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पालि भाषा का साहित्य और बुद्धघोष

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

पालि भाषा का साहित्य और बुद्धघोष के बीच अंतर

पालि भाषा का साहित्य vs. बुद्धघोष

पालि साहित्य में मुख्यत: बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान् बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। किंतु इसका कोई भाग बुद्ध के जीवनकाल में व्यवस्थित या लिखित रूप धारण कर चुका था, यह कहना कठिन है। . बुद्धघोष, पालि साहित्य के एक महान भारतीय बौद्धाचार्य और विद्वान थे। .

पालि भाषा का साहित्य और बुद्धघोष के बीच समानता

पालि भाषा का साहित्य और बुद्धघोष आम में 5 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): धर्मकीर्ति, पालि भाषा, महावंश, विसुद्धिमग्ग, खुद्दकनिकाय

धर्मकीर्ति

धर्मकीर्ति (७वीं सती) भारत के विद्वान एवं भारतीय दार्शनिक तर्कशास्त्र के संस्थापकों में से थे। बौद्ध परमाणुवाद के मूल सिद्धान्तकारों में उनकी गणना की जाती है। वे नालन्दा में कार्यरत थे। सातवीं सदी के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति को यूरोपीय विचारक इमैनुअल कान्ट कहा था क्योंकि वे कान्ट की ही तरह ही तार्किक थे और विज्ञानबोध को महत्व देते थे। धर्मकीर्ति बौद्ध विज्ञानबोध के सबसे बड़े दार्शनिक दिंनाग के शिष्य थे। धर्मकीर्ति, प्रमाण के महापण्डित थे। प्रमाणवार्तिक उसका सबसे बड़ा एवं सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका प्रभाव भारत और तिब्बत के दार्शनिक चिन्तन पर पड़ा। इस पर अनेक भारतीय एवं तिब्बती विद्वानों ने टीका की है। वे योगाचार तथा सौत्रान्तिक सम्प्रदाय से भी सम्बन्धित थे। मीमांसा, न्याय, शैव और जैन सम्प्रदायों पर उनकी रचनाओं का प्रभाव पड़ा। .

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पालि भाषा

ब्राह्मी तथा भाषा '''पालि''' है। पालि प्राचीन उत्तर भारत के लोगों की भाषा थी। जो पूर्व में बिहार से पश्चिम में हरियाणा-राजस्थान तक और उत्तर में नेपाल-उत्तरप्रदेश से दक्षिण में मध्यप्रदेश तक बोली जाती थी। भगवान बुद्ध भी इन्हीं प्रदेशो में विहरण करते हुए लोगों को धर्म समझाते रहे। आज इन्ही प्रदेशों में हिंदी बोली जाती है। इसलिए, पाली प्राचीन हिन्दी है। यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में की एक बोली या प्राकृत है। इसको बौद्ध त्रिपिटक की भाषा के रूप में भी जाना जाता है। पाली, ब्राह्मी परिवार की लिपियों में लिखी जाती थी। .

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महावंश

महावंश एक महान इतिहास के लिखि पद्य है। महावंश (शाब्दिक अर्थ: महान इतिहास) पालि भाषा में लिखी पद्य रचना है। इसमें श्रीलंका के राजाओं का वर्नन है। इसमें कलिंग के राजा विजय (५४३ ईसा पूर्व) के श्रीलंका आगमन से लेकर राजा महासेन (334–361) तक की अवधि का वर्णन है। यह सिंहल का प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य है। भारत का शायद ही कोई प्रदेश हो, जिसका इतिहास उतना सुरक्षित हो, जितना सिंहल का; डब्ल्यू गेगर की इस सम्मति का आधार महावंस ही है। महान लोगों के वंश का परिचय करानेवाला होने से तथा स्वयं भी महान होने से ही इसका नाम हुआ "महावंस" (महावंस टीका)। इस टीका ग्रंथ की रचना "महानाम" स्थविर के हाथों हुई। आप दीघसंद सेनापति के बनाए विहार में रहते थे (महावंस टीका, पृ. 502)। दीघसंद सेनापति राजा देवानांप्रिय तिष्य का सेनापति था। "महावंस" पाँचवीं शताब्दी ई पू से चौथी शताब्दी ई तक लगभग साढ़े आठ सौ वर्षों का लेखा है। उसमें तथागत के तीन बार लंका आगमन का, तीनों बौद्ध संगीतियों का, विजय के लंका जीतने का, देवानांप्रिय तिष्य के राज्यकाल में अशोकपुत्र महेंद्र के लंका आने का, मगध से भिन्न भिन्न देशों में बौद्ध धर्म प्रचारार्थ भिक्षुओं के जाने का तथा बोधि वृक्ष की शाखा सहित महेंद्र स्थविर की बहन अशोकपुत्री संघमित्रा के लंका आने का वर्णन है। सिंहल के महापराक्रमी राजा दुष्टाग्रामणी से लेकर महासेन तक अनेक राजाओं और उनके राज्य काल का वर्णन है। इस प्रकार कहने को "महावंस" केवल सिंहल का इतिहासग्रंथ है, लेकिन वस्तुत: यह सारे भारतीय इतिहास की मूल उपादान सामग्री से भरा पड़ा है। "महावंस" की कथा महासेन के समय (325-352 ई) तक समाप्त हो जाती है। किंतु सिंहल द्वीप में इस "महावंस" का लिखा जाना आगे जारी रहा है। यह आगे का हिस्सा चूलवंस कहा जाता है। "महावंस" सैंतीसवें परिच्छेद की पचासवीं गाथा पर पहुँचकर एकाएक समाप्त कर दिया गया है। छत्तीस परिच्छेदों में प्रत्येक परिच्छेद के अंत में "सुजनों के प्रसाद और वैराग्य के लिये रचित महावंस का......परिच्छेद" शब्द आते हैं। सैंतीसवाँ परिच्छेद अधूरा ही समाप्त है। जिस रचयिता ने महावंस को आगे जारी रखा उसने इसी परिच्छेद में 198 गाथाएँ और जोड़कर इस परिच्छेद को "सात राजा" शीर्षक दिया। बाद के हर इतिहासलेखक ने अपने हिस्से के इतिहास को किसी परिच्छेद पर समाप्त न कर अगले परिच्छेद की भी कुछ गाथाएँ इसी अभिप्राय से लिखी प्रतीत होती हैं कि जातीय इतिहास को सुरक्षित रखने की यह परंपरा अक्षुण्ण बनी रहे। महानाम की मृत्यु के बाद महासेन (302 ई) के समय से दंबदेनिय के पंडित पराक्रमबाहु (1240-75) तक का महावंस धम्मकीर्ति द्वितीय ने लिखा। यह मत विवादास्पद है। उसके बाद से कीर्ति राजसिंह की मृत्यु (1815) के समय तक का इतिहास हिक्कडुवे सुमंगलाचार्य तथा बहुबंतुडावे पंडित देवरक्षित ने। 1833 में दोनों विद्वानों ने "महावंस"का एक सिंहली अनुवाद भी छापा। 1815 से 1935 तक का इतिहास यगिरल प्रज्ञानंद नायक स्थविर ने पूर्व परंपरा के अनुसार 1936 में प्रकाशित कराया। मूल महावंस की टीका के रचयिता का नाम भी महानाम है। किसी किसी का कहना है कि महावंस का रचयिता और टीकाकार एक ही है। पर यह मत मान्य नहीं हो सकता। महावंस टीकाकार ने अपनी टीका को "वंसत्थप्पकासिनी" नाम दिया है। इसकी रचना सातवीं आठवीं शताब्दी में हुई होगी। और स्वयं महावंस की? इसकी रचना महावंस टीका से एक दो शताब्दी पहले। धातुसेन नरेश का समय छठी शताब्दी है, उसी के आस पास इस महाकाव्य की रचना होनी चाहिए। .

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विसुद्धिमग्ग

विसुद्धिमग्ग (संस्कृत: विशुद्धिमार्ग .

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खुद्दकनिकाय

खुद्दकनिकाय (पालि भाषा:खुद्दक.

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सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब

पालि भाषा का साहित्य और बुद्धघोष के बीच तुलना

पालि भाषा का साहित्य 34 संबंध है और बुद्धघोष 15 है। वे आम 5 में है, समानता सूचकांक 10.20% है = 5 / (34 + 15)।

संदर्भ

यह लेख पालि भाषा का साहित्य और बुद्धघोष के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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