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जॉन राल्स

सूची जॉन राल्स

जॉन रॉल्स (John Bordley Rawls; 21 फ़रवरी 1921 – 24 नवम्बर 2002) बीसवीं सदी के महानतम नैतिक विचारक व अमेरिकी उदारवाद के दार्शनिक थे। उन्होंने 1971 में अपनी पुस्तक 'अ थिअरी ऑफ जस्टिस' (A Theory of Justice) का प्रकाशन करके राजनीतिक चिन्तन के पुनरोदय के द्वार खोल दिए। इस पुस्तक के कारण रॉल्स को राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में वही स्थान प्राप्त हें जो प्लेटो, एक्विनॉस, कॉण्ट, कार्ल मार्क्स तथा मैकियावेली को प्राप्त है। रॉल्स के आगमन से राजनीतिक चिन्तन की शास्त्रीय परम्परा का पुनरोदय हुआ है। रॉल्स ने राजनीतिक चिन्तन की डूबती नाव को बचाकर अपना नाम राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में सुनहरी अक्षरों में लिखवाने का गौरव प्राप्त है। उनकी रचना 'अ थिअरी ऑफ जस्टिस' ने उदारवाद को नई दिशा व चेतना प्रदान की है।गॉर्डन, डेविड (२८ जुलाई २००८) (अंग्रेज़ी में), द अमेरिकन कंजरवेटिव इस पुस्तक में ‘सामाजिक न्याय’ की संकल्पना विकसित करके रॉल्स ने एक आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण का मार्ग तैयार किया है।कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोसपी, "राल्स, जॉन," कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस, पृ॰ 774-775.

7 संबंधों: निकोलो मैकियावेली, प्लेटो, सामाजिक न्याय, कार्ल मार्क्स, अ थिअरी ऑफ जस्टिस, उदारतावाद, उपयोगितावाद

निकोलो मैकियावेली

मैकियावेली की प्रतिकृति निकोलो मैकियावेली (Niccolò di Bernardo dei Machiavelli) (३ मई १४६९ - २१ जून १५२७) इटली का राजनयिक एवं राजनैतिक दार्शनिक, संगीतज्ञ, कवि एवं नाटककार था। पुनर्जागरण काल के इटली का वह एक प्रमुख व्यक्तित्व था। वह फ्लोरेंस रिपब्लिक का कर्मचारी था। मैकियावेली की ख्याति (कुख्याति) उसकी रचना द प्रिंस के कारण है जो कि व्यावहारिक राजनीति का महान ग्रन्थ स्वीकार किया जाता है। मैकियावेली आधुनिक राजनीति विज्ञान के प्रमुख संस्थापकों में से एक माने जाते हैं। वे एक कूटनीतिज्ञ, राजनीतिक दार्शनिक, संगीतज्ञ, कवि और नाटककार थे। सबसे बड़ी बात कि वे फ्लोरिडा गणराज्य के नौकरशाह थे। 1498 में गिरोलामो सावोनारोला के निर्वासन और फांसी के बाद मैकियावेली को फ्लोरिडा चांसलेरी का सचिव चुना गया। लियानार्डो द विंसी की तरह, मैकियावेली पुनर्जागरण के पुरोधा माने जाते हैं। वे अपनी महान राजनीतिक रचना, द प्रिंस (राजनीतिक शास्त्र), द डिसकोर्स और द हिस्ट्री के लिए मशहूर हुए जिनका प्रकाशन उनकी मृत्यु (1532) के बाद हुआ, हालांकि उन्होंने निजी रूप इसे अपने दोस्तों में बांटा। एकमात्र रचना जो उनके जीवनकाल में छपी वो थी द आर्ट ऑफ वार.

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प्लेटो

प्लेटो (४२८/४२७ ईसापूर्व - ३४८/३४७ ईसापूर्व), या अफ़्लातून, यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था। वह सुकरात (Socrates) का शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) का गुरू था। इन तीन दार्शनिकों की त्रयी ने ही पश्चिमी संस्कृति की दार्शनिक आधार तैयार किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही है। .

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सामाजिक न्याय

एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय (social justice) की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वर्ग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ। विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी अभिव्यक्तियों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसका अर्थ हमेशा सुस्पष्ट ही होता है। सिद्धांतकारों ने इस प्रत्यय का अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल किया है। व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में भी, भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक गोलबंदी का एक प्रमुख आधार रहा है। उदारतावादी मानकीय राजनीतिक सिद्धांत में उदारतावादी-समतावाद से आगे बढ़ते हुए सामाजिक न्याय के सिद्धांतीकरण में कई आयाम जुड़ते गये हैं। मसलन, अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद, मूल निवासियों के अधिकार आदि। इसी तरह, नारीवाद के दायरे में स्त्रियों के अधिकारों को ले कर भी विभिन्न स्तरों पर सिद्धांतीकरण हुआ है और स्त्री-सशक्तीकरण के मुद्दों को उनके सामाजिक न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा है। यद्यपि एक विचार के रूप में विभिन्न धर्मों की बुनियादी शिक्षाओं में सामाजिक न्याय के विचार को देखा जा सकता है, लेकिन अधिकांश धर्म या सम्प्रदाय जिस व्यावहारिक रूप में सामने आये या बाद में जिस तरह उनका विकास हुआ, उनमें कई तरह के ऊँच-नीच और भेदभाव जुड़ते गये। समाज-विज्ञान में सामाजिक न्याय का विचार उत्तर-ज्ञानोदय काल में सामने आया और समय के साथ अधिकाधिक परिष्कृत होता गया। क्लासिकल उदारतावाद ने मनुष्यों पर से हर तरह की पुरानी रूढ़ियों और परम्पराओं की जकड़न को ख़त्म किया और उसे अपने मर्जी के हिसाब से जीवन जीने के लिए आज़ाद किया। इसके तहत हर मुनष्य को स्वतंत्रता देने और उसके साथ समानता का व्यवहार करने पर ज़ोर ज़रूर था, लेकिन ये सारी बातें औपचारिक स्वतंत्रता या समानता तक ही सिमटी हुई थीं। बाद में उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कई उदारतावादियों ने राज्य के हस्तक्षेप द्वारा व्यक्तियों की आर्थिक भलाई करने और उन्हें अपनी स्वतंत्रता को उपभोग करने में समर्थ बनाने की वकालत की। कई यूटोपियाई समाजवादियों ने भी एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव न होता हो। स्पष्टतः इन सभी विचारों में सामाजिक न्याय के प्रति गहरा सरोकार था। इसके बावजूद मार्क्स ने इन सभी विचारों की आलोचना की और ज़ोर दिया कि न्याय जैसी अवधारणा की आवश्यकता पूँजीवाद के भीतर ही होती है क्योंकि इस तरह की व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा जमाये कुछ लोग बहुसंख्यक सर्वहारा का शोषण करते हैं। उन्होंने क्रांति के माध्यम से एक ऐसी व्यवस्था कायम करने का लक्ष्य रखा जहाँ हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार काम करने और अपनी आवश्यकता के अनुसार चीज़ें हासिल करने की परिस्थितियाँ प्राप्त हों। लेकिन बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मार्क्सवाद और उदारतावाद का जो व्यावहारिक रूप सामने आया, वह उनके आश्वासनों जैसा न हो कर विकृत था। मार्क्सवाद से प्रेरित रूसी क्रांति के कुछ वर्षों बाद ही स्तालिनवाद की सर्वसत्तावादी संरचनाएँ उभरने लगीं। वहीं उदारतावाद और पूँजीवाद ने आंतरिक जटिलताओं के कारण दुनिया को दो विश्व-युद्धों, महामंदी, फ़ासीवाद और नाज़ीवाद जैसी भीषणताओं में धकेल दिया। पूँजीवाद को संकट से उबारने के लिए पूँजीवादी देशों में क्लासिकल उदारतावादी सूत्र से लेकर कींसवादी नीतियों तक हर सम्भव उपाय अपनाने की कोशिश की गयी। इस पूरे संदर्भ में सामाजिक न्याय की बातें नेपथ्य में चली गयीं या सिर्फ़ इनका दिखावे के तौर पर प्रयोग किया गया। इसी दौर में उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ चलने वाले संघर्षों में मानव-मुक्ति और समाज के कमज़ोर तबकों के हकों आदि की बातें ज़ोरदार तरीके से उठायी गयीं। ख़ास तौर पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सभी तबकों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गम्भीर बहस चली। इस बहस से ही समाज के वंचित तबकों के लिए संसद एवं नौकरियों में आरक्षण, अल्पसंख्यकों को अपनी आस्था के अनुसार अधिकार देने और अपनी भाषा का संरक्षण करने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी। बाद में ये सहमतियाँ भारतीय संविधान का भाग बनीं। इसी के साथ-साथ मानकीय उदारतावादी सिद्धांत में राज्य द्वारा समाज के कुछ तबकों की भलाई या कल्याण के लिए ज़्यादा आय वाले लोगों पर टैक्स लगाने का मसला विवादास्पद बना रहा। कींस ने पूँजीवाद को मंदी से उबारने के लिए राज्य के हस्तक्षेप के ज़रिये रोज़गार पैदा करने के प्रावधानों का सुझाव दिया, लेकिन फ़्रेड्रिख़ वान हायक, मिल्टन फ़्रीडमैन और बाद में रॉबर्ट नॉज़िक जैसे विद्वानों ने आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप की आलोचना की। इन लोगों का मानना था कि इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता और आर्थिक आज़ादी को चोट पहुँचती है। जॉन रॉल्स ने 1971 में अपनी किताब अ थियरी ऑफ़ जस्टिस में ताकतवर दलीलें दीं आख़िर क्यों समाज के कमज़ोर तबकों की भलाई के लिए राज्य को सक्रिय हस्तक्षेप करना चाहिए। अपनी थियरी में रॉल्स शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए वितरणमूलक न्याय के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं। अपने न्याय के सिद्धांत में उन्होंने हर किसी को समान स्वतंत्रता के अधिकार की तरफ़दारी की। इसके साथ ही भेदमूलक सिद्धांत के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि सामाजिक और आर्थिक अंतरों को इस तरह समायोजित किया जाना चाहिए कि इससे सबसे वंचित तबके को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हो। बाद के वर्षों में रॉल्स के सिद्धांत की कई आलोचनाएँ भी सामने आयीं, जो दरअसल सामाजिक न्याय के संदर्भ कई नये आयामों का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस संदर्भ में समुदायवादियों और नारीवादियों की द्वारा की गयी आलोचनाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। समुदायवादियों ने सामान्य तौर पर उदारतावाद और विशेष रूप से रॉल्स के सिद्धांत की इसलिए आलोचना की कि इसमें व्यक्ति की अणुवादी संकल्पना पेश किया गया है। रॉल्स जिस व्यक्ति की संकल्पना करते हैं वह अपने संदर्भ और समुदाय से पूरी तरह कटा हुआ है। बाद में, 1980 के दशक के आख़िरी वर्षों में, उदारतावादियों ने समुदायवादियों की आलोचनाओं को उदारतावाद के भीतर समायोजित करने की कोशिश की जिसके परिणामस्वरूप बहुसंस्कृतिवाद की संकल्पना सामने आयी। इसमें यह माना गया कि अल्पसंख्यक समूहों के साथ वास्तविक रूप से तभी न्याय हो सकता है, जब उन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े विविध पहलुओं की हिफ़ाज़त करने और उन्हें सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने की आज़ादी मिले। इसके लिए यह ज़रूरी है कि इनके सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाए। इस तरह सैद्धांतिक विमर्श के स्तर पर बहुसंस्कृतिवाद ने सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। यहाँ उल्लेखनीय है कि साठ के दशक से ही पश्चिम में नारीवादी आंदोलन, नागरिक अधिकार आंदोलन, गे, लेस्बियन और ट्रांस-जेंडर आंदोलन और पर्यावरण आंदोलन आदि उभरने लगे थे। बाद के दशकों में इनका प्रसार ज़्यादा बढ़ा और इन्होंने सैद्धांतिक विमर्श को भी गहराई प्रदान की। मसलन, नारीवादियों ने उदारतावाद और रॉल्सवादी रूपरेखा की आलोचना की। अपने विश्लेषण द्वारा उन्होंने पितृसत्ता को नारीवादियों के समान हक के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट के रूप में रेखांकित किया। इसी तरह, गे, लेस्बियन और ट्रांस- जेंडर लोगों ने समाज में ‘सामान्य’ या ‘नार्मल’ की वर्चस्वी रूपरेखा पर सवाल उठाया और अपने लिए समान स्थिति की माँग की। नागरिक अधिकार आंदोलनों द्वारा पश्चिम में, ख़ास तौर पर अमेरिकी समाज में काले लोगों ने अपने लिए बराबरी की माँग की। मूल निवासियों ने भी अपने सांस्कृतिक अधिकारों की माँग करते हुए बहुत सारे आंदोलन किये हैं। बहुसंस्कृतिवादियों ने अपनी सैद्धांतिक रूपरेखा में इन सभी पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। इन सभी पहलुओं ने सामाजिक न्याय के अर्थ में कई नये आयाम जोड़े हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विविध समूहों के लिए सामाजिक न्याय का अलग-अलग अर्थ रहा है। असल में विकासशील समाजों में पश्चिमी समाजों की तुलना में सामाजिक न्याय ज़्यादा रैडिकल रूप में सामने आया है। मसलन, दक्षिण अफ़्रीका में अश्वेत लोगों ने रंगभेद के ख़िलाफ़ और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए ज़ोरदार संघर्ष किया। इस संघर्ष की प्रकृति अमेरिका में काले लोगों द्वारा चलाये गये संघर्ष से इस अर्थ में अलग थी कि दक्षिण अफ़्रीका में काले लोगों को ज़्यादा दमनकारी स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। इस संदर्भ में भारत का उदाहरण भी उल्लेखनीय है। बहुसंस्कृतिवाद ने जिन सामुदायिक अधिकारों पर जोर दिया उनमें से कई अधिकार भारतीय संविधान में पहले से ही दर्ज हैं। लेकिन यहाँ सामाजिक न्याय वास्तविक राजनीति में संघर्ष का नारा बन कर उभरा। मसलन, भीमराव आम्बेडकर और उत्पीड़ित जातियों और समुदायों के कई नेता समाज के हाशिये पर पड़ी जातियों कोशिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करते हुए अपने न्यायपूर्ण हक को हासिल करने की विरासत रच चुके थे। इसी तरह पचास और साठ के दशक में राममनोहर लोहिया ने इस बात पर जोर दिया कि पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को एकजुट होकर सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करना चाहिए। लोहिया चाहते थे कि ये समूह एकजुट होकर सत्ता और नौकरियों में ऊँची जातियों के वर्चस्व को चुनौती दें। इस पृष्ठभूमि के साथ नब्बे के दशक के बाद सामाजिक न्याय भारतीय राजनीति का एक प्रमुख नारा बनता चला गया। इसके कारण अभी तक सत्ता से दूर रहे समूहों को सत्ता की राजनीति के केंद्र में आने का मौका मिला। ग़ौरतलब है कि भारत में भी पर्यावरण के आंदोलन चल रहे हैं। लेकिन ये लड़ाइयाँ स्थानीय समुदायों के अपने ‘जल, जंगल और जमीन’ के संघर्ष से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह विकासशील समाजों में अल्पसंख्यक समूह भी अपने ख़िलाफ़ पूर्वग्रहों से लड़ते हुए अपने लिए ज़्यादा बेहतर सुविधाओं की माँग कर रहे हैं। इस अर्थ में सामाजिक न्याय का संघर्ष लोगों के अस्तित्व और अस्मिता से जुड़ा हुआ संघर्ष है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक न्याय के नारे ने विभिन्न समाजों में विभिन्न तबकों को अपने लिए गरिमामय ज़िंदगी की माँग करने और उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है। सैद्धांतिक विमर्श में भी यूटोपियाई समाजवाद से लेकर वर्तमान समय तक सामाजिक न्याय में बहुत सारे आयाम जुड़ते गये हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि विकसित समाजों की तुलना में विकासशील समाजों में सामाजिक न्याय का संघर्ष बहुत जटिलताओं से घिरा रहा है। अधिकांश मौकों पर इन समाजों में लोगों को सामाजिक न्याय के संघर्ष में बहुत ज़्यादा संरचात्मक हिंसा और कई मौकों पर राज्य की हिंसा का भी सामना करना पड़ा है। लेकिन सामाजिक न्याय के लिए चलने वाले संघर्षों के कारण इन समाजों में बुनियादी बदलाव हुए हैं। कुल मिला कर समय के साथ सामाजिक न्याय के सिद्धांतीकरण में कई नये आयाम जुड़े हैं और एक संकल्पना या नारे के रूप में इसने लम्बे समय तक ख़ामोश या नेपथ्य में रहने वाले समूहों को भी अपने के लिए जागृत किया है। .

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कार्ल मार्क्स

कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818 - 1883) जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता थे। इनका जन्म 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) के एक यहूदी परिवार में हुआ। 1824 में इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। 17 वर्ष की अवस्था में मार्क्स ने कानून का अध्ययन करने के लिए बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। तत्पश्चात्‌ उन्होंने बर्लिन और जेना विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन किया। इसी काल में वह हीगेल के दर्शन से बहुत प्रभावित हुए। 1839-41 में उन्होंने दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर शोध-प्रबंध लिखकर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात्‌ 1842 में मार्क्स उसी वर्ष कोलोन से प्रकाशित 'राइनिशे जीतुंग' पत्र में पहले लेखक और तत्पश्चात्‌ संपादक के रूप में सम्मिलित हुआ किंतु सर्वहारा क्रांति के विचारों के प्रतिपादन और प्रसार करने के कारण 15 महीने बाद ही 1843 में उस पत्र का प्रकाशन बंद करवा दिया गया। मार्क्स पेरिस चला गया, वहाँ उसने 'द्यूस फ्रांजोसिश' जारबूशर पत्र में हीगेल के नैतिक दर्शन पर अनेक लेख लिखे। 1845 में वह फ्रांस से निष्कासित होकर ब्रूसेल्स चला गया और वहीं उसने जर्मनी के मजदूर सगंठन और 'कम्युनिस्ट लीग' के निर्माण में सक्रिय योग दिया। 1847 में एजेंल्स के साथ 'अंतराष्ट्रीय समाजवाद' का प्रथम घोषणापत्र (कम्युनिस्ट मॉनिफेस्टो) प्रकाशित किया 1848 में मार्क्स ने पुन: कोलोन में 'नेवे राइनिशे जीतुंग' का संपादन प्रारंभ किया और उसके माध्यम से जर्मनी को समाजवादी क्रांति का संदेश देना आरंभ किया। 1849 में इसी अपराघ में वह प्रशा से निष्कासित हुआ। वह पेरिस होते हुए लंदन चला गया जीवन पर्यंत वहीं रहा। लंदन में सबसे पहले उसने 'कम्युनिस्ट लीग' की स्थापना का प्रयास किया, किंतु उसमें फूट पड़ गई। अंत में मार्क्स को उसे भंग कर देना पड़ा। उसका 'नेवे राइनिश जीतुंग' भी केवल छह अंको में निकल कर बंद हो गया। कोलकाता, भारत 1859 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष 'जुर क्रिटिक दर पोलिटिशेन एकानामी' नामक पुस्तक में प्रकाशित किये। यह पुस्तक मार्क्स की उस बृहत्तर योजना का एक भाग थी, जो उसने संपुर्ण राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लिखने के लिए बनाई थी। किंतु कुछ ही दिनो में उसे लगा कि उपलब्ध साम्रगी उसकी योजना में पूर्ण रूपेण सहायक नहीं हो सकती। अत: उसने अपनी योजना में परिवर्तन करके नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में दास कैपिटल (द कैपिटल, हिंदी में पूंजी शीर्षक से प्रगति प्रकाशन मास्‍को से चार भागों में) के नाम से प्रकाशित किया। 'द कैपिटल' के शेष भाग मार्क्स की मृत्यु के बाद एंजेल्स ने संपादित करके प्रकाशित किए। 'वर्गसंघर्ष' का सिद्धांत मार्क्स के 'वैज्ञानिक समाजवाद' का मेरूदंड है। इसका विस्तार करते हुए उसने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या और बेशी मूल्य (सरप्लस वैल्यू) के सिद्धांत की स्थापनाएँ कीं। मार्क्स के सारे आर्थिक और राजनीतिक निष्कर्ष इन्हीं स्थापनाओं पर आधारित हैं। 1864 में लंदन में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' की स्थापना में मार्क्स ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ की सभी घोषणाएँ, नीतिश् और कार्यक्रम मार्क्स द्वारा ही तैयार किये जाते थे। कोई एक वर्ष तक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा, किंतु बाकुनिन के अराजकतावादी आंदोलन, फ्रांसीसी जर्मन युद्ध और पेरिस कम्यूनों के चलते 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो गया। किंतु उसकी प्रवृति और चेतना अनेक देशों में समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के अस्तित्व के कारण कायम रही। 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो जाने पर मार्क्स ने पुन: लेखनी उठाई। किंतु निरंतर अस्वस्थता के कारण उसके शोधकार्य में अनेक बाधाएँ आईं। मार्च 14, 1883 को मार्क्स के तूफानी जीवन की कहानी समाप्त हो गई। मार्क्स का प्राय: सारा जीवन भयानक आर्थिक संकटों के बीच व्यतीत हुआ। उसकी छह संतानो में तीन कन्याएँ ही जीवित रहीं। .

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अ थिअरी ऑफ जस्टिस

अ थिअरी ऑफ जस्टिस (A Theory of Justice; न्याय का सिद्धान्त) अमेरिकी राजनीतिक विचारक जॉन राल्स द्वारा रचित राजनीतिक दर्शन एवं नीतिशास्त्र (एथिक्स) की पुस्तक है। इसका प्रकाशन १९७१ में हुआ था तथा १९७५ और १९९९ में इसके संशोधित संस्करण प्रकाशित हुए। .

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उदारतावाद

उदारवाद (Liberalism) वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत मनुष्य को विवेकशील प्राणी मानते हुए सामाजिक संस्थाओं को मनुष्यों की सूझबूझ और सामूहिक प्रयास का परिणाम समझा जाता है। जॉन लॉक को उदारवाद के जनक माना जाता है। आरंभिक उन्नायकों में एडम स्मिथ और जेरमी बेंथम के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उदारतावाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थन का राजनैतिक दर्शन है। वर्तमान विश्व में यह अत्यन्त प्रतिष्ठित धारणा है। पूरे इतिहास में अनेकों दार्शनिकों ने इसे बहुत महत्व एवं मान दिया। .

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उपयोगितावाद

उपयोगितावाद (Utilitarianism) एक आचार सिद्धांत है जिसकी एकांतिक मान्यता है कि आचरण (action) एकमात्र तभी नैतिक है जब वह अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख की अभिवृद्धि करता है। राजनीतिक तथा अन्य क्षेत्रों में इसका संबंध मुख्यत: बेंथम (1748-1832) तथा जान स्टुअर्ट मिल (1806-73) से रहा है। परंतु इसका इतिहास और प्राचीन है, ह्यूम जैसे दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित, जो उदारता को ही सबसे महान गुण मानते थे तथा व्यक्तिविशेष के व्यवहार से दूसरों के सुख में वृद्धि ही उदारता का मापदंड समझते थे। उपयोगितावाद के संबंध में प्राय: कुछ अस्पष्ट ओछी धारणाएँ हैं। इसके आलोचकों का कहना है कि यह सिद्धांत, सुंदरता, शालीनता एवं विशिष्टता की उपेक्षा कर केवल उपयोगिता को महत्व देता है। पूर्वपक्ष का इसपर यह आरोप है कि यह केवल लौकिक स्वार्थ को महत्व देता है। किंतु ऐसी आलोचना सर्वथा समुचित नहीं कही जा सकती। ड .

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