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बंद गोभी और वसा

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

बंद गोभी और वसा के बीच अंतर

बंद गोभी vs. वसा

बंद गोभी (पात गोभी या करमकल्ला; अंग्रेजी: कैबेज) एक प्रकार का शाक (सब्जी) है, जिसमें केवल कोमल पत्तों का बँधा हुआ संपुट होता है। इसे बंदगोभी और पातगोभी भी कहते हैं। यह जंगली करमकल्ले (ब्रेसिका ओलेरेसिया, Brassica oleracea) से विकसित किया गया है। शाक के लिए उगाया जानेवाला करमकल्ला मूल प्रारूप से बहुत भिन्न हो गया, यद्यपि फूल और बीज में विशेष अंतर नहीं पड़ा है। करमकल्ले के लिए पानी और ठंडे वातावरण की आवश्यकता है। इसको खाद भी खूब चाहिए। बीच में दो चार दिन गर्मी पड़ जाने से भी करमकल्ले का संपुट अच्छा नहीं बन पाता। संपुट बनने के बदले इसमें से शाखाएँ निकल पड़ती हैं, जिनमें फूल तथा बीज उगने लगते हैं। करमकल्ला पाला नहीं सहन कर सकता। पाले से यह मर जाता है। यद्यपि ऋतु ठंडी होनी चाहिए, तो भी करमकल्ले के पौधों को दिन में धूप मिलना आवश्यक है। छाँह में अच्छे पौधे नहीं उगते। जैसा ऊपर कहा गया है, करमकल्ले के लिए खूब खाद चाहिए, परंतु किसी विशेष प्रकार की खाद की आवश्यकता नहीं है; यहाँ तक कि ताजे गोबर से भी यह काम चला लेता है, किंतु सड़ा गोबर और रासायनिक खाद इसके लिए अधिक उपयोगी है। अन्य पौधों में अधिक खाद देने से फूल अथवा फल देर में तैयार होते हैं। इसके विपरीत करमकल्ला अधिक खाद पाने पर कम समय में ही खाने योग्य हो जाता है। पानी में थोड़ी भी कमी होने से पौधा मुरझाने लगता है और उसकी वृद्धि रुक जाती है। पर इसकी जड़ में पानी लगने से पौध सड़ने लगता है। भूमि से पानी की निकासी अच्छी होनी चाहिए। जिसमें पानी जड़ों के पास एकत्र न होने पाए। भूमि दोरसी हो, अर्थात् उसमें चिकनी मिट्टी की भाँति बँधने की प्रवृत्ति न हो। जो भूमि पानी मिलने के पश्चात् बँधकर कड़ी हो जाती है वह करमकल्ले के लिए उपयुक्त नहीं होती। मिट्टी कुछ बलुई हो। इतने पर भी भूमि की गुड़ाई बार-बार करनी चाहिए, परंतु गुड़ाई इतनी गहरी न की जाए जड़ ही कट जाए। करमकल्ले की गई जातियाँ हैं। कुछ तो लगभग तीन महीने में तैयार हो जाती हें और कुछ के तैयार होने में छह महीने तक समय लग सकता है। भारत के मैदानों के लिए शीघ्र तैयार होनेवाली जातियाँ ही उपयुक्त होती हैं, क्योंकि यहाँ जाड़ा अधिक दिनों तक नहीं पड़ता। आकृतियों में भी बहुत अंतर होता है। कुछ का पत्ता इतना छोटा और सिर इतना चपटा रहता है कि वे भूमि पर बिठे हुए जान पड़ते हैं। कुछ के तने १६ से २० इंच तक लंबे होते हैं। इनका सिर गोल, अंडाकार या शंक्वाकार हो सकता है। पत्तियों का रंग पिलछाँव, हरा, धानी (गाढ़ा हरा), अथवा इतना गहरा लाल होता है कि वे काली दिखाई पड़ती हैं। भारत के मैदानों में हलके रंग के करमकल्ले ही उगाए जाते हैं। कुछ के पत्ते चिकने और कुछ के झालरदार होते हैं। अमरीका के बीज बेचनेवाले पाँच सौ से अधिक जातियों के बीज बेचते हैं। यद्यपि कुछ स्थानों में खेत में ही बीज बो दिया जाता है और उनके उगने पर अवांछित पाधों को निकालकर फेंक दिया जाता है, तो भी सुविधा इसी में होती है कि बीजों को छिछले गमलों में बोया जाए। १०-१५ दिन के बाद इनको अन्य बड़े गमलों में दो से चार इंच तक की दूरी पर रोप दिया जाता है। कुछ समय और बीतने पर इन्हें खेतों में आरोपित कर देते हैं। रद्दी बीज, पौधों को बहत पास-पास आरोपित करना, आरोपण में असावधानी, शरद ऋतु से पूर्व ही उन्हें खेतों में लगा देना अथवा खेतों में आरोपित करने में विलंब करना, भूमि का अनुपयुक्त होना, अथवा पानी की कमी, इन सबके कारण करमकल्लों में बहुधा अच्छा संपुट (सर) नहीं बन पाता और वे शीघ्र फूल और बीज देने लगते हैं। भारत में पौधे ७-८ से लेकर २०-२२ इंच तक की दूरी पर लगाए जाते हैं और गोड़ने का काम हाथ से किया जाता है, परंतु अमरीका में पंक्तियों के बीच बहुधा ३०-३६ इंच तक की दूरी छोड़ दी जाती है और मशीन से गुड़ाई की जाती है। संपुट बन जाने पर भी गोड़ाई और सिंचाई करते रहना चाहिए, क्योंकि इससे संपुट का भार बढ़ता रहता है। तैयार पौधों को काटकर बाहर की कुछ पत्तियाँ तोड़कर फेंक दी जाती हैं। भारत में उन्हें खाँचे में भरकर, सिर पर उठाकर अथवा इक्कों में लादकर बाजार पहुँचाया जाता है, पर विदेशों में इस काम के लिए मोटर गाड़ियों का उपयोग होता है। जर्मन सावरक्राउट विदेश में करमकल्ले की नरम पत्तियों पर नमक छिड़ककर और कुछ समय तक उसे रखकर एक प्रकार का अचार बनाया जाता है, जिसे सावर क्राउट (Sauerkraut) कहते हैं। भूमि में रहनेवाला एक परजीवी करमकल्ले में रोग उत्पन्न करता है। अधिकतर यह भूमि के अम्ल में पनपता है और मिट्टी में चूना तथा राख मिलाने से नष्ट होता है, परंतु यदि पौधों में यह परजीवी (प्लैस्मोडायोफ़ोरा ब्रैसिका, Plasmodiphora Brassica) लग ही जाए तो उन पौधों को जला देना चाहिए और उस भूमि में चार पाँच वर्षों तक करमकल्ला नहीं बोना चाहिए। करमकल्ले में तने के सड़ने की प्रवृत्ति एक संक्रामक रोग से उत्पन्न होती है, जो आक्रांत बीज तथा रोगग्रस्त करमकल्ला खानेवाले चौपायों के गोबर आदि में फैलता है। रोगग्रस्त पौधों को जला डालना चाहिए और अगली बार बीज बोते समय गमले की मिट्टी को फ़ॉरमैल्डिहाइड (Formaldehyde) के फीके विलयन से (एक भाग को २६० भाग जल में मिलाकर) कुछ समय तक तर रखना चाहिए। बीज को भी १५ मिनट तक इसी विलयन में भिगो रखना चाहिए। कभी-कभी करमकल्ला खानेवाले पतिंगों से फसल की रक्षा करनी पड़ती है। यह काम पौधों से कुछ ऊंचाई पर मसहरी तानकर किया जाता है, किंतु भारत में इसकी आवश्यकता कदाचित् ही कहीं पड़ती है। तना काटनेवाले कीड़ों को मारने के लिए आटे या चोकर में थोड़ा चोटा और पेरिस ग्रीन ताजे घास में मिलाकर खेत में छोड़ देना चाहिए। करमकल्ले के सिरों में घुसनेवाले कीड़ों को मिट्टी के तेल, साबुन, पानी और पेरिस ग्रीन का मिश्रण छिड़ककर नष्ट किया जाता है। . lipid एक ट्राईग्लीसराइड अणु वसा अर्थात चिकनाई शरीर को क्रियाशील बनाए रखने में सहयोग करती है। वसा शरीर के लिए उपयोगी है, किंतु इसकी अधिकता हानिकारक भी हो सकती है। यह मांस तथा वनस्पति समूह दोनों प्रकार से प्राप्त होती है। इससे शरीर को दैनिक कार्यों के लिए शक्ति प्राप्त होती है। इसको शक्तिदायक ईंधन भी कहा जाता है। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए १०० ग्राम चिकनाई का प्रयोग करना आवश्यक है। इसको पचाने में शरीर को काफ़ी समय लगता है। यह शरीर में प्रोटीन की आवश्यकता को कम करने के लिए आवश्यक होती है। वसा का शरीर में अत्यधिक मात्रा में बढ़ जाना उचित नहीं होता। यह संतुलित आहार द्वारा आवश्यक मात्रा में ही शरीर को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। अधिक मात्रा जानलेवा भी हो सकती है, यह ध्यान योग्य है। यह आमाशय की गतिशीलता में कमी ला देती है तथा भूख कम कर देती है। इससे आमाशय की वृद्धि होती है। चिकनाई कम हो जाने से रोगों का मुकाबला करने की शक्ति कम हो जाती है। अत्यधिक वसा सीधे स्रोत से हानिकारक है। इसकी संतुलित मात्रा लेना ही लाभदायक है। .

बंद गोभी और वसा के बीच समानता

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संदर्भ

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