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पूर्व एवं वर्तमान भरतीय नारी: एक सामाजिक परिवजन् और राजनीति

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

पूर्व एवं वर्तमान भरतीय नारी: एक सामाजिक परिवजन् और राजनीति के बीच अंतर

पूर्व एवं वर्तमान भरतीय नारी: एक सामाजिक परिवजन् vs. राजनीति

परिचय अब भी जागो, सुर में रागो, भारत मां की संतानों! बिन बेटी के, बेटे वालों, किससे ब्याह रचाओगे? बहन न होगी, तिलक न होगा, किसके वीर कहलाओगे? भारत में नवरात्र पर्व के दौरान बाल कन्याओं को पूजने का रिवाज है। लेकिन यह बेहद शर्मनाक बात है कि जिन कन्याओं को यहां भगवान का रूप माना जाता है उसे लोग अपने घर में एक बोझ मानकर जन्म लेने से पहले ही मार देते हैं। हरियाणा और मध्यप्रदेश जैसे जगहों पर लोग कन्या भ्रूण हत्या (Girl Child Abortion) इज्जत और दहेज बचाने के लिए करते हैं तो भारत के शहरों में बेटों की चाह में बेटियों का गला दबा दिया जाता है और इसके दुष्परिणाम आज सबके सामने हैं। लैंसेट पत्रिका (Lancet journal) में छपे एक अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार वर्ष 1980 से 2010 के बीच इस तरह के गर्भपातों (Girl Child Abortion) की संख्या 42 लाख से एक करोड़ 21 लाख के बीच रही है। कन्याएं समाज का आधार होती हैं। यही मां, बहन, बेटी और बहू का किरदार निभाती हैं। लेकिन समाज के कई हिस्सों में इन्हीं कन्याओं को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है – वजह इनके बड़े होने पर इन्हें पालने, दहेज देने और इज्जत बचाने के लिए। आज 21वीं सदी में यह तर्क हमारी प्रगतिशील सोच पर एक काले कलंक की तरह हैं लेकिन यह पूरी तरह सच है। साथ ही ‘सेंटर फॉर सोशल रिसर्च’ का अनुमान है कि बीते 20 वर्ष में भारत में कन्या भ्रूण हत्या (Girl Child Abortion) के कारण एक करोड़ से अधिक बच्चियां जन्म नहीं ले सकीं। वर्ष 2001 की जनगणना कहती है कि दिल्ली में हर एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 865 थी। वहीं, हरियाणा के अंबाला में एक हजार पुरुषों पर 784 महिलाएं और कुरुक्षेत्र में एक हजार पुरुषों पर 770 महिलाएं थीं। पूरे विश्व में बाल कन्याओं और कन्या भ्रूण हत्याओं (Girl Child Abortion) की बढ़ती संख्या देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 11 अक्टूबर को विश्व बाल कन्या दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया है। बाल कन्याओं और कन्या भ्रूण हत्याओं को रोकने के लिए इस दिन विश्व भर में चर्चा होती है और जरूरी कदम उठाए जाते हैं। क्या सिर्फ चर्चा से रुकेगा यह पाप कन्या भ्रूण हत्या (Girl Child Abortion) को पाप कहना गलत नहीं होगा। भारत में इस पाप को रोकने के लिए कानून में दंड तक का प्रावधान है लेकिन बेहद शर्मनाक है कि आज इस कानून का बुरी तरह से खंडन हो रहा है। कन्या भ्रूण हत्या (Girl Child Abortion) को रोकने के लिए सिर्फ कानून बना देने से क्या होता है? कानून के अनुपालन के लिए एक मशीनरी भी तो होनी चाहिए। साथ ही कन्या भ्रूण हत्याओं के बढ़ते मामलों का सबसे बड़ा दोषी भारतीय समाज का विभाजन है जहां पुरुषों और स्त्रियों के बीच जमीन-आसमान का अंतर रखा गया है। ऐसा हो तो शायद रुक जाए कन्याओं की हत्या कन्या भ्रूण हत्या जटिल मसला है। असल में इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी स्त्रियों की जागरूकता ही है, क्योंकि इस संदर्भ में निर्णय तो स्त्री को ही लेना होता है। दूसरी परेशानी कानून-व्यवस्था के स्तर पर है। यह जानते हुए भी कि भ्रूण का लिंग परीक्षण अपराध है, गली-मुहल्लों में ऐसे क्लिनिक चल रहे हैं जो लिंग परीक्षण और गर्भपात के लिए ही बदनाम हैं। जनता इनके बारे में जानती है, लेकिन सरकारी अमले आंखें मूंदे रहते हैं। भारत में इस समस्या से निबटना बहुत मुश्किल है, पर अगर स्त्रियां तय कर लें तो नामुमकिन तो नहीं ही है। साथ ही शिक्षा व्यवस्था ऐसी बनानी होगी कि बच्चों को लड़के-लड़की के बीच किसी तरह के भेदभाव का आभास न हो। वे एक-दूसरे को समान समझें और वैसा ही व्यवहार करें। महिला सशक्तिकरण महिला सशक्तिकरण के अंतर्गत महिलाओं से जुड़े सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और कानूनी मुद्दों पर संवेदनशीलता और सरोकार व्यक्त किया जाता है। सशक्तिकरण की प्रक्रिया में समाज को पारंपरिक पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण के प्रति जागरूक किया जाता है, जिसने महिलाओं की स्थिति को सदैव कमतर माना है। वैश्विक स्तर पर नारीवादी आंदोलनों औरयूएनडीपी आदि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने महिलाओं के सामाजिक समता, स्वतंत्रता और न्याय के राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। महिला सशक्तिकरण, भौतिक या आध्यात्मिक, शारिरिक या मानसिक, सभी स्तर पर महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है। महिला एवं बाल विकास विभाग, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा बच्चों के लिए राष्ट्रीय चार्टर पर जानकारी प्राप्त करें। प्रयोक्ता जीवन, अस्तित्व और स्वतंत्रता के अधिकार की तरह एक बच्चे के विभिन्न अधिकारों के बारे में पता लगा सकते हैं, खेलने और अवकाश, मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने के अधिकार, माता पिता की जिम्मेदारी के बारे में सूचना आदि, विकलांग बच्चों की सुरक्षा आदि के लिए भी सूचना प्रदान की गई है। महिला सशक्तिकरण की दिशा में हालांकि दुनिया के कई देश कई महत्वपूर्ण उपाय कांफी पहले कर चुके हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी महिलाओं के लिए संसदीय सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की जा चुकी है। लगता तो है कि अब भारतवर्ष में भी इस दिशा में कुछ रचनात्मक कदम उठाए जाने की तैयारी शुरु कर दी गई है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को आरक्षण दिया जाना और वह भी राजनीति जैसे उस क्षेत्र में जहां कि आमतौर पर पुरुषों का ही वर्चस्व देखा जाता है वास्तव में एक आश्चर्य की बात है। परंतु पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के इस सपने को साकार करने का जिस प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मन बनाया है तथा अपने कांग्रेस सांसदों को महिला आरक्षण के पक्ष में मतदान करने की अनिवार्यता सुनिश्चित करने हेतु व्हिप जारी किया है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी के शीर्ष पुरुष नेता भले ही भीतर ही भीतर इस बिल के विरोधी क्यों न हों परंतु सोनिया गांधी की मंशा भांपने के बाद फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस का कोई नेता राज्यसभा में इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद अब लोकसभा में इसके विरुध्द अपनी जुबान खोल सकेगा। बात जब देश की आधी आबादी के आरक्षण की हो तो भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस से लाख मतभेद होने के बावजूद ख़ुद को महिला आरक्षण विधेयक से अलग नहीं रख सकती लिहाजा पार्टी में कई सांसदों से मतभेदों के बावजूद भाजपा भी फिलहाल इस विधेयक के पक्ष में खड़ी दिखाई दे रही है। हालांकि इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि जिस प्रकार मनमोहन सिंह की पिछली सरकार के समय भारत अमेरिका के मध्य हुआ परमाणु क़रार मनमोहन सरकार के लिए एक बड़ी मुसीबत साबित हुआ था तथा उसी मुद्दे पर वामपंथी दलों ने यू पी ए सरकार से अपना समर्थन तक वापस ले लिया था। ठीक वैसी ही स्थिति महिला आरक्षण विधेयक को लेकर एक बार फिर देखी जा रही है। परंतु पिछली बार की ही तरह इस बार भी कांग्रेस के इरादे बिल्कुल सांफ हैं। ख़बर है कि एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने सोनिया गांधी से यह पूछा कि उन्हें लोकसभा में महिला आरक्षण की मंजूरी चाहिए या वे सरकार बचाना चाहेंगी। इस पर सोनिया गांधी ने भी स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें महिला आरक्षण की मंजूरी चाहिए। उक्त विधेयक को लेकर देश की संसद में पिछले दिनों क्या कुछ घटित हुआ यह भी पूरा देश व दुनिया देख रही है। रायसभा के 7 सांसदों को सभापति की मो पर चढ़ने तथा विधेयक की प्रति फाड़ने व सदन की गरिमा को आघात पहुंचाने के जुर्म में सदन से निलंबित तक होना पड़ा था। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी व लोक जनशक्ति पार्टी के इन सांसदों द्वारा महिला आरक्षण विधेयक के वर्तमान स्वरूप को लेकर जो हंगामा खड़ा किया जा रहा है वह भी हास्यास्पद है। इन दलों के नेता यह मांग कर रहे हैं कि 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के कोटे में ही दलितों, पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यकों की महिलाओं हेतु आरक्षण किया जाना चाहिए। अब यह शगूफा मात्र शगूंफा ही है या फिर इन पार्टियों के इस कदम में कोई हंकींकत भी है यह जानने के लिए अतीत में भी झाकना णरूरी होगा। महिलाओं के 33 प्रतिशत सामान्य आरक्षण की वकालत करने वाले लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव तथा रामविलास पासवान जैसे विधेयक के वर्तमान स्वरूप के विरोधियों से जब यह पूछते हैं कि आप लोग अपनी- अपनी पार्टियों के राजनैतिक अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक के किन्हीं पांच ऐसे सांसदों, विधायकों या विधान परिषद सदस्यों के नाम बताएं जिन्हें आप लोगों ने दलित, पिछड़ा तथा अल्पसंख्यक होने के नाते पार्टी प्रत्याशी के रूप में किसी सदन का सदस्य बनवाया हो। इसके जवाब में इन नेताओं के पास कहने को कुछ भी नहीं है। इसी से यह सांफ ज़ाहिर होता है कि दलितों, पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के नाम पर किया जाने वाला इनका हंगामा केवल हंगामा ही है हकीकत नहीं। दरअसल जो नेता महिला आरक्षण विधेयक का विरोध जाति के आधार पर कर रहे हैं उनकी मजबूरी यह है कि उनके हाथों से पिछड़ी जातियों व अल्पसंख्यकों के वह वोट बैंक तोी से खिसक रहे हैं जो उन्हें सत्ता मे लाने में सहयोगी हुआ करते थे। लिहाजा यह नेता पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की महिलाओं को अतिरिक्त आरक्षण दिए जाने के नाम पर महिला आरक्षण विधेयक का जो विरोध कर रहे हैं वह वास्तव में एक तीर से दो शिकार खेलने जैसा ही है। इन जातियों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद कर यह नेता जहां अपने खिसकते जनाधार को पुन: बचाना चाह रहे हैं वहीं इनकी यह कोशिश भी है कि किसी प्रकार उनके विरोध व हंगामे के चलते यह विधेयक पारित ही न होने पाए। और इस प्रकार राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व पूर्ववत् बना रहे। महिला आरक्षण विधेयक से जुड़ी तमाम और ऐसी सच्चाईयां हैं जिन्हें हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। हालांकि महिलाओं द्वारा आमतौर पर इस विषय पर ख़ुशी का इजहार किया जा रहा है। आरक्षण की ख़बर ने देश की अधिकांश महिलाओं में जोश भर दिया है। परंतु इन्हीं में कुछ शिक्षित व सुधी महिलाएं ऐसी भी हैं जो महिला आरक्षण को ग़ैर जरूरी और शोशेबाजी मात्र बता रही हैं। ऐसी महिलाओं का तर्क है कि महिला सशक्तिकरण का उपाय मात्र आरक्षण ही नहीं है। इसके अतिरिक्त और भी तमाम उपाय ऐसे हो सकते हैं जिनसे कि महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर महिलाओं हेतु नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए। महिलाओं पर होने वाले यौन उत्पीड़न संबंधी अपराध तथा दहेज संबंधी अपराधों में अविलंब एवं न्यायसंगत फैसले यथाशीघ्र आने चाहिएं तथा इसके लिए और सख्त कानून भी बनाए जाने चाहिए। कन्या भ्रुण हत्या को तत्काल पूरे देश में प्रतिबंधित किया जाना चाहिए तथा इसके लिए भी और सख्त कानून भी बनाए जाने की जरूरत है। खेलकूद में महिलाओं हेतु पुरुषों के बराबर की व्यवस्था की जानी चाहिए। सरकारी एवं गैर सरकारी नौकरियों में भी महिलाओं को आरक्षण दिया जाना चाहिए। और यह आरक्षण चूंकि देश की आधी आबादी के लिए दिया जाना है अत: इसे 33 प्रतिशत नहीं बल्कि 50 प्रतिशत किया जाना चाहिए। वृद्ध,बीमार तथा घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता व इन्हें आश्रय दिये जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। व्यवसाय हेतु महिलाओं को प्राथमिकता के आधार पर बैंक लोन मुहैया कराए जाने चाहिए। लिात पापड़ जैसी ग्राम उद्योग संस्था से सीख लेते हुए सरकार को भी इसी प्रकार के अनेक महिला प्रधान प्रतिष्ठान राष्ट्रीय स्तर पर संचालित करने चाहिए। रहा सवाल महिलाओं की सत्ता में भागीदारी हेतु संसद में महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत किए जाने का तो इसमें भी शक नहीं कि राजनीति में महिलाओं की आरक्षित भागीदारी निश्चित रूप से राजनीति में फैले भ्रष्टाचार में कमी ला सकेगी। संसद व विधानसभाओं में आमतौर पर दिखाई देने वाले उपद्रवपूर्ण दृश्यों में भी लगभग 33 प्रतिशत कमी आने की संभावना है। संसद में नोट के बंडल भी पहले से कम उछाले जाऐंगे। परंतु यह सब तभी संभव हो सकेगा जबकि देश की लोकसभा में उक्त विधेयक पेश होने की नौबत आ सके और उसके पश्चात लोकसभा इस विधेयक को दो-तिहाई मतों से पारित भी कर दे। और चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है इसलिए देश की आधी से अधिक अर्थात् लगभग 15 विधानसभाओं में भी इस विधेयक का पारित होना जरूरी होगा। चूंकि बात भारत में महिला सशक्तिकरण को लेकर की जा रही है इसलिए आज महिला आरक्षण के पक्ष में सबसे अधिक मुखरित दिखाई दे रही कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी से ही जुड़ी कुछ महिलाओं से संबंधित अतीत की ऐसी ही बातों का उल्लेख यहां करना संबध्द पक्षों को शायद बुरा तो बहुत लगेगा परंतु इतिहास ने समय के शिलालेख पर जो सच्चाई दर्ज कर दी है उससे भला कौन इंकार कर सकता है। याद कीजिए जब एक महिला अर्थात् सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के करीब थी उस समय सुषमा स्वराज व उमा भारती के क्या वक्तव्य थे। यह महिला नेत्रियां उस समय सोनिया गांधी के विरोध में अपने बाल मुंडवाने, भुने चने खाने व घर में चारपाई उल्टी कर देने जैसी बातें करती देखी जा रही थीं। आज भाजपा व कांग्रेस महिला आरक्षण के पक्ष में लगभग एकजुट दिखाई पड़ रहे हैं। इन दोनों ही पार्टियों को वे दिन भी नहीं भूलने चाहिए जबकि दिल्ली के सिख विरोधी दंगों के दौरान तथा गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार के संरक्षण में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों के दौरान न जाने कितनी औरतों के पेट फाड़कर उनके गर्भ से बच्चों को निकाल कर चिता में डाल दिया गया। अनेक महिलाओं को जीवित अग्नि के हवाले कर दिया गया। अनेकों के स्तन तलवारों से काट दिए गए। बड़े अफसोस की बात है कि महिलाओं पर यह अत्याचार भी इन्हीं राजनीति के विशेषज्ञों के इशारे पर किया गया था जो आज महिला सशक्तिकरण की बातें कर रहे हैं। और इसीलिए अविश्वसनीय से लगने वाले इस विधेयक को देखकर यह संदेह होना लाजमी है कि इसमें कितनी हकीकत है और कितना फसाना। बेटी बचाओ हमारा देस और समाज काफी प्रगति कर गया है और आगे कर भी रहा है लेकिन अभी भी स्त्रियो को जितना सम्मान मिलना चाहिए उतना नही मिलता है क्योकि उन्हें इतना महत्वपूर्ण नही समझा जाता है और इसी लिए गर्भ में ही उनकी हत्या कर दी जाती है लिंग परिक्षण करवाके लेकिन ऐसा नही करना चाहिए, यदि आप ऐसा सोचते है की बेटा होगा तो वह अधिक काम का होगा तो बहुत ही ग़लत सोचते है, बेटा हो या बेटी भगवान की इच्छा समझ के उसे ही स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योकि पहेले से ही किसी बात का अंदाजा लगा लेना बहुत उचित नही कहा जा सकता है, इसी से सम्बंधित मैं एक प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे आप को ऐसा लगे की कोई किसी से कम नही बस आपने परवरिस कैसे की है, देखभाल कैसे की है, सबकुछ इस पर आधार रखता है। हमारे देस की सक्रिय राजनीती में अभी भी एक परिवार खूब ही सक्रिय रूप से जुडा हुआ है जिसे गाँधी नेहरू परिवार के नाम से जाना जाता है, अब आप समझ गए होंगे की मेरा इशारा किस ओर है, जवाहर लाल नेहरू हारे देस के प्रथम प्रधानमंत्री है, इनके पिता का नाम मोतीलाल नेहरू था जो बारिस्टर थे जवाहर लाल नेहरू की एक ही संतान थी जो की पुत्री थी लेकिन हमें इतिहास में कही भी ऐसा नही पता चलता है की जवाहर लाल नेहरू को कभी भी इस बात से कोई समस्या रही हो की कोई बेटा क्यो नही हुआ क्या वो चाहते तो कोई बेटा गोद नही ले सकते थे या फिर कोई दूसरी शादी नही कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नही किया भगवन ने उन्हें जो दिया इस मामले नागरिक स्तर पर या व्यक्तिगत स्तर पर कोई विशेष प्रकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार राजनीति (पॉलिटिक्स) कहलाती है। अधिक संकीर्ण रूप से कहें तो शासन में पद प्राप्त करना तथा सरकारी पद का उपयोग करना राजनीति है। राजनीति में बहुत से रास्ते अपनाये जाते हैं जैसे- राजनीतिक विचारों को आगे बढ़ाना, कानून बनाना, विरोधियों के विरुद्ध युद्ध आदि शक्तियों का प्रयोग करना। राजनीति बहुत से स्तरों पर हो सकती है- गाँव की परम्परागत राजनीति से लेकर, स्थानीय सरकार, सम्प्रभुत्वपूर्ण राज्य या अन्तराष्ट्रीय स्तर पर। .

पूर्व एवं वर्तमान भरतीय नारी: एक सामाजिक परिवजन् और राजनीति के बीच समानता

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पूर्व एवं वर्तमान भरतीय नारी: एक सामाजिक परिवजन् और राजनीति के बीच तुलना

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