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प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष के बीच अंतर

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी vs. मोक्ष

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-. शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है। भारतीय दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है । इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है । जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती । शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा 'परम पुरूषार्थ' कहा गया है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है । न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । वेदान्त में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासम्बन्ध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है । तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है । मोक्ष की कल्पना स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना से पीछे की है और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरान्त फिर इस संसार में आकार जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं है । मोक्ष मिल जाने पर जीव सदा के लिये सब प्रकार के बंधनों और कष्टों आदि से छूट जाता है । भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है। यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनन्द की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनन्द में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदान्त में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है। .

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष के बीच समानता

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष आम में 5 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): धर्म, पुरुषार्थ, मोक्ष, काम, अर्थ

धर्म

धर्मचक्र (गुमेत संग्रहालय, पेरिस) धर्म का अर्थ होता है, धारण, अर्थात जिसे धारण किया जा सके, धर्म,कर्म प्रधान है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं। पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है यथा पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जलाना। व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत ही उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है। पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसके देश, रंग रूप की कोई बाधा नहीं है। धर्म सार्वकालिक होता है यानी कि प्रत्येक काल में युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है। धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज पर्यन्त समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए। जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए। अतः मानव के सन्दर्भ में धर्म की बात करें तो वह केवल मानव धर्म है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। (पालि: धम्म) भारतीय संस्कृति और दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। 'धर्म' शब्द का पश्चिमी भाषाओं में कोई तुल्य शब्द पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि। .

धर्म और प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी · धर्म और मोक्ष · और देखें »

पुरुषार्थ

हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है ('पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः')। पुरुषार्थ .

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मोक्ष

शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है। भारतीय दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है । इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है । जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती । शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा 'परम पुरूषार्थ' कहा गया है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है । न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । वेदान्त में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासम्बन्ध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है । तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है । मोक्ष की कल्पना स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना से पीछे की है और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरान्त फिर इस संसार में आकार जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं है । मोक्ष मिल जाने पर जीव सदा के लिये सब प्रकार के बंधनों और कष्टों आदि से छूट जाता है । भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है। यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनन्द की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनन्द में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदान्त में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है। .

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष · मोक्ष और मोक्ष · और देखें »

काम

काम, जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक है। प्रत्येक प्राणी के भीतर रागात्मक प्रवृत्ति की संज्ञा काम है। वैदिक दर्शन के अनुसार काम सृष्टि के पूर्व में जो एक अविभक्त तत्व था वह विश्वरचना के लिए दो विरोधी भावों में आ गया। इसी को भारतीय विश्वास में यों कहा जाता है कि आरंभ में प्रजापति अकेला था। उसका मन नहीं लगा। उसने अपने शरीर के दो भाग। वह आधे भाग से स्त्री और आधे भाग से पुरुष बन गया। तब उसने आनंद का अनुभव किया। स्त्री और पुरुष का युग्म संतति के लिए आवश्यक है और उनका पारस्परिक आकर्षण ही कामभाव का वास्तविक स्वरूप है। प्रकृति की रचना में प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की सत्ता है। ऋग्वेद में इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति पाई जाती है, जैसा अस्यवामीय सूक्त में कहा है—जिन्हें पुरुष कहते हैं वे वस्तुत: स्त्री हैं; जिसके आँख हैं वह इस रहस्य को देखता है; अंधा इसे नहीं समझता। (स्त्रिय: सतीस्तां उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान्न बिचेतदन्ध:। - ऋग्वेद, ३। १६४। १६)। इस सत्य को अर्वाचीन मनोविज्ञान शास्त्री भी पूरी तरह स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि प्रत्येक पुरुष के मन में एक आदर्श सुंदरी स्त्री बसती है जिसे "अनिमा' कहते हैं और प्रत्येक स्त्री के मन में एक आदर्श तरुण का निवास होता है जिसे "अनिमस' कहते हैं। वस्तुत: न केवल भावात्मक जगत्‌ में किंतु प्राणात्मक और भौतिक संस्थान में भी स्त्री और पुरुष की यह अन्योन्य प्रतिमा विद्यमान रहती है, ऐसा प्रकृति की रचना का विधान है। कायिक, प्राणिक और मानसिक, तीन ही व्यक्तित्व के परस्पर संयुक्त धरातल हैं और इन तीनों में काम का आकर्षण समस्त रागों और वासनाओं के प्रबल रूप में अपना अस्तित्व रखता हे। अर्वाचीन शरीरशास्त्री इसकी व्याख्या यों करते हैं कि पुरुष में स्त्रीलिंगी हार्मोन (Female sex hormones) और स्त्री में पुरुषलिंगी हार्मोंन (male sex hormones) होते हैं। भारतीय कल्पना के अनुसार यही अर्धनारीश्वर है, अर्थात प्रत्येक प्राणी में पुरुष और स्त्री के दोनों अर्ध-अर्ध भाव में सम्मिलित रूप से विद्यमान हैं और शरीर का एक भी कोष ऐसा नहीं जो इस योषा-वृषा-भाव से शून्य हो। यह कहना उपयुक्त होगा कि प्राणिजगत्‌ की मूल रचना अर्धनारीश्वर सूत्र से प्रवृत्त हुई और जितने भी प्राण के मूर्त रूप हैं सबमें उभयलिंगी देवता ओत प्रोत है। एक मूल पक्ष के दो भागों की कल्पना को ही "माता-पिता' कहते हैं। इन्हीं के नाम द्यावा-पृथिवी और अग्नि-सोम हैं। द्यौ: पिता, पृथिवी मता, यही विश्व में माता-पिता हैं। प्रत्येक प्राणी के विकास का जो आकाश या अंतराल है, उसी की सहयुक्त इकाई द्यावा पृथिवी इस प्रतीक के द्वारा प्रकट की जाती है। इसी को जायसी ने इस प्रकार कहा है: द्यावा पृथिवी, माता पिता, योषा वृषा, पुरुष का जो दुर्धर्ष पारस्परिक राग है, वही काम है। कहा जाता है, सृष्टि का मूल प्रजापति का ईक्षण अर्थात्‌ मन है। विराट् में केंद्र के उत्पत्ति को ही मन कहते हैं। इस मन का प्रधान लक्षण काम है। प्रत्येक केंद्र में मन और काम की सत्ता है, इसलिए भारतीय परिभाषा में काम को मनसिज या संकल्पयोनि कहा गया है। मन का जो प्रबुद्ध रूप है उसे ही मन्यु कहते हैं। मन्यु भाव की पूर्ति के लिए जाया भाव आवश्यक है। बिना जाया के मन्यु भाव रौद्र या भयंकर हो जाता है। इसी को भारतीय आख्यान में सत्ती में सती से वियुक्त होने पर शिव के भैरव रूप द्वारा प्रकट किया गया है। वस्तुत: जाया भाव से असंपृक्त प्राण विनाशकारी है। अतृप्त प्राण जिस केंद्र में रहता है उसका विघटन कर डालता है। प्रकृति के विधान में स्त्री पुरुष का सम्मिलन सृष्टि के लिए आवश्यक है और उस सम्मिलन के जिस फल की निष्पति होती है उसे ही कुमार कहते हैं। प्राण का बालक रूप ही नई-नई रचना के लिए आवश्यक है और उसी में अमृतत्व की श्रृंखला की बार-बार लौटनेवाली कड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। आनंद काम का स्वरूप है। यदि मानव के भीतर का आकाश आनंद से व्याप्त न हो तो उसका आयुष्यसूत्र अविच्छन्न हो जाए। पत्नी के रूप में पति अपने आकाश को उससे परिपूर्ण पाता है। अर्वाचीन मनोविज्ञान का मौलिक अन्वेषण यह है कि काम सब वासनाओं की मूलभूत वासना है। यहाँ तक तो यह मान्यता समुचित है, किंतु भारतीय विचार के अनुसार काम रूप की वासना स्वयं ईश्वर का रूप है। वह कोई ऐसी विकृति नहीं है जिसे हेय माना जाए। इस नियम के अनुसार काम प्रजनन के लिए अनिवार्य है और उसका वह छंदोमय मर्यादित रूप अत्यंत पवित्र है। काम वृत्ति की वीभत्स व्याख्या न इष्ट है, न कल्याणकारी। मानवीय शरीर में जिस श्रद्धा, मेधा, क्षुधा, निद्रा, स्मृति आदि अनेक वृत्तियों का समावेश है, उसी प्रकार काम वृत्ति भी देवी की एक कला रूप में यहाँ निवास करती है और वह चेतना का अभिन्न अंग है। .

काम और प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी · काम और मोक्ष · और देखें »

अर्थ

अर्थ जीवन के चार पुरुषार्थों (लक्ष्यों) में से एक। अन्य तीन पुरुषार्थ हैं - धर्म, काम एवं मोक्ष .

अर्थ और प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी · अर्थ और मोक्ष · और देखें »

सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष के बीच तुलना

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी 74 संबंध है और मोक्ष 26 है। वे आम 5 में है, समानता सूचकांक 5.00% है = 5 / (74 + 26)।

संदर्भ

यह लेख प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी और मोक्ष के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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