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भण्डासुर

सूची भण्डासुर

भण्ड एक असुर था जो कामदेव की भस्म से उत्पन्न हुआ था। देवी अम्बिका (त्रिपुरसुन्दरी) ने उसका वध किया। भगवान् शंकर ने जब कामदेव को जलाया था, तब उसकी भस्म वहीं पड़ी रह गयी थी। एक दिन गणेश ने कौतूहलवश उस भस्म से पुरुषकी आकृति बनायी। थोड़ी ही देर में वह सजीव होकर कामदेव की तरह सुन्दर बालक बन गया। उसे देख गणेशजी ने उसे गले से लगा लिया और कहा कि ‘तुम भगवान् शंकर की स्तुति करो।’ उस बालक को शतरुद्रीय का भी उपदेश किया। उसका नाम आगे चलकर भण्डासुर हुआ। भण्ड ने श्रीगणेशजी की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उससे वर माँगने को कहा। उसने यह माँगा कि ‘मैं देवता आदि किसी प्राणी से न मारा जाऊँ।’ शिव ने उसे मुँहमाँगा वर दे दिया तथा साथ ही दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी दिये। उन्होंने उसे साठ हजार वर्ष का राज्य भी दे दिया। यह सब देखकर ब्रह्माजी ने ही पहले उसे ‘भण्ड-भण्ड’ कहा था। तभी से उसका नाम ‘भण्ड’ पड़ गया। भण्डासुर के वरदान मिलने की बात थोड़ी ही देर में सम्पूर्ण भुवनों में फैल गयी। दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य यह समाचार पाकर भण्डासुर के पास आये और मय के द्वारा शोणितपुर को फिर से सुसज्जित कराकर वहाँ भण्डासुर का अभिषेक कर दिया। प्रारम्भ में भण्डासुर शिव जी अर्चना करता और उनके आदेश पर चलता था। उसके अनुयायी दैत्य भी धर्म का अनुसरण करते थे। इस तरह सौभाग्यशाली भण्ड की सुख-समृद्धि के साठ हजार वर्ष देखते-देखते बीत गये। बाद में वह माया की चपेट में पड़ गया। अब चार पत्नियों से उसे संतोष न था। वह एक दिव्य वारांगना के मोह में पड़ गया। इसी बीच देवर्षि नारद देवताओं के पास आये और उन्हें समझाया कि इस क्षणिक आमोद-प्रमोद को छोड़कर वे अपने भविष्य को सुनहला बनायें। उन्होंने पराशक्ति की उपासना का परामर्श दिया और उसकी विधि भी बतला दी। देवताओं ने शीघ्र ही उनके आदेश का पालन किया। इधर दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य भण्डासुर के पास आये और उसे सावधन करते हुए उन्होंने कहा-'देवता अपनी विजय के लिये हिमालय में पराशक्ति की उपासना कर रहे हैं। यदि पराशक्ति ने उनकी सुन ली तो तुम कहीं के न रह जाओगे। अतः तुम शीघ्र ही देवताओं की पूजा में विघ्न डालो। भण्डासुर दल-बल के साथ देवताओं पर चढ़ आया। पराम्बा ने अपनी शरण में आये हुए देवताओं की रक्षा के लिये ज्योति की एक अलंघ्य दीवार खड़ी कर दी। भण्डासुर यह देखकर क्रोध से जल उठा। उसने दानवास्त्र चलाकर उसे तोड़ डाला परन्तु तत्क्षण ही वहाँ पुनः अलंघ्य दीवार खड़ी हो गयी। अब भण्डासुर ने वायाशास्त्र से इसे तोड़ा किन्तु तत्क्षण भण्डासुर ने उसी दीवार को खड़ी देखा। तोड़ने में समय लगता था, किंतु दीवार खड़ी होने में समय नहीं लगता था। हारकर भण्डासुर शोणितपुर लौट आया। भण्डासुर लौट तो आया था, किंतु उसकी भय से देवताओं की दशा दयनीय हो गयी थी। वे सोचते थे कि जिस दिन दीवार नहीं रहेगी, उस दिन हमलोगों का बच सकता कठिन हो जायगा। अब कहीं छिपकर नहीं रहा जा सकता। अंत में देवताओं ने निर्णय लिया कि या तो पराम्बा का दर्शन करें या यहीं भण्डासुर के हाथों में मारे जायँ। उन्होंने घोर आराधना की। पराम्बा प्रकट हो गयीं। उनके अद्धभुत दर्शन पाकर देवता कृतकृत्य हो गये। पराम्बा का स्वरूप-शृंगार देवी के रूप में था। ब्रम्हा ने यह देखकर सोचा कि इनका विवाह शंकर से ही संभव है।| इतना संकल्प करते ही भगवान् शंकर कुमार बनकर वहाँ प्रकट हो गये। देवताओं ने उनका आपस में विवाह करा दिया और पराम्बा को उस पुर की अधीश्वरी बना दिया। उधर भण्डासुर ने सारे विश्व को त्रस्त कर रखा था। उसने अहंकार में आकर अपने जनक श्रीगणेश और शंकरजी की अवहेलना की। परिणाम स्वरूप भण्डासुर के विरुद्ध युद्ध में गणेश जी ने भी पराम्बा सहयोग दिया। विश्व की रक्षा के लिये ललिताम्बा ने भण्डासुर के साथ युद्ध किया। युद्ध में भण्डासुर ने 'पाषण्ड' का प्रयोग किया, तब पराम्बा ने 'गायत्री' के द्वारा उसका निवारण किया। जब भण्डासुर ने 'स्मृतिनाश'-अस्त्र का प्रयोग किया, तब माँ ने 'धारण' के द्वारा उसे नष्ट किया। जब भण्डासुर ने 'यक्ष्मा' आदि रोग रूप अस्त्रों का प्रयोग किया, तब पराम्बा ने 'अच्युत, अनन्त, गोविन्द' (अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्) नामरूप मन्त्रों से उसका निवारण किया। इसके बाद भण्डासुर ने हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कंस और महिषासुर को उत्पन्न किया, तब ललिताम्बा ने अपनी दसों अंगुलियों के नख से वराह, नृसिंह, राम, कृष्ण, दुर्गा आदि को उत्पन्न किया। युद्ध के अन्तिम भाग में पराम्बा ने भण्डासुर का उद्धार 'कामेश्वरा-अस्त्र' से किया।.

8 संबंधों: त्रिपुरसुन्दरी, दुर्गा, ब्रह्मा, शिव, वर, गणेश, कामदेव, असुर

त्रिपुरसुन्दरी

चतुर्भुजा ललिता रूप में पार्वती, साथ में पुत्र गणेश और स्कन्द हैं। ११वीं शताब्दी में ओड़िशा में निर्मित यह प्रतिमा वर्तमान समय में ब्रिटिश संग्रहालय लन्दन में स्थित है। त्रिपुरासुन्दरी दस महाविद्याओं (दस देवियों) में से एक हैं। इन्हें 'महात्रिपुरसुन्दरी', षोडशी, ललिता, लीलावती, लीलामती, ललिताम्बिका, लीलेशी, लीलेश्वरी, तथा राजराजेश्वरी भी कहते हैं। वे दस महाविद्याओं में सबसे प्रमुख देवी हैं। त्रिपुरसुन्दरी के चार कर दर्शाए गए हैं। चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। देवीभागवत में ये कहा गया है वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती मां का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से पूर्ण है। जो इनका आश्रय लेते है, उन्हें इनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त तंत्र-मंत्र इनकी आराधना करते हैं। प्रसन्न होने पर ये भक्तों को अमूल्य निधियां प्रदान कर देती हैं। चार दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें तंत्र शास्त्रों में ‘पंचवक्त्र’ अर्थात् पांच मुखों वाली कहा गया है। आप सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं, इसलिए इनका नाम ‘षोडशी’ भी है। एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछा, ‘भगवन! आपके द्वारा वर्णित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएगी, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई सरल उपाय बताइये।’ तब पार्वती जी के अनुरोध पर भगवान शिव ने त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या साधना-प्रणाली को प्रकट किया। भैरवयामल और शक्तिलहरी में त्रिपुर सुन्दरी उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋषि दुर्वासा आपके परम आराधक थे। इनकी उपासना श्री चक्र में होती है। आदिगुरू शंकरचार्य ने भी अपने ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की बड़ी सरस स्तुति की है। कहा जाता है- भगवती त्रिपुर सुन्दरी के आशीर्वाद से साधक को भोग और मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं। .

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दुर्गा

दुर्गा हिन्दुओं की प्रमुख देवी हैं जिन्हें केवल देवी और शक्ति भी कहते हैं। शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं जिनकी तुलना परम ब्रह्म से की जाती है। दुर्गा को आदि शक्ति, प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है। वह अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली तथा कल्याणकारी हैं। उनके बारे में मान्यता है कि वे शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करतीं हैं। देवी दुर्गा का निरूपण सिंह पर सवार एक निर्भय स्त्री के रूप में की जाती है। दुर्गा देवी आठ भुजाओं से युक्त हैं जिन सभी में कोई न कोई शस्त्रास्त्र होते है। उन्होने महिषासुर नामक असुर का वध किया। महिषासुर (.

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ब्रह्मा

ब्रह्मा  सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं। व्यासलिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके चार मुख हैं, जो चार दिशाओं में देखते हैं।Bruce Sullivan (1999), Seer of the Fifth Veda: Kr̥ṣṇa Dvaipāyana Vyāsa in the Mahābhārata, Motilal Banarsidass, ISBN 978-8120816763, pages 85-86 ब्रह्मा को स्वयंभू (स्वयं जन्म लेने वाला) और चार वेदों का निर्माता भी कहा जाता है।Barbara Holdrege (2012), Veda and Torah: Transcending the Textuality of Scripture, State University of New York Press, ISBN 978-1438406954, pages 88-89 हिन्दू विश्वास के अनुसार हर वेद ब्रह्मा के एक मुँह से निकला था। ज्ञान, विद्या, कला और संगीत की देवी सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी हैं। बहुत से पुराणों में ब्रह्मा की रचनात्मक गतिविधि उनसे बड़े किसी देव की मौजूदगी और शक्ति पर निर्भर करती है। ये हिन्दू दर्शनशास्त्र की परम सत्य की आध्यात्मिक संकल्पना ब्रह्मन् से अलग हैं।James Lochtefeld, Brahman, The Illustrated Encyclopedia of Hinduism, Vol.

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शिव

शिव या महादेव हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ,गंगाधार के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है। इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है। भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। राम, रावण, शनि, कश्यप ऋषि आदि इनके भक्त हुए है। शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है इसलिये उन्हें महादेव कहा जाता है। .

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वर

कोई विवरण नहीं।

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गणेश

गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन डिंक नामक मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है। ज्योतिष में इनको केतु का देवता माना जाता है और जो भी संसार के साधन हैं, उनके स्वामी श्री गणेशजी हैं। हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहते हैं। गणेश जी का नाम हिन्दू शास्त्रो के अनुसार किसी भी कार्य के लिये पहले पूज्य है। इसलिए इन्हें आदिपूज्य भी कहते है। गणेश कि उपसना करने वाला सम्प्रदाय गाणपतेय कहलाते है। .

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कामदेव

कामदेव को हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वे विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वे इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधंव आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, कामदेव का अवतार है। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण भी माना जाता है। .

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असुर

मैसूर में महिषासुर की प्रतिमा हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, अर्धदेवों के रूप में चित्रित किया गया है। ये अच्छे और बुरे दोनों गुणों वाले हैं। अच्छे गुणों वाले असुरों को 'अदित्य' तथा बुरे गुणों से युक्त असुरों को 'दानव' कहा गया है। 'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु)। पतंजलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है। शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है। आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवांतर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है। .

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