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भारतीय संगीत का इतिहास और रसिकप्रिया

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

भारतीय संगीत का इतिहास और रसिकप्रिया के बीच अंतर

भारतीय संगीत का इतिहास vs. रसिकप्रिया

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। . रसिकप्रिया यह आचार्य केशवदास की प्रसिद्ध रचना है। काव्यशास्त्र में रसविवेचन का प्रमुख स्थान है, इस दृष्टि से केशव ने इस इस ग्रंथ में रस का विशद वर्णन किया है। इसमें कुल १६ प्रकाश हैं। शृंगार रस चूँकि 'रसराज' माना गया है, इसलिये मंगलाचरण के बाद प्रथम प्रकाश में इसी का, इसके भेदों के साथ, वर्णन किया गया है। फिर, दूसरे प्रकाश में नायकभेद और तीसरे में जाति, कर्म, अवस्था, मान के विचार से नायिका के भेद, चतुर्थ में प्रेमोत्पत्ति के चार मुख्य हेतुओं तथा पंचम में दोनों की प्रणय संबंधी चेष्टाओं, मिलनस्थलों, तथा अवसरों के साथ स्वयंदूतत्व का निरूण किया गया है। फिर छठे में भावविभावानुभाव, संचारी भावों के साथ हावादि का कथन हुआ है। अष्टम में पूर्वानुराग तथा प्रियमिलन न होने पर प्रमुख दशाओं का, नवम में मान और दशम में मानमोचन के उपायों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् वियोग शृंगार के रूपों तथा सखीभेद, आदि का विचार किया गय है। चौदहवें प्रकाश में अन्य आठ रसों का निरूपण किया गया है। इसमें आधार भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ही प्रतीत होता है। फिर भी यह मौलिक है। इस ग्रंथ में उन्होंने किसी विशेष रसग्रंथ से सहायता नहीं ली, वरन् रससिद्धांत का सम्यक् अध्ययन कर स्वतंत्र रूप में ही लिखने का प्रयास किया है। रसों के इन्होंने प्रच्छन्न और प्रकाश नामक दो भेद किए हैं। ऐसा किसी अन्य आचार्य ने नहीं किया। भोजदेव ने अनुराग के ऐसे दो भेद किए हैं। कोककला की पटुता को भी नायकादि के प्रसंग में रखा गया है। नयिका के पद्मिनी आदि कामशास्त्रीय भेद किए गए हैं। कुछ भेदों में नामांतर भी किया गया है। स्वानुभव से भी काम लेकर केशव ने मौलिक लक्षणादि दिए हैं। कितनी बातें उनकी नितांत मौलिक हैं। जाति संबंधी भेद, अगम्या, सहेटस्थल और मिलनावसरादि नवीन वर्णन हैं। बोध हाव भी मौलिक है। इस प्रकार देखने से ज्ञात होता है कि रस तथा रस के अंगों आदि के विवेचन में केशव अधिक मौलिक और सफल हैं। अत: उन्हें रसहीन और केवल अलंकारप्रिय कवि मानना समीचीन नहीं। .

भारतीय संगीत का इतिहास और रसिकप्रिया के बीच समानता

भारतीय संगीत का इतिहास और रसिकप्रिया आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): नाट्य शास्त्र, भरत मुनि

नाट्य शास्त्र

250px नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्य शास्त्र कहते हैं। इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का काल ४०० ई के निकट माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 37 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है। .

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भरत मुनि

भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र लिखा। इनका समय विवादास्पद हैं। इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है। भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है।इसमें सर्वप्रथम रस सिद्धांत की चर्चा तथा इसके प्रसिद्द सूत्र -'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" की स्थापना की गयी है| इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छंदशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। 'भारतीय नाट्यशास्त्र' अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी है क्योकि शंकर ने ब्रह्मा को तथा ब्रह्मा ने अन्य ऋषियो को काव्य शास्त्र का उपदेश दिया। विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं श्रेणी:संस्कृत आचार्य.

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भारतीय संगीत का इतिहास और रसिकप्रिया के बीच तुलना

भारतीय संगीत का इतिहास 119 संबंध है और रसिकप्रिया 11 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 1.54% है = 2 / (119 + 11)।

संदर्भ

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