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पालि भाषा और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

पालि भाषा और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय के बीच अंतर

पालि भाषा vs. पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय

ब्राह्मी तथा भाषा '''पालि''' है। पालि प्राचीन उत्तर भारत के लोगों की भाषा थी। जो पूर्व में बिहार से पश्चिम में हरियाणा-राजस्थान तक और उत्तर में नेपाल-उत्तरप्रदेश से दक्षिण में मध्यप्रदेश तक बोली जाती थी। भगवान बुद्ध भी इन्हीं प्रदेशो में विहरण करते हुए लोगों को धर्म समझाते रहे। आज इन्ही प्रदेशों में हिंदी बोली जाती है। इसलिए, पाली प्राचीन हिन्दी है। यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में की एक बोली या प्राकृत है। इसको बौद्ध त्रिपिटक की भाषा के रूप में भी जाना जाता है। पाली, ब्राह्मी परिवार की लिपियों में लिखी जाती थी। . मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं का वाङ्मय भी कोशों से रहित नहीं था। पालि भाषा में अनेक कोश मिलते हैं। इन्हें 'बौद्धकोश' भी कहा गया है। उनकी मुख्य उपयोगिता पालि भाषा के बौद्ब-साहित्य के समझाने में थी। उनकी रचना पद्यबद्ध संस्कृतकोशों की अपेक्षा गद्यमय निघंटुओं के अधिक समीप है। बहुधा इनका संबंध विशेष ग्रंथों से रहा है। पालि का महाव्युत्पति कोश २८५ अध्यायों में लगभग नौ हजार श्लोकों का परिचय देनेवाला है। बौद्ध संप्रदाय के पारिभाषिक शब्दों का अर्थ देने के साथ-साथ पशु पक्षियों, वनस्पतियों और रोगों आदि के पर्यायों का इसमें संग्रह है। इसमें लगभग ९००० शब्द संकलित है। दूसरी और मुहावरों नामधातु के रूपों और वाक्यों के भी संकलन है। पाली का दूसरा विशेष महत्वपूर्ण कोश अभिधान प्रदीपिका (अभिधानप्पदीपिका) है। यह संस्कृत के अमरकोश की रचनाशैली की पद्धति पर तथा उसके अनुकरण पर छंदोबद्ध रूप में निर्मित है। 'अमरकोश' के अनेक श्लोकों का भी इसमें पालिरूपांतरण है। इसी प्रकार भिक्षु सद्धर्मकीर्ति के एकाक्षर कोश का भी नामोल्लेख मिलता है। प्राकृत भाषा में उपलब्ध कोशों की संख्या कम है। जैन भांडागारों से कुछ प्राकृत और अपभ्रंश के कोशों की विद्यमानता का पता चला है। धनपाल (समय ९७२ ई० से ९९७ ई० के बीच) विरचित 'पाइअलच्छीनाममाला' कदाचित् प्राकृत का सर्वप्राचीन उपलब्ध कोश है। इनके गद्यकाव्य 'तिलकमंजरी' के उल्लेखानुसार 'मुंजराज' ने इन्हे 'संरस्वती' उपाधि दी थी। गथाछंद में रचित, अध्यायविरहित इस कोश में क्रम से श्लोक, श्लोकार्ध और पद (चरण) एवं शब्द में पर्यायवाची शब्द निर्दिष्ट है। 'हेमचंद्र' ने अपने 'देशीनाममाला' में इसकी सहायता का टीका में उल्लेख किया है। हेमचंद्र रचित 'देशीनाममाला' नाम से प्रसिद्ध प्राकृत का महत्वपूर्ण और विख्यात कोश कहा जाता है। देश शब्द वस्तुतः प्राकृत का पर्याय नहीं है, उसकी सीमा में प्राकृत और अपभ्रंश का जो हेमचंद्र के समय तक उक्त भाषाओं के ग्रंथो में मिलते थे उन्हीं का संग्रह है। देशी से सामान्यतः आभास यह होता है कि जो शब्द संकृत तत्सम शब्दों से व्युत्पन्न न होकर तत्तत् देश की लौकिक भाषाओं के अव्युत्पन्न शब्द थे उन्हीं को देशी कहा गया है। देशज भी उन्हीं का परिचायक है। पंरतु तथ्य यह नहीं है। देशी, नाममाला के बहुत से शब्द देशज अवश्य है। परंतु जिन तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत तत्सर शब्दों से हेमचंद्र संबद्ध न कर सके उन्हें अव्युत्पन्न देशज शब्द मान लिया। प्राकृत के व्याकरण नियमों के अनुसार जिनकी तद्भवसिद्धि नहीं दिखाई जा सकी, उन्हीं को यहाँ देशी कहकर संकलित किया गया। परंतु 'देशीनाममाला' में ऐसे शब्दों की संख्या बहुत बड़ी है जो संस्कृत के तद्भव व्युत्पन्न शब्द है। चूँकि प्राकृत व्याकरणानुसार हेमचंद्र उनका संबंध, मूल संस्कृत शब्दों से जोड़ने में असमर्थ रहे अतः उन्हें देशी कह दिया। फलतः हम कह सकसे है कि देशी शब्द का यहाँ इतना ही अर्थ है कि उन शब्दों की व्युत्पत्ति का संबंध जीड़ने में हेमचंद्र का व्याकरणाज्ञान असमर्थ रहा। इनके अतिरिक्त दो देशी कोशों का भी उल्लेख मिलते है - एक सूत्नरूप में और दूसरा गोपाल कृत छंदोबद्ध। द्रोणकृत एक देशी कोश का नाम भी मिलता है। इसी तरह शिलांग का भी कोई देशी कोश रहा होगा। हेमचंद्र ने देशीनाममाला में अपना मतभेद और विरोध उक्त केशकार के मत के साथ प्रकट किया। हेमचंद्र के प्राकृत शब्दसमूह में उपलब्ध अनेक तत्पूर्ववर्ती देशी शब्दकोशकारों का उल्लेख मिलता है। हेमचंद्र ने ही जिन कोशकारों को सर्वाधिक महत्व दिया है उनमें राहुलक की रचना और पाद- लिप्ताचार्य का 'देशीकोश' कहा जाता है। 'जिनरत्ननकोश' में भी अनेक मध्यकालीन कोशग्रेथों के नाम मिलते हैं। अभिधानचिंमणिमाला संभवतः वही ग्रंथ है जिसे हेमचंद्र विरचित अभिधानचिंतामणि कहा गया और यह संस्कृत कोश है। विजयराजेंद्र सूरी (१९१३-१९२५ ई०) द्बारा संपदित, संकलित और निर्मित अभिधानराजेंद्र भी प्राकृत का एक बृहद् शब्दकोश है। पर तत्वतः यह जैनों के मत, धर्म और साहित्य का आधुनिक प्रणाली में रचित सात जिल्दों में ग्रथित महाकोश है। पृष्ठ संख्या भी इसकी लगभग दस हजार है। यह वस्तुतः विश्वकोशात्मक ज्ञानकोश की मिश्रित शैली का आधुनिक कोश है। .

पालि भाषा और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय के बीच समानता

पालि भाषा और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): प्राकृत, अभिधानप्पदीपिका

प्राकृत

सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र । इसकी रचना मूलतः तीसरी-चौथी शताब्दी ईसापूर्व में की गयी थी। भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है और उन भाषाओं में जो ग्रंथ रचे गए उन सबको समुच्चय रूप से प्राकृत साहित्य कहा जाता है। विकास की दृष्टि से भाषावैज्ञानिकों ने भारत में आर्यभाषा के तीन स्तर नियत किए हैं - प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन। प्राचीन स्तर की भाषाएँ वैदिक संस्कृत और संस्कृत हैं, जिनके विकास का काल अनुमानत: ई. पू.

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अभिधानप्पदीपिका

अभिधानप्पदीपिका (संस्कृत: अभिधानप्रदीपिका) पालि का प्राचीन शब्दकोश है। इसके रचयिता मोग्गल्लान थेरो हैं जिन्होने १२वीं शताब्दी में इसकी रचना की थी। इस पालिकोश की रचना संस्कृत के अमरकोश की रीति से हुई है और उसमें पालि के पर्यायवाची शब्दों का संकलन किया गया है। 'अमरकोश' के अनेक श्लोकों का भी इसमें पालिरूपांतरण है। इसमें स्वर्गकांड, भूकांड और श्रामणय कांड ऐसे तीन विभाग हैं। इसकी रचना प्रथम पराक्रमबाहु के शासनकाल (११५३-११८६) में हुई मानी जाती है। इस कोश पर १४वीं शती में रचित एक टीका भी मिलती है। .

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पालि भाषा और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय के बीच तुलना

पालि भाषा 42 संबंध है और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय 9 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 3.92% है = 2 / (42 + 9)।

संदर्भ

यह लेख पालि भाषा और पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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