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घनास्रता

सूची घनास्रता

दाएँ पैर का तीव्र धमनीजन्य घनास्रता किसी रक्तवाहिका के अन्दर रक्त के जम जाने (तरल के बजाय ठोस बन जाने (clotting)) फलस्वरूप रक्त के प्रवाह को बाधित करने को 'घनास्रता' (थ्रोम्बोसिस/Thrombosis) कहते हैं। जब कहीं कोई रक्तवाहिका क्षतिग्रस्त हो जाती है तो प्लेटलेट्स और फाइब्रिन मिलकर रक्त का थक्का बनाकर रक्त की हानि को रोक देते हैं। किन्तु घनास्रता इससे अलग है। रक्तवाहिनियों के बिना क्षतिग्रस्त हुए भी कुछ स्थितियों में वाहिकाओं के अन्दर रक्त का थक्का बन सकता है। यदि थक्का बहुत तीव्र है और वह वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर गतिमान है तो ऐसे थक्के को वाहिकारोधी (embolus) कहते हैं। घनास्रता और वाहिकारोधी दोनो विद्यमान हों तो इसे 'थ्रोम्बोइम्बोलिज्म' (Thromboembolism) कहते हैं। .

11 संबंधों: धमनी, प्रसव, फेफड़ा, रक्त, शल्यचिकित्सा, शिरा, शोथ, वाहिकारोध, आघात, अस्थि मज्जा, अस्थिभंग

धमनी

धमनियां वे रक्त वाहिकाएं होती हैं, जो हृदय से रक्त को आगे पहुंचाती हैं। पल्मोनरी एवं आवलनाल धमनियों के अलावा सभी धमनियां ऑक्सीजन-युक्त रक्त लेजाती हैं। .

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प्रसव

प्रसव का अर्थ होता है जनन या बच्चे को जन्म देना। गर्भावस्था के निर्धारित काल पूरा होने पर बच्चे का जन्म बिना किसी अवरोध (रूकावट) के ही होना साधारण और सरल जन्म कहलाता है। बच्चे के जन्म को ध्यान से देखने पर यह महसूस होता है कि बच्चे के जन्म लेने की विधि को हम तीन भागों में बांट सकते हैं। प्रथम भाग में बच्चेदानी का मुंह खुलना और फैलना, दूसरे भाग में बच्चे में सिर का दिखाई पड़ना और तीसरा भाग जिसमें औवल बाहर आता है। प्रथम भाग बच्चे के जन्म का प्रथम चरण लगभग 10 से 12 घंटे या अधिक समय का होता है। प्रथम चरण का समय इस बात पर निर्भर करता है कि महिला का कौन सा बच्चा है। पहले बच्चे में यह चरण अधिक समय लेता है। दूसरे बच्चे में कम तथा तीसरे बच्चे में और कम समय लगता है। प्रथम चरण में योनि की दीवारों का पतला होना, फैलना, खिंचना और धीरे-धीरे करके बच्चे के सिर का खिसकना होता है। योनि का फैला और खिंचा हुआ भाग धीरे-धीरे बच्चेदानी के मुंह को आगे आने में मदद करता है। इस चरण के साथ ही एक चिकना पदार्थ भी निकलता है जो कि एक झिल्ली के समान होता है जिसको शो कहते हैं। कभी-कभी सुकुचन जे साथ-साथ एमनीओटिक सैक फट जाता है तथा एमनीओटिक द्रव निकलने लगता है। दूसरा भाग बच्चे के जन्म के दूसरे चरण में बच्चेदानी का दबाव प्रत्येक दो-दो मिनट बाद होता है तथा आधे या एक मिनट तक रहता है। इस दबाव के कारण बच्चा धीरे-धीरे नीचे ढकेला जाता है। इस चरण में बच्चे का सिर देखा जा सकता है। इसके बाद योनि धीरे-धीरे सिमटते हुए परतों के रूप में एक परत दूसरे के ऊपर चढ़ती रहती है। साधारणतया बच्चे का सिर ऊपर की ओर तथा उसका धड़ नीचे की ओर होता है। कभी-कभी दर्द के साथ बच्चे को निकालने के लिए पेट से भी बच्चे को हल्के हाथों से दबाया जाता है। इस चरण में महिला को लम्बी सांस का व्यायाम लाभकारी होता है। क्योंकि सांस को रोककर ही महिला का जोर लगाना पड़ता है। कई बार बच्चों को निकालने के लिए औजारों का भी प्रयोग किया जाता है। बच्चे का जन्म होते समय जब बच्चा बाहर आता है मां को ऐसा महसूस होता है कि जैसे कि उनके शरीर से मल बाहर आ रहा हो। प्रसव के समय सबसे पहले बच्चे का सिर बहर आता है। फिर एक कंधा, दूसरा कंधा तथा बाद में पूरा धड़ बाहर निकल आता है इस प्रकार के बच्चे के जन्म लेते ही दूसरा चरण पूरा हो जाता है। गाय के बच्चे के प्रसव के अनेक चरण .

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फेफड़ा

ग्रे की मानव शारीरिकी'', 20th ed. 1918. हवा या वायु में सांस लेने वाले प्राणियों का मुख्य सांस लेने के अंग फेफड़ा या फुप्फुस (जैसा कि इसे वैज्ञानिक या चिकित्सीय भाषा मे कहा जाता है) होता है। यह प्राणियों में एक जोडे़ के रूप मे उपस्थित होता है। फेफड़े की दीवार असंख्य गुहिकाओं की उपस्थिति के कारण स्पंजी होती है। यह वक्ष-गुहा में स्थित होता है। इसमें लहू का शुद्धीकरण होता है। प्रत्येक फेफड़ा में एक फुफ्फुसीय शिरा हिया से अशुद्ध लहू लाती है। फेफड़े में लहू का शुद्धीकरण होता है। लहू में ऑक्सीजन का मिश्रण होता है। फेफडो़ का मुख्य काम वातावरण से प्राणवायु लेकर उसे लहू परिसंचरण मे प्रवाहित (मिलाना) करना और लहू से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर उसे वातावरण में छोड़ना है। गैसों का यह विनिमय असंख्य छोटे छोटे पतली-दीवारों वाली वायु पुटिकाओं जिन्हें अल्वियोली कहा जाता है मे होता है। यह शुद्ध लहू फुफ्फुसीय धमनी द्वारा हिया में पहुँचता है, जहां से यह फिर से शरीर के विभिन्न अवयवों मे पम्प किया जाता है। .

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रक्त

मानव शरीर में लहू का संचरण लाल - शुद्ध लहू नीला - अशु्द्ध लहू लहू या रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो लहू वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता (अनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली (Phagocytosis) में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है (In 7 steps)। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। मनुष्यों में लहू ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। एटीजंस से लहू को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्तदान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए, बी, ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नहीं होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ-वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता तथा एबी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु एबी रक्त वाले को एबी रक्त ही दिया जाता है। जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। लहू का pH मान 7.4 होता है कार्य.

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शल्यचिकित्सा

अति प्राचीन काल से ही चिकित्सा के दो प्रमुख विभाग चले आ रहे हैं - कायचिकित्सा (Medicine) एवं शल्यचिकित्सा (Surgery)। इस आधार पर चिकित्सकों में भी दो परंपराएँ चलती हैं। एक कायचिकित्सक (Physician) और दूसरा शल्यचिकित्सक (Surgeon)। यद्यपि दोनों में ही औषधो पचार का न्यूनाधिक सामान्यरूपेण महत्व होने पर भी शल्यचिकित्सा में चिकित्सक के हस्तकौशल का महत्व प्रमुख होता है, जबकि कायचिकित्सा का प्रमुख स्वरूप औषधोपचार ही होता है। .

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शिरा

परिसंचरण तंत्र में, शिरायें वे रक्त वाहिकायें हैं जो रक्त को हृदय की ओर ले जाती हैं। पल्मोनरी और अम्बलिकल शिरा के छोड़कर जिनमें ऑक्सीजेनेटेड (ऑक्सीजन मिला हुआ) रक्त बहता है, अधिकतर शिरायें ऊतकों से डीऑक्सीजेनेटेड (ऑक्सीजन का ह्रास) रक्त को वापस फेफड़ों में ले जाती है। शिराओं की संरचना और कार्य धमनियों से पूरी तरह से अलग होते हैं, उदाहरण के लिए, धमनियों शिराओं की अपेक्षा अधिक पेशीयुक्त होती हैं और यह रक्त को हृदय से दूर शरीर के शेष अंगों तक पहुँचाती हैं। पश्चप्रवाह का रोकना दर्शाती शिरा की अनुप्रस्थ काट .

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शोथ

त्वचा पर एक फोड़ा, जिसके पास सूजन एवं लाली है। मवाद के केन्द्रीय क्षेत्र को घेरे हुए नेक्रोटिक ऊतक के काले घेरे हैं। पैर के नाखून के पास सूजन प्रदाह (लैटिन, inflammare, अंग्रेज़ी:इन्फ़्लेमेशन) शरीर में रक्तवाहिकाओं का हानिकारक कारणों, जैसे पैथोजन, क्षतिग्रस्त कोशिका या उत्तेजकों आदि के कारण शरीर की प्रतिक्रिया होती है। प्रदाह प्राणियों द्वारा खतरनाक या हानिकारक स्टिमुलाई को हटाने व कोशिका या ऊतकों के पुनरोद्धार की प्रक्रिया आरंभ करने का प्रयास होते हैं। सूजन संक्रमण का पर्याय नहीं है। .

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वाहिकारोध

अन्तःहृद वाहिकारोध (इंट्राकोरोनरी वाहिकारोध) वाहिकारोध (embolism) से आशय किसी वाहिका (embolus) का अवरोधित होना है। वाहिका का अवरोध रक्त के जमने से हो सकता है या रक्तधारा में गैस के बुलबुलेले (globule) से हो सकता है और इससे रक्त-प्रवाह रुक सकता है। यद्यपि वाहिकारोध का घटक साधारणतया रक्त का थक्का होता है, तथापि वसा और वायु के भी रक्तस्रोतरोधन बनते हैं। वसावाहिकारोध (Fat embolus) अस्थिभंग में मज्जा से और वात-वाहिकारोध (Air embolus) शिरा में वायुप्रवेश से होते हैं। वाहिकारोध के दुष्परिणाम घनास्र के मूलस्थान, विस्तार तथा उसके पूतिदूषित या अपूतिक होने पर निर्भर होते हैं। शिराओं की, या दक्षिण हृदयार्ध की, घनास्रता का वाहिकारोध फेफड़ों में जाकर अटकता है। यदि वह बड़ा हुआ तो फौफ्फुसिक धमनियों में मार्ग-अवरोध करके घातक होता है। शल्यकर्म या प्रसव के पश्चात् होनेवाली आकस्मिक मृत्यु प्राय: इसी प्रकार से हुआ करती है। यदि वह छोटा रहा, तो फुफ्फुस का अल्पांश बेकार होकर थोड़ी सी बेचैनी उत्पन्न होती है, जो प्राय: अल्पकाल में ठीक हो जाती है। अंत:शल्य पूतिक (septic) होने पर फोड़ा, कोथ या अंत:पूयता (empyema) उत्पन्न होती है। हृदय के वामार्ध की घनास्रता से शारीरिक धमनियों में वाहिकारोध उत्पन्न होता है। .

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आघात

आघात अर्थ होता है मार। .

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अस्थि मज्जा

चौपाये जानवरों की अस्थिमज्जा ग्रे शरीर विज्ञान में बोन मैरो/ मज्जा कोशिका मज्जा या मेरु (अंग्रेज़ी:बोन मैरो) अस्थियों (हड्डियों) के अंदर भरा हुआ एक मुलायम ऊतक होता है। वयस्कों में बड़ी अस्थियों में मज्जा रक्त कोशिकाएं निर्माण करने में सहायक होता है। इसमें कुल शरीर भार का ४%Semester 4 medical lectures at Uppsala University 2008 by Leif Jansson समाहित रहता है, यानि लगभग २.६ कि.ग्रा, वयस्कों में। अस्थिमज्जा गूदे के समान मृदु ऊतक है जो सब अस्थियों के स्पंजी भाग के अवकाशों में, लंबी अस्थिओं की मध्यनलिका की गुहा में और बड़े आकार की हेवर्सी नलिकाओं में पाया जाता है। भिन्न-भिन्न अस्थियों में और अणु के अनुसार उसके संघटन में अंतर होता है। मज्जा दो प्रकार की होती है - पीली और लाल। पीली मज्जा का आधार तांतव ऊतक होता है जिसमें रक्तवाहिकाएँ और कोशिकाएँ पाई जाती हैं जिनमें अधिकांश वसाकोशिकाएँ होती हैं। कुछ लाल मज्जा के समान कोशिकाएँ मिलती हैं। लाल मज्जा का आधार संयोजी ऊतक होता है जिसके ढाँचे के जाल में रजतरागी (अरजीरॉफिलिक) तंतु और उससे संबंधित जीवाणुभक्षी कोशिकाएँ तथा कई प्रकार की रक्तकणिकाएँ और उनके पूर्वगामी रूप, कुछ वसाकोशिकाएँ तथा कुछ लिंफ पर्व होते हैं। |Image:Caput femoris cortex medulla.jpg| Image:acute leukemia-ALL.jpg| Image:Bone marrow biopsy.jpg|मज्जा प्रत्यारोपण .

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अस्थिभंग

बाँह की हड्डी के भंग का आन्तरिक एवं वाह्य दृष्य तथा शल्यचिकित्सा के बाद की स्थिति किसी अस्थि के टूटने या उसमें दरार पड़ने को अस्थिभंग कहते हैं। हड्डियों पर एक सीमा से अधिक बल या झटका लगने से या अस्थि-कैंसर एवं अन्य रोगों के कारण अस्थिभंग हो सकता है। श्रेणी:अस्थि.

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