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न्यायवाक्य और न्यायशास्त्र (भारतीय)

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

न्यायवाक्य और न्यायशास्त्र (भारतीय) के बीच अंतर

न्यायवाक्य vs. न्यायशास्त्र (भारतीय)

न्यायवाक्य या 'सिल्लोगिज्म' (syllogism) (यूनानी: συλλογισμός – "conclusion," "inference") एक विशेष प्रकार का तर्क करने का तरीका है जिसमें दो अन्य कथनों (premises) के आधार पर तीसरा कथन (अनुमान या निष्कर्ष /proposition) निकाला जाता है। अरस्तू ने सिल्लोजिज्म को इस प्रकार परिभाषित किया है - "वह शास्त्रार्थ (discourse) जिसमें कुछ चीजें (सत्य) मान लेने के बाद इनसे कुछ नया और भिन्न चीज व्युत्पन्न होती है, क्योंकि चींजे ही ऐसी हैं।" (In Aristotle's Prior Analytics, he defines syllogism as "a in which, certain things having been supposed, something different from the things' supposed results of necessity because these things are so." (24b18–20)) परम्परागत रूप से सिल्लोगिज्म ही निगमनात्मक अनुमान का आधार रहा है। (आगमनात्मक अनुमान के लिये नहीं, जिसमें बार-बार के प्रेक्षणों के आधार पर नया निष्कर्ष निकाला जाता है)। फ्रेग (Frege) के कृतियों के कारण सिल्लोजिज्म का क्व् बजाय 'प्रेडिकेट लॉजिक' का प्रयोग किया जाने लगा। . कृपया भ्रमित न हों, यह लेख न्यायशास्त्र (jurisprudence) के बारे में नहीं है। ---- वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन प्रथम सूत्र के भाष्य में "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय" कह कर यही भाव व्यक्त किया है। भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है: आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है- न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है। न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।; विशेष "न्याय" शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। (देखिये न्याय (दृष्टांत वाक्य)) वात्स्यायन ने उन्हें "परम न्याय" कहा है और वाद, जल्प तथा वितंडा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र) .

न्यायवाक्य और न्यायशास्त्र (भारतीय) के बीच समानता

न्यायवाक्य और न्यायशास्त्र (भारतीय) आम में एक बात है (यूनियनपीडिया में): न्याय (दृष्टांत वाक्य)

न्याय (दृष्टांत वाक्य)

संस्कृत में न्याय (नियन्ति अनेन; नि + इ + घं) का एक अर्थ समानता, सादृश्य, लोकरूढ़ नीतिवाक्य, उपयुक्त दृष्टान्त, निर्देशना (likeness, analogy, a popular maxim or apposite illustration) आदि होता है। अर्थात् कोई विलक्षण घटना सूचित करनेवाली उक्ति जो उपस्थित बात पर घटती हो, 'न्याय' कहलाती है। ऐसे दृष्टान्त वाक्यों (या कहावतों) का व्यवहार लोक में कोई प्रसंग आ पड़ने पर होता है। 'लोकन्याय' का अर्थ है, समाज में प्रचलित और सुप्रसिद्ध उदाहरणों को एक नाम दे देना और उचित स्थान पर उस नाम का उपयोग करके कम शब्दों में बड़ी बात कह देना। लोकरूढ नीतिवाक्यों के प्रयोग से कम शब्दों में और तर्कसम्मत ढंग से विचार व्यक्त करने में सुविधा होती है। संस्कृत में इनका प्रयोग व्याकरण और आयुर्वेद ग्रन्थों में हुआ है। शास्त्रों में जटिल बातों सरल तरीके से कहने की अन्य युक्तियाँ भी हैं, जैसे- तन्त्रयुक्ति, ताच्छील्य, अर्थाश्रय, कल्पना, वादमार्ग आदि। न्याय दो प्रकार के होते हैं - लौकिकन्याय तथा शास्त्रीयन्याय। संस्कृत में लौकिक न्याय की सूक्तियों के भी अनेक संग्रह-ग्रन्थ हैं। इनमें भुवनेश की लैकिकन्यायसाहस्री के अलावा लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्याय मुक्तावली, लौकिकन्यायकोश, लौकिकन्यायरत्नाकर आदि हैं। लौकिक न्याय संग्रह नामक ग्रंथ के कर्त्ता रघुनाथ हैं। इसमें ३६४ न्यायों की सूची हैं। .

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न्यायवाक्य और न्यायशास्त्र (भारतीय) के बीच तुलना

न्यायवाक्य 4 संबंध है और न्यायशास्त्र (भारतीय) 35 है। वे आम 1 में है, समानता सूचकांक 2.56% है = 1 / (4 + 35)।

संदर्भ

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