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मोक्ष और स्वर्ग लोक

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

मोक्ष और स्वर्ग लोक के बीच अंतर

मोक्ष vs. स्वर्ग लोक

शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है। भारतीय दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है । इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है । जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती । शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा 'परम पुरूषार्थ' कहा गया है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है । न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । वेदान्त में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासम्बन्ध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है । तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है । मोक्ष की कल्पना स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना से पीछे की है और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरान्त फिर इस संसार में आकार जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं है । मोक्ष मिल जाने पर जीव सदा के लिये सब प्रकार के बंधनों और कष्टों आदि से छूट जाता है । भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है। यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनन्द की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनन्द में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदान्त में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है। . स्वर्ग लोक या देवलोक हिन्दू मान्यता के अनुसार ब्रह्माण्ड के उस स्थान को कहते हैं जहाँ हिन्दू देवी-देवताओं का वास है। रघुवंशम् महाकाव्य में महाकवि कालिदास स्मृद्धिशाली राज्य को ही स्वर्ग की उपमा देते हैं। तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम्। महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्यमाहुः।। अर्थात् हे राजन्! तुम उत्तरोत्तर सुखों का भोग करने वाले अत्यन्त बल से युक्त अपने शरीर की रक्षा करो, क्योंकि विद्वान् लोग समृद्धिशाली राज्यो को केवल पृथ्वीतल के सम्बन्ध होने से अलग हुआ इन्द्रसम्बन्धी स्थान (स्वर्ग) कहते हैं। हिन्दू धर्म में विष्णु पुराण के अनुसार, कृतक त्रैलोक्य -- भूः, भुवः और स्वः – ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक कहते हैं। हिंदु धर्म में, संस्कृत शब्द स्वर्ग को मेरु पर्वत के ऊपर के लोकों हेतु प्रयुक्त होता है। यह वह स्थान है, जहाँ पुण्य करने वाला, अपने पुण्य क्षीण होने तक, अगले जन्म लेने से पहले तक रहता है। यह स्थान उन आत्माओं हेतु नियत है, जिन्होंने पुण्य तो किए हैं, परंतु उन्में अभी मोक्ष या मुक्ति नहीं मिलनी है। यहाँ सब प्रकार के आनंद हैं, एवं पापों से परे रहते हैं। इसकी राजधानी है अमरावती, जिसका द्वारपाल है, इंद्र का वाहन ऐरावत। यहाँ के राजा हैं, इंद्र, देवताओं के प्रधान। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

मोक्ष और स्वर्ग लोक के बीच समानता

मोक्ष और स्वर्ग लोक आम में एक बात है (यूनियनपीडिया में): मोक्ष

मोक्ष

शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है। भारतीय दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है । इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है । जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती । शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा 'परम पुरूषार्थ' कहा गया है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है । न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । वेदान्त में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासम्बन्ध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है । तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है । मोक्ष की कल्पना स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना से पीछे की है और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरान्त फिर इस संसार में आकार जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं है । मोक्ष मिल जाने पर जीव सदा के लिये सब प्रकार के बंधनों और कष्टों आदि से छूट जाता है । भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है। यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनन्द की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनन्द में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदान्त में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है। .

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मोक्ष और स्वर्ग लोक के बीच तुलना

मोक्ष 26 संबंध है और स्वर्ग लोक 14 है। वे आम 1 में है, समानता सूचकांक 2.50% है = 1 / (26 + 14)।

संदर्भ

यह लेख मोक्ष और स्वर्ग लोक के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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