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नासिका

सूची नासिका

नासिका (nostril) या नास कुछ प्राणियों की नाक के अंत में शरीर से बाहर खुलने वाली दो नलियों में से एक को कहते हैं। पक्षियों और स्तनधारियों में नासिकाओं में उन्हें ढांचा प्रदान करने वाली हड्डियाँ या उपास्थियाँ होती हैं, और नासिकाएँ अंदर लिए जाने वाले श्वास को गरम करती हैं और बाहर जाने वाले श्वास से नमी हटाकर उसका जल शरीर से खोए जाने से रोकती हैं। मछलियाँ अपने नाक से श्वास नहीं लेतीं, हालांकि उनमें भी दो छोटे छिद्र होते हैं जिनका प्रयोग सूंघने के लिए किया जाता है। .

9 संबंधों: नाक, पक्षी, मछली, स्तनधारी, घ्राण तंत्र, गंधानुभूति, कोशिकीय श्वसन, अस्थि, उपास्थि

नाक

कुत्ते की नाक नाक रीढ़धारी प्राणियों में पाया जाने वाला छिद्र है। इससे हवा शरीर में प्रवेश करती है जिसका उपयोग श्वसन क्रिया में होता है। नाक द्वारा सूँघकर किसी वस्तु की सुगंध को ज्ञात किया जा सकता है। श्रेणी:अंग * श्रेणी:मानव सिर और गर्दन श्रेणी:श्वसन तंत्र श्रेणी:मुखाकृति श्रेणी:घ्राण तंत्र श्रेणी:ज्ञानेन्द्रियाँ.

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पक्षी

pages.

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मछली

अमरीकी प्रान्त जॉर्जिया के मछलीघर में एक विशालकाय ग्रूपर अन्य मछलियों के साथ तिरती हुई। मछली शल्कों वाला एक जलचर है जो कि कम से कम एक जोडा़ पंखों से युक्त होती है। मछलियाँ मीठे पानी के स्त्रोतों और समुद्र में बहुतायत में पाई जाती हैं। समुद्र तट के आसपास के इलाकों में मछलियाँ खाने और पोषण का एक प्रमुख स्रोत हैं। कई सभ्यताओं के साहित्य, इतिहास एवं उनकी संस्कृति में मछलियों का विशेष स्थान है। इस दुनिया में मछलियों की कम से कम 28,500 प्रजातियां पाई जाती हैं जिन्हें अलग अलग स्थानों पर कोई 2,18,000 भिन्न नामों से जाना जाता है। इसकी परिभाषा कई मछलियों को अन्य जलीय प्रणी से अलग करती है, यथा ह्वेल एक मछली नहीं है। परिभाषा के मुताबिक़, मछली एक ऐसी जलीय प्राणी है जिसकी रीढ़ की हड्डी होती है (कशेरुकी जन्तु), तथा आजीवन गलफड़े (गिल्स) से युक्त होती हैं तथा अगर कोई डालीनुमा अंग होते हैं (लिंब) तो वे फ़िन के रूप में होते हैं। alt.

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स्तनधारी

यह प्राणी जगत का एक समूह है, जो अपने नवजात को दूध पिलाते हैं जो इनकी (मादाओं के) स्तन ग्रंथियों से निकलता है। यह कशेरुकी होते हैं और इनकी विशेषताओं में इनके शरीर में बाल, कान के मध्य भाग में तीन हड्डियाँ तथा यह नियततापी प्राणी हैं। स्तनधारियों का आकार २९-३३ से.मी.

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घ्राण तंत्र

नासिका घ्राणतंत्र (Olfactory system) का अंग हैं। उसके भीतर की दोनों गुहाएँ नासासुरंग (nasal cauiities) कहलाती हैं। ये आगे की ओर नासाद्वारों से प्रारंभ होकर पीछे ग्रसनिका (pharynx) तक चली गई हैं। इन दोनों के बीच में एक विभाजक पटल है, जो ऊपर की ओर झर्झरिका (ethmoid) की मध्य प्लेट से ऊपर और नीचे की ओर वोमर (Vomer) या सीरिक अस्थि का बना हुआ है। इस फलक पर रोमक श्लेष्मल कला चढ़ी हुई है, जो नासा के पार्श्वों पर की काल से मिल जाती है। इस कला के फलक पर चढ़ हुए भाग के केवल ऊपरी क्षेत्र में ध्राणतंत्रिका के वे तंतु फैले हुए है जो गंध को ग्रहण करके मस्तिष्क में केंद्र तक पहुँचाते हैं। नासिका का बाहरी भाग ऊपर की ओर अस्थि का और नीचे का केवल मांसनिर्मित है, जो त्वचा से दबा हुआ है और नासापक्ष (Alanasii) कहलाता है। मध्य विभाजक फलक पर ऊपर नीचे सीप के आकार की मुड़ी हुई पतली पतली तीन अस्थियाँ लगी हुई हैं, जो ऊर्ध्व, मध्य और अधो शुक्तिभाएं (superior, middle and inferior turbinals) कहलाती हैं। ऊर्ध्व शुक्तिभा के ऊपर का स्थान जतूक झर्झरिका दरी (Sphero ethmoidal recess) कहा जाता है। उसके पीछे के भाग में जतूक वायुविवर का मुख खुलता है। ऊर्ध्व और मध्यशुक्तिभा के बीच में ऊर्ध्व कुहर (Superior meatus) हैं, जिसमें झर्झरिका के कुछ वायुकोष खुलते हैं। मध्य और अधोशुक्तिभा के बीच का गहरा और विस्तृत अत:स्थान मध्यकुहर (Middle meatus) हैं, जिसमें ललाटास्थि (Frontal) और अधोहन्वास्थि के वायुविवरों (air sinuses) के छिद्र स्थित हैं। दोनों विवरों में यहीं से वायु पहुंचती हैं। संक्रमण (infection) भी यहीं से पहुँचता है। अधोशुक्तिभा के नीचे का स्थान अधोकुहर कहा जाता है। यहाँ अधोशुक्तिभा के नीचे, उससे ढका हुआ नासानलिका (nasal duct) का छिद्र है। इस कारण वह शुक्तिभा को हटाने या काटने पर ही दिखाई देता है। इस सुरंग की छत संकुचित है, जहाँ नासा की पार्श्वभित्ति मध्यफलक से मिल जाती है। यहाँ से मध्यफलक के ऊपरी भाग में फैले हुए तंत्रिकातंतु झर्झरास्थि के सुषिर पट्ट (Cribriform Plate) में होकर ऊपर को घ्राणकंद (Olfactory bulb) में चले जाते हैं। नासिका, गुहा, मुख इत्यादि की काट; 1: Olfactory bulb 2: Mitral cells 3: Bone 4: Nasal Epithelium 5: Glomerulus 6: Olfactory receptor cells नासिका का काम गंध का ज्ञान करना है, जो घ्राणक्रिया द्वारा होता है। गंध का अनुभव करना उपर्युक्त उन तंत्रिकातंतुओं का काम है जो मध्यफलक पर आच्छादित श्लेष्मल कला के ऊर्ध्व भाग में फैले हुए हैं। जब किसी वस्तु का घ्राण संबंधी ज्ञान प्राप्त करना होता है तब उसके भिन्न-भिन्न शक्ति के विलयन बना लिए जाते हैं और उनको पृथक्-पृथक् परीक्षण नलिकाओं में भरकर, सबसे अधिक शक्ति का विलयन पहले सुँघाया जाता है। फिर कम शक्ति के विलयन सुंघाए जाते हैं। इस प्रकर वह न्यनतम मात्रा मालूम की जाती है, जिसको व्यक्ति सूँघ सकता है। जब व्यक्ति साधारण जल और विलयन की गंध में अंतर नहीं कर पाता तो उससे पहले की मात्रा न्यूनतम होती है। ऐसे ही प्रयोगों द्वारा मालूम किया गया है कि जाफरान की 1/10,00,00,000 रत्ती को सूँघा जा सकता है। .

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गंधानुभूति

गंधानुभूति किसी गंध को इन्द्रियबोध द्वारा ग्रहण करने की प्रक्रिया है। श्रेणी:बोध श्रेणी:गंधानुभूति श्रेणी:गंध.

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कोशिकीय श्वसन

सजीव कोशिकाओं में भोजन के आक्सीकरण के फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होने की क्रिया को कोशिकीय श्वसन कहते हैं। यह एक केटाबोलिक क्रिया है जो आक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति दोनों ही अवस्थाओं में सम्पन्न हो सकती है। इस क्रिया के दौरान मुक्त होने वाली ऊर्जा को एटीपी नामक जैव अणु में संग्रहित करके रख लिया जाता है जिसका उपयोग सजीव अपनी विभिन्न जैविक क्रियाओं में करते हैं। यह जैव-रासायनिक क्रिया पौधों एवं जन्तुओं दोनों की ही कोशिकाओं में दिन-रात हर समय होती रहती है। कोशिकाएँ भोज्य पदार्थ के रूप में ग्लूकोज, अमीनो अम्ल तथा वसीय अम्ल का प्रयोग करती हैं जिनको आक्सीकृत करने के लिए आक्सीजन का परमाणु इलेक्ट्रान ग्रहण करने का कार्य करता है। कोशिकीय श्वसन एवं श्वास क्रिया में अभिन्न सम्बंध है एवं ये दोनों क्रियाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। श्वांस क्रिया सजीव के श्वसन अंगों एवं उनके वातावरण के बीच होती है। इसके दौरान सजीव एवं उनके वातावरण के बीच आक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड गैस का आदान-प्रदान होता है तथा इस क्रिया द्वारा आक्सीजन गैस वातावरण से सजीवों के श्वसन अंगों में पहुँचती है। आक्सीजन गैस श्वसन अंगों से विसरण द्वारा रक्त में प्रवेश कर जाती है। रक्त परिवहन का माध्यम है जो इस आक्सीजन को शरीर के विभिन्न भागों की कोशिकाओं में पहुँचा देता है। वहाँ इसका उपयोग कोशिकाएँ अपने कोशिकीय श्वसन में करती हैं। श्वसन की क्रिया प्रत्येक जीवित कोशिका के कोशिका द्रव्य (साइटोप्लाज्म) एवं माइटोकाण्ड्रिया में सम्पन्न होती है। श्वसन सम्बन्धित प्रारम्भिक क्रियाएँ साइटोप्लाज्म में होती है तथा शेष क्रियाएँ माइटोकाण्ड्रियाओं में होती हैं। चूँकि क्रिया के अंतिम चरण में ही अधिकांश ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। इसलिए माइटोकाण्ड्रिया को कोशिका का श्वसनांग या शक्ति-गृह (पावर हाउस) कहा जाता है। .

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अस्थि

अस्थियाँ या हड्डियाँ रीढ़धारी जीवों का वह कठोर अंग है जो अन्तःकंकाल का निर्माण करती हैं। यह शरीर को चलाने (स्थानांतरित करने), सहारा देने और शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा करने मे सहायता करती हैं साथ ही यह लाल और सफेद रक्त कोशिकाओं का निर्माण करने और खनिज लवणों का भंडारण का कार्य भी करती हैं। अस्थियाँ विभिन्न आकार और आकृति की होने के साथ वजन मे हल्की पर मजबूत होती हैं। इनकी आंतरिक और बाहरी संरचना जटिल होती है। अस्थि निर्माण का कार्य करने वाले प्रमुख ऊतकों मे से एक उतक को खनिजीय अस्थि ऊतक, या सिर्फ अस्थि ऊतक भी कहते हैं और यह अस्थि को कठोरता और मधुकोशीय त्रिआयामी आंतरिक संरचना प्रदान करते हैं। अन्य प्रकार के अस्थि ऊतकों मे मज्जा, अन्तर्स्थिकला और पेरिओस्टियम, तंत्रिकायें, रक्त वाहिकायें और उपास्थि शामिल हैं। वयस्क मानव के शरीर में 206 हड्डियों होती हैं वहीं एक शिशु का शरीर २७० अस्थियों से मिल कर बनता है। .

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उपास्थि

सूक्ष्मदर्शी से देखने पर केटिलेज उपास्थि मानव शरीर एवं अन्य प्राणियों में पाया जाने वाला लचीला संयोजी उत्तक है। यह हमारी मज्जा में स्थापित कॉन्ड्रोसाइट्स कोशिकाओं से बने होते हैं। कान की हड्डी, नाक की हड्डी, अस्थियों के जोड़ आदि उपास्थि के बने हैं। उपास्थि की संरचना के अनुसार ये कोलेजन या एलॉस्टिन के बने होते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं- हाइलीन उपास्थि, एलास्टिक और फाइब्रो उपास्थि। उपास्थि शरीर के ऊतकों को मजबूत बनाने का काम करते हैं। ये हमारे शरीर के जोड़ों को लचीला भी बनाते हैं। इसकी मौजूदगी की वजह से ही हमारे शरीर के कई अंग सुचारू रूप से काम करते हैं। उपास्थि रक्त वाहिकाओं से जुड़े नहीं होते बल्कि इनके अंदर पोषक तत्व बिखरा रहता है। आमतौर पर ये लचीले होते हैं लेकिन जरूरत और प्रकार के हिसाब से इनकी प्रकृति में अंतर होता है। कुछ ऐसे अंग जिनमें उपास्थि पाया जाता है, वे हैं- कान, नाक, पंजर और इंटरवर्टीब्रल डिस्क। तीन तरह के उपास्थि में हाइलीन को ही आमतौर पर उपास्थि कहा जाता है क्योंकि शरीर में ज्यादातर हाइलीन उपास्थि ही होता है। यह हड्डियों को जोड़ों में बांटता है ताकि वे मुड़कर सहजता से काम कर सकें। हाइलीन उपास्थि आमतौर पर कोलेजन फाइबर का बना होता है। लोचदार उपास्थि बाकी अन्य उपास्थि से ज्यादा लचीले होते हैं क्योंकि इनमें एलॉस्टिन फाइबर पाया जाता है। इस तरह का उपास्थि कान के बाहरी हिस्से (जिसे लैरिक्स कहते हैं) और यूस्टेशियन ट्यूब में मौजूद होता है। लचीला होने के कारण यह इन अंगों की संरचना को बेहतर संतुलित करता है, जिससे कान में बाहर रहने वाली गोलाकार संरचना खुली रह सके। फाइब्रो उपास्थि तीनों उपास्थि में सबसे अधिक मजबूत और दृढ़ संरचना वाला होता है। इसमें हाइलीन उपास्थि से ज्यादा टाइप वन कोलेजन होते हैं, जो टाइप सेकेंड से ज्यादा मजबूत होते हैं। फाइब्रो उपास्थि अंतरवर्टीबल डिस्क का निर्माण करते हैं। इसके अलावा ये शिराओं और अस्थिमज्जा को हड्डियों से जोड़ने का काम भी करते हैं। हाइलीन उपास्थि क्षतिग्रस्त होने पर फाइब्रो उपास्थि में बदल जाते हैं। हालांकि दृढ़ता की वजह से इन उपास्थि का वजन कम होता है। .

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