माह की अवधि में अपना उत्तर प्रस्तुत करने के निर्देश दिये जायेगें। इस अवधि में केेवल 15 दिन की सीमा और ब.

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