जैन दर्शन और जैन धर्म के बीच समानता
जैन दर्शन और जैन धर्म आम में 12 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): तत्त्वार्थ सूत्र, तीर्थंकर, निर्जरा, महावीर, मोक्ष (जैन धर्म), सत्य, संवर, कर्म बन्ध, अहिंसा, अजीव, उमास्वामी, ऋषभदेव।
तत्त्वार्थ सूत्र
तत्त्वार्थसूत्र, जैन आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित एक जैन ग्रन्थ है। इसे 'तत्त्वार्थ-अधिगम-सूत्र' तथा 'मोक्ष-शास्त्र' भी कहते हैं। संस्कृत भाषा में लिखा गया यह प्रथम जैन ग्रंथ माना जाता है। इसमें दस अध्याय तथा ३५० सूत्र हैं। उमास्वामी सभी जैन मतावलम्बियों द्वारा मान्य हैं। उनका जीवनकाल द्वितीय शताब्दी है। आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गयी एक प्रमुख टीका है। .
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तीर्थंकर
जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति हैं जिन्होनें पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की हो)। तीर्थंकर को इस नाम से कहा जाता है क्योंकि वे "तीर्थ" (पायाब), एक जैन समुदाय के संस्थापक हैं, जो "पायाब" के रूप में "मानव कष्ट की नदी" को पार कराता है। .
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निर्जरा
निर्जरा जैन दर्शन के अनुसार एक तत्त्व हैं। इसका अर्थ होता है आत्मा के साथ जुड़े कर्मों का शय करना। यह जन्म मरण के चक्र से मुक्त होने के लिए आवश्यक हैं। आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र का ९ अध्याय इस विषय पर हैं। निर्जरा संवर के पश्चात् होती हैं। जैन ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह के अनुसार कर्म आत्मा को धूमिल करते देते हैं, निर्जरा से आत्मा फिर निर्मलता को प्राप्त होती हैं।Nemichandra, p. 94 .
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महावीर
भगवान महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें (२४वें) तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। १२ वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। ७२ वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिम्बिसार, कुनिक और चेटक भी शामिल थे। जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर-जयंती तथा उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूम धाम से मनाया जाता है। जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और ऋषभदेव पहले। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए।महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धांत है। .
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मोक्ष (जैन धर्म)
सिद्धशिला जहाँ सिद्ध (जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है) विराजते है का एक चित्र जैन धर्म में मोक्ष का अर्थ है पुद्ग़ल कर्मों से मुक्ति। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव (आत्मा) जन्म मरण के चक्र से निकल जाता है और लोक के अग्रभाग सिद्धशिला में विराजमान हो जाती है। सभी कर्मों का नाश करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। मोक्ष के उपरांत आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त शक्ति) में आ जाती है। ऐसी आत्मा को सिद्ध कहते है। मोक्ष प्राप्ति हर जीव के लिए उच्चतम लक्ष्य माना गया है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र से इसे प्राप्त किया जा सकता है। जैन धर्म को मोक्षमार्ग भी कहा जाता है। .
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सत्य
सत्य (truth) के अलग-अलग सन्दर्भों में एवं अलग-अलग सिद्धान्तों में सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। .
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संवर
संवर जैन दर्शन के अनुसार एक तत्त्व हैं। इसका अर्थ होता है कर्मों के आस्रव को रोकना। जैन सिद्धांत सात तत्त्वों पर आधारित हैं। इनमें से चार तत्त्व- आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा कर्म सिद्धांत के स्तम्भ हैं। .
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कर्म बन्ध
कर्म-बन्ध का अर्थ है आत्मा के साथ कर्म पुद्गल का जुड़ना। कर्म बन्ध कर्मों के आस्रव के बाद होता हैं। यह जैन दर्शन के अनुसार सात तत्त्वों में से एक हैं। .
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अहिंसा
अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवंम हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म:(अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था। .
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अजीव
अजीव शब्द का अर्थ होता हैं जिसमें जान न हो। कुर्सी मेज, पन्ना आदि अजीव वस्तु के उदहारण हैं। जैन दर्शन के अनुसार यह सात तत्त्वों में से एक तत्त्व हैं। .
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उमास्वामी
आचार्य उमास्वामी, कुन्दकुन्द स्वामी के प्रमुख शिष्य थे। वह मुख्य जैन ग्रन्थ, तत्त्वार्थ सूत्र के लेखक है। वह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों के द्वारा पूजे जाते हैं। वह दूसरी सदी के एक गणितज्ञ थे। .
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ऋषभदेव
ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर (जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दिगम्बर जैन मुनि थे। .
सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब
- क्या जैन दर्शन और जैन धर्म लगती में
- यह आम जैन दर्शन और जैन धर्म में है क्या
- जैन दर्शन और जैन धर्म के बीच समानता
जैन दर्शन और जैन धर्म के बीच तुलना
जैन दर्शन 28 संबंध है और जैन धर्म 131 है। वे आम 12 में है, समानता सूचकांक 7.55% है = 12 / (28 + 131)।
संदर्भ
यह लेख जैन दर्शन और जैन धर्म के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें: