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परशुराम और महाभारत

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

परशुराम और महाभारत के बीच अंतर

परशुराम vs. महाभारत

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक ब्राह्मण थे। उन्हें विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है। . महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

परशुराम और महाभारत के बीच समानता

परशुराम और महाभारत आम में 12 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): द्रोणाचार्य, पाण्डव, भीष्म, रामायण, विष्णु, इन्द्र, कर्ण, कौरव, कृष्ण, अत्रि, अर्जुन, अश्वत्थामा

द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। महाभारत की कथा के अनुसार महर्षि भरद्वाज एकबार नदी ने स्नान करने गए। स्नान के समाप्ति के बाद उन्होंने देखा की अप्सरा घृताची नग्न होकर स्नान कर रही है। यह देखकर वह कामातुर हो परे और उनके शिश्न से बीर्ज टपक पड़ा। उन्हीने ये बीर्ज एक द्रोण कलश में रखा, जिससे एक पुत्र जन्मा। दूसरे मत से कामातुर भरद्वाज ने घृताची से शारीरिक मिलान किया, जिनकी योनिमुख द्रोण कलश के मुख के समान थी। द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने का कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी द्रु, पद से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य का ने अपने धनुषर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये। .

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पाण्डव

पाण्डव महाभारत के मुख्य पात्र हैं। पाण्डव पाँच भाई थे - युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव। .

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भीष्म

भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म पितामह गंगा तथा शान्तनु के पुत्र थे। उनका मूल नाम देवव्रत था। इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य जैसी प्रतिज्ञा लेके मृत्यु को भी अपने अधीन कर लिया था। आज के समय मे ब्रह्मचारी कोई नही है। सब इन्द्रियों के ग़ुलाम है, और कहते है की स्वतंत्र है । इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं। भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के अनुसार हर तरह की शस्त्र विद्या के ज्ञानी और ब्रह्मचारी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया। इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसके कारण इन्होंने राजा बन सकने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत में उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदा था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। कहा जाता है कि द्रोपदी ने शरसय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से पूछा की उनकी आंखों के सामने चीर हरण हो रहा था और वे चुप रहे तब भीष्मपितामह ने जवाब दिया कि उस समय मै कौरवों के नमक खाता था इस वजह से मुझे मेरी आँखों के सामने एक स्त्री के चीरहरण का कोई फर्क नही पड़ा,परंतु अब अर्जुन ने बानो की वर्षा करके मेरा कौरवों के नमक ग्रहण से बना रक्त निकाल दिया है, अतः अब मुझे अपने पापों का ज्ञान हो रहा है अतः मुझे क्षमा करें द्रोपदी। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली। .

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रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

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विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

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इन्द्र

इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। .

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कर्ण

जावानी रंगमंच में कर्ण। कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है। कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थी। कर्ण का जन्म कुन्ती का पाण्डु के साथ विवाह होने से पूर्व हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। वह सूर्य पुत्र था। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी लेकिन कुल मिलाकर कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है। .

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कौरव

कौरव महाभारत के विशिष्ट पात्र हैं। कौरवों की संख्या १०० थी तथा वे सभी सहोदर थे। युधिष्ठिर के पुत्र लछमण कुमार की पत्नी गर्भवती थी उसका मायका मथुरा में था सीरीपत जी की पुत्री थी महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद वो अपने मायके चली गयी वहां कुलगुरु कृपाचार्य के वंशज रहते थे उन्होंने उस लड़की की रक्षा की कानावती से पुत्र कानकुंवर हुआ नौ पीढ़ी तक मथुरा में रहने के बाद विजय पाल ने बिहार स्टेट में वैशाली का राज किया जो अब मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर-ग्वालियर-भिंड-दतिया जबलपुर, विदिशा, भोपाल, रायसेन, होशंगाबाद, आदि जिलो में रहते हैं। .

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कृष्ण

बाल कृष्ण का लड्डू गोपाल रूप, जिनकी घर घर में पूजा सदियों से की जाती रही है। कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतित हुआ। बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। १२५ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है। .

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अत्रि

Atri (Sanskrit: अत्रि अत्री एक वैदिक ऋषि है, जो कि अग्नि, इंद्र और हिंदू धर्म के अन्य वैदिक देवताओं को बड़ी संख्या में भजन लिखने का श्रेय दिया जाता है। अत्री हिंदू परंपरा में सप्तर्षि (सात महान वैदिक ऋषियों) में से एक है, और सबसे अधिक ऋग्वेद में इसका उल्लेख है। ऋग्वेद के पांचवें मंडल (पुस्तक 5) को उनके सम्मान में अत्री मंडला कहा जाता है, और इसमें अस्सी और सात भजन उनके और उनके वंशज के लिए जिम्मेदार हैं। अत्री का पुराणों और हिंदू महाकाव्य जैसे रामायण और महाभारत में भी उल्लेख किया गया है। अत्रि गोत्र भार्गव ब्राह्मणों की शाखा है। ब्राह्मणों में श्रेष्ठतम अत्रि पूर्व में शिक्षण और तप किया करते थे। अत्रि गोत्रिय ब्राह्मण पूर्व काल से ही अन्य ब्राह्मणों की भांति केवल शैव, वैष्णव या शाक्त मत वाले नहीं है अपितु सभी मतों को मानने वाले हैं। अत्रि मुनि के अनुसार दिवसों, समय योग और औचित्य के अनुसार देव आराधना होनी चाहिए। Life (जीवन) अत्री सात महान ऋषि या सप्तर्षी में से एक है, जिसमें मरिची, अंगिरस, पुलाहा, क्रतु, पुलस्ट्य और वशिष्ठ शामिल हैं। वैदिक युग के पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋषि अत्री का अनसुया देवी से विवाह हुआ था। उनके तीन पुत्र थे, दत्तात्रेय, दुर्वासस और सोमा। दैवीय लेखा के अनुसार, वह सात सांपथीओं में से अंतिम है और माना जाता है कि वह जीभ से उत्पन्न हुआ है। अत्री की पत्नी अनुसूया थी, जिन्हें सात महिला पथरावों में से एक माना जाता है। जब दैवीय आवाज़ से तपस्या करने का निर्देश दिया जाता है, तो अत्री तुरंत सहमत हो गया और गंभीर तपस्या की। उनकी भक्ति और प्रार्थनाओं से प्रसन्नता, हिंदू त्रयी, अर्थात्, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया। उसने सभी तीनों को उसके पास जन्म लेने की मांग की पौराणिक कथाओं का एक और संस्करण बताता है कि अनसुया, उसकी शुद्धता की शक्तियों के द्वारा, तीन देवताओं को बचाया और बदले में, उनका जन्म बच्चों के रूप में हुआ था। ब्रह्मा का जन्म चंद्र के रूप में हुआ, विष्णु को दत्तात्रेय के रूप में और शिव के कुछ हिस्से में दुर्वासा के रूप में पैदा हुआ था। अत्री के बारे में उल्लेख विभिन्न शास्त्रों में पाया जाता है, जिसमें ऋगवेद में उल्लेखनीय अस्तित्व है। वह कई युगों से भी जुड़ा हुआ है, रामायण के दौरान त्रेता युग में उल्लेखनीय अस्तित्व है, जब वह और अनुसूया ने राम और उनकी पत्नी सीता को सलाह दी थी। इस जोड़ी को भी गंगा नदी को धरती पर लाने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, जिसका उल्लेख शिव पुराण में पाया जाता है। ऋग्वेद का द्रष्टा (Seer of Rig Veda) वह ऋग्वेद का पांचवां मंडल (पुस्तक 5) का द्रष्टा है। अत्री के कई पुत्र और शिष्यों ने ऋगवेद और अन्य वैदिक ग्रंथों के संकलन में योगदान दिया है। मंडल 5 में 87 भजन शामिल हैं, मुख्य रूप से अग्नि और इंद्र, लेकिन विस्वासदेव ("सभी देवताओं"), मारुत्स, जुड़वां-देवता मित्रा-वरुना और असिन्स के लिए। दो भजन उषाओं (सुबह में) और सावित्री के लिए। इस पुस्तक के अधिकांश भजन अत्रि कबीले संगीतकारों को दिया जाता है, जिन्हें अत्रेस कहा जाता है। ऋग्वेद के ये भजन भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में बनाये गये थे, जो कि लगभग 1500 -1200 बीसीई। ऋग्वेद के अत्री भजन उनके संगीत संबंधी संरचना के लिए महत्वपूर्ण हैं और पहेलियों के रूप में आध्यात्मिक विचारों को दर्शाने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इन भजनों में संस्कृत भाषा की लचीलेपन का उपयोग करने वाले लेक्सिकल, वाक्यविन्यास, रूपवाचक और क्रिया नाटक शामिल हैं। अत्री मंडल में ऋग्वेद का भजन 5.44 विद्वानों द्वारा माना जाता है जैसे कि गेल्डनर ऋग्वेद में सबसे कठिन पहेली भजन है। छंद, रूपकों के माध्यम से प्राकृतिक घटना की अपनी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के लिए भी जाना जाता है, जैसे भजन 5.80 में एक हंसमुख महिला के रूप में काव्य रूप से प्रारम्भ किया गया। जबकि पांचवी मंडल को अत्री और उसके सहयोगियों के लिए जिम्मेदार माना जाता है, ऋषि अत्री को अन्य मंडल में 10.137.4 के रूप में ऋग्वेद की कई अन्य छंदों का उल्लेख या श्रेय दिया गया है। रामयान में अध्याय रामायण में, राम, सीता और लक्ष्मण उनके आश्रम में अत्री और अनासूया का दौरा करते हैं। अत्री की झोपड़ी को चित्रकूट में वर्णित किया गया है, दिव्य संगीत और गीतों के साथ एक झील के पास, पानी, फूलों से भरा हुआ, कई "क्रेन, मछुआरों, फ्लोटिंग कछुए, हंस, बेडूक और गुलाबी हंस" के साथ। पुराणों अत्रियों नाम के कई संतों का उल्लेख विभिन्न मध्यकालीन युग पुराणों में किया गया है। अत्री में उस पौराणिक किंवदंतियां विविध और असंगत हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि यदि ये एक ही व्यक्ति, या अलग ऋषियों के समान है, जिनका नाम एक ही है। सांस्कृतिक प्रभाव बाएं से दाएं: अत्री, भृगु, विखानास, मारिची और कश्यप वैष्णववाद के भीतर वैश्यन्सास उप-परंपरा तिरुपति के निकट दक्षिण भारत में पाए गए, उनके धर्मशास्त्र को चार ऋषियों (ऋषियों), अर्थात् अत्री, मारीसी, भृगु और कश्यप को जमा करते हैं। इस परंपरा के प्राचीन ग्रंथों में से एक है अत्री संहिता, जो पांडुलिपियों के बेहद असंगत टुकड़ों में जीवित है। पाठ वैचारणा परंपरा के ब्राह्मणों के उद्देश्य से आचरण के नियम हैं। अत्री संहिता के जीवित हिस्सों का सुझाव है कि पाठ में अन्य बातों के बीच, योग और नैतिकता के बारे में चर्चा की गई थी, जैसे कि: आत्म संयम: अगर सामग्री या आध्यात्मिक दर्द दूसरों के द्वारा उत्पन्न होता है, और कोई नाराज नहीं होता है और बदला लेने की स्थिति में नहीं है, इसे दामा कहा जाता है। अन्य की स्त्री को माता समझना भी आत्म संयम में शामिल है। दान पुण्य: यहां तक ​​कि सीमित आय के साथ, कुछ को ध्यान में रखते हुए दैनिक और दैनिक उदारवाद के साथ दिया जाना चाहिए। इसे दाना कहा जाता है। करुणा: किसी को अपने स्वयं की तरह व्यवहार करना चाहिए, दूसरों के प्रति, अपने स्वयं के संबंधों और दोस्तों, जो उसे ईर्ष्या करते हैं, और यहां तक ​​कि अपने दुश्मन भी। इसे दया कहा जाता है। मन-वचन-कर्म से की गई अहिंसा भी करुणा के अंतर्गत आती है। - अत्री संहिता, एमएन दत्त द्वारा अनुवादित दक्षिण भारत में वैचारस एक महत्वपूर्ण समुदाय बना रहे हैं, और वे अपने वैदिक विरासत का पालन करते हैं। अत्रि हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं। वनवास काल में श्रीराम तथा माता सीता ने अत्रि आश्रम का भ्रमण किया था। इनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पतिव्रता धर्म का उपदेश दिया। अत्रि परंपरा के तीर्थ स्थलों में चित्रकूट, रामेश्वरम, मीनाक्षी अम्मन, तिरुपति बालाजी और हिंगलाज माता मंदिर(वर्तमान में पाकिस्तान) आदि हैं। श्रेणी:रामायण के पात्र श्रेणी:चित्र जोड़ें श्रेणी:हिन्दू पुराण आधार (अत्री/अत्रि, अत्रे/अत्रस्य/आत्रेय।अत्रिष/दत्तात्रे) " हरियाणा, पंजाब, जम्मू & कश्मीर, हिमाचल, उत्तरांचल, देहली, उतर-प्रदेश,चंडीगढ़, पश्चिम-बंगाल, महाराष्ट्र,गुजरात, मध्य प्रदेश के भिंड एवं ग्वालियर जिलों, गोवा,राजस्थान,केरल,तमिल, कर्णाटक, उड़ीसा, श्री-लंका,नेपाल, मलेशिया आदि स्थान पर "अत्री गोत्र" बस्ते हैं। अत्री ऋषि के अनेक पुत्र हुये, इनमें से तीन बड़े पुत्रओ के नाम 1. सोम 2. दुर्वासा 3. दत्ताअत्रे, सभी ब्राह्मण पुत्र हैं, चंद्रमा ओर चन्द्रमा से सभी अत्री हम "चंद्रवंसी" हैं। ओर बहुत प्राचीन समय में हमारी एक शाखा ने क्षत्रिये कर्म अपना लिया। ओर वो शाखा क्षत्रिये अत्रियों की हुई, उतर-प्रदेश में ह वो शाखा जो "अत्रि ऋषि के पुत्र सोम से ये शाखा सोम-राजपूतो की हुई, इसमें राणा ओर तोमर राजपूत आते हैं जो हमारे अत्रि भाई है, ये गाजियाबाद में 64 गांव ओर गौतमबुद्ध नगर(नोयडा) में 84 गांव में हैं ऒर सोम(राणा) अत्रि शामली-बड़ोत में 24 गांव में हैं,महाभारत से पहले अत्रियों के एक ओर शाखा के "यदु" नामक हमारे बड़े ने एक राज्य की स्थापना कि ओर उससे "यदु" अत्री कुल शरू किया ओर इस कुल को मानने वाले यादव हुये।16वीं शाताब्दी में अत्रियों की एक शाखा जाट जाति में आ गई। और ये शाखा राजस्थान,उतरप्रदेश ओर हरियाणा में है।हरियाणा के फरिदाबाद के मोहना और 2गांव पलवल में है।ये शाखा ज्यादा नही है। अब भी ब्राह्मणों वाली शाखा सबसे बड़ी है ओर पुरे हिंदुस्तान के साथ सभी हिन्दू देशो में है। अत्रि ऋषि ने "अत्रि स्मृति लिखी । SC-ST ने भी अत्री गौत्र को ग्रहण किया अत्री गोत्र लिखने लगे। ये पंजाब और जम्मु & कश्मीर में पाए जाते है। गौड़-सारस्वत-द्रविड़-तमिल-मैथली, अय्यर-अयंगर, नंबूदरीपाद, मोहयाल-चितपावन-पंडा-बरागी-डकोत-भूमिहार(बिहार) हम सब (हम सब भाई-भाई) 卐🚩ॐ🚩 वेद_उपनिषद_दर्शन_सारे, स्मृती_पुराण_इतिहास_हमारे ~~🚩ॐ🚩卐.

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अर्जुन

शिव अर्जुन को अस्त्र देते हुए। महाभारत के मुख्य पात्र हैं। महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे। द्रौपदी, कृष्ण और बलराम की बहन सुभद्रा, नाग कन्या उलूपी और मणिपुर नरेश की पुत्री चित्रांगदा इनकी पत्नियाँ थीं। इनके भाई क्रमशः युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव। .

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अश्वत्थामा

महाभारत युद्ध से पुर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानो में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे। वहाँ तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वय्मभू शिवलिंग है। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की। इनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। महाभारत युद्ध के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपूण थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पांडवों की सेना की हार देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कूटनीति सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया" जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने जवाब दिया-"अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी", परन्तु उन्होंने बड़े धीरे स्वर में "परन्तु हाथी" कहा, और झूट बोलने से बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्री कृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं कि "परन्तु हाथी" को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नहीं सुन पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युद्ध भूमि में आखें बन्द कर शोक अवस्था में बैठ गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की जीत होने लगी। इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने राजा दुर्योधन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन पानी को बान्धने की कला जानता था। सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब में घुस गया और पानी को बान्धकर छुप गया। दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पाण्डवो की जीत पक्की हो गई थी सभी पाण्डव खेमे के लोग जीत की खुशी में मतवाले हो रहे थे। अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिया था। युद्ध पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया। अश्वत्थामा ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित पर बह्मशीर्ष अस्त्र का प्रयोग किया। अश्वत्थामा अमर है और आज भी जीवित हैं। भगवान क्रष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोड रोग हो गया। आज भी वह जीवित है। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी अश्वत्थामा ने काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा। पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था। उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?” श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।” श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया। श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।” श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।” Draupadi and Ashvatthaman, Punjab Hills c. 1730 द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया। श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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परशुराम और महाभारत के बीच तुलना

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संदर्भ

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