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जयदेव और विद्यापति

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

जयदेव और विद्यापति के बीच अंतर

जयदेव vs. विद्यापति

भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ जयदेव के लिए देखें, जयदेव (गणितज्ञ) ---- बसोहली चित्र (1730 ई) गीत गोविन्द जयदेव (१२०० ईस्वी के आसपास) संस्कृत के महाकवि हैं जिन्होंने गीत गोविंद और रतिमंजरी की रचना की। जयदेव, उत्कल राज्य यानि ओडिशा के गजपति राजाओं के समकालीन थे। जयदेव एक वैष्णव भक्त और संत के रूप में सम्मानित थे। उनकी कृति ‘गीत गोविन्द’ को श्रीमद्‌भागवत के बाद राधाकृष्ण की लीला की अनुपम साहित्य-अभिव्यक्ति माना गया है। संस्कृत कवियों की परंपरा में भी वह अंतिम कवि थे, जिन्होंने ‘गीत गोविन्द’ के रूप में संस्कृत भाषा के मधुरतम गीतों की रचना की। कहा गया है कि जयदेव ने दिव्य रस के स्वरूप राधाकृष्ण की रमणलीला का स्तवन कर आत्मशांति की सिद्धि की। भक्ति विजय के रचयिता संत महीपति ने जयदेव को श्रीमद्‌भागवतकार व्यास का अवतार माना है। . विद्यापति भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के भी प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव, शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की शृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं। .

जयदेव और विद्यापति के बीच समानता

जयदेव और विद्यापति आम में 3 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): शृंगार रस, संस्कृत भाषा, गीतगोविन्द

शृंगार रस

श्रृंगार रस रसों में से एक प्रमुख रस है। यह रति भाव को दर्शाता है। .

जयदेव और शृंगार रस · विद्यापति और शृंगार रस · और देखें »

संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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गीतगोविन्द

गीतगोविन्द की पाण्डुलिपि (१५५० ई) गीतगोविन्द (ଗୀତ ଗୋବିନ୍ଦ) जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर १११६ ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। ‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं। अतः डॉ॰ ए॰ बी॰ कीथ ने अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में इसे ‘अप्रतिम काव्य’ माना है। सन् 1784 में विलियम जोन्स द्वारा लिखित (1799 में प्रकाशित) ‘ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दूज’ (एसियाटिक रिसर्चेज, खंड-3) पुस्तक में गीतगोविन्द को 'पास्टोरल ड्रामा' अर्थात् ‘गोपनाट्य’ के रूप में माना गया है। उसके बाद सन् 1837 में फ्रेंच विद्वान् एडविन आरनोल्ड तार्सन ने इसे ‘लिरिकल ड्रामा’ या ‘गीतिनाट्य’ कहा है। वान श्रोडर ने ‘यात्रा प्रबन्ध’ तथा पिशाल लेवी ने ‘मेलो ड्रामा’, इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटानिका (खण्ड-5) में गीतगोविन्द को ‘धर्मनाटक’ कहा गया है। इसी तरह अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसके सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। जर्मन कवि गेटे महोदय ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और मेघदूतम् के समान ही गीतगोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है। किन्तु नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थ सूची, भाग-इ’ में गीतगोविन्द का 13वाँ सर्ग भी उपलब्ध है। परन्तु यह मातृका अर्वाचीन प्रतीत होती है। गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक आदृत है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है। शृंगार रस वर्णन में जयदेव कालिदास की परम्परा में आते हैं। गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है। आगे चलकर गीतगोविन्द के अनेक ‘अनुकृति’ काव्य रचे गये। अतः जयदेव ने स्वयं १२वें सर्ग में लिखा है - कुम्भकर्ण प्रणीत ‘रसिकप्रिया’ टीका आदि में इसकी पुष्टि की गयी है। .

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जयदेव और विद्यापति के बीच तुलना

जयदेव 14 संबंध है और विद्यापति 29 है। वे आम 3 में है, समानता सूचकांक 6.98% है = 3 / (14 + 29)।

संदर्भ

यह लेख जयदेव और विद्यापति के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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