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कविशिक्षा और क्षेमेंद्र

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

कविशिक्षा और क्षेमेंद्र के बीच अंतर

कविशिक्षा vs. क्षेमेंद्र

काव्यरचना संबंधी विधिविधान अथवा रीति की शिक्षा को कविशिक्षा कहते हैं। काव्यसर्जना की प्रतिभा यद्यपि प्राचीन काल से नैसर्गिक किंवा जन्मजात मानी जाती रही है, तथापि संस्कृत काव्यशास्त्र के लगभग सभी प्रमुख आचार्यों ने कवि के लिए सुशिक्षित एवं बहुश्रुत होना आवश्यक बताया है। भामह (काव्यलंकार, १.१०) ने ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी में कवियों के लिए शब्दार्थज्ञान की प्राप्ति, शब्दार्थवेत्ताओं की सेवा तथा अन्य कवियों के निबंधों का मनन कर लेने के पश्चात्‌ ही कविकर्म में प्रवृत्त होना उचित माना है। ८०० ई. के लगभग वामन (काव्यालंकारसूत्र, १:३ तथा ११) ने लोकव्यवहार, शब्दशास्त्र, अभिधान, कोश, छंदशास्त्र, कामशास्त्र कला तथा दंडनीति का ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त कवियों के लिए काव्यशास्त्र का उपदेश करनेवाले गुरुओं की सेवा भी जरूरी बताई है। ९०० ई. के लगभग राजशेखर ने "काव्यमीमांसा' के १८ अध्यायों में शास्त्रपरिचय, पदवाक्य, विवेक, पाठप्रतिष्ठा, काव्य के स्रोत, अर्थव्याप्ति, कविचर्या, राजचर्या, काव्यहरण, कविसमय, देशविभाग, कालविभाग, आदि विविध कविशिक्षोपयोगी विषयों का निरूपण किया है। वस्तुत: कविशिक्षा संबंधी सामग्री के लिए राजशेखरकृत "काव्यमीमांसा' मानक ग्रंथ है। इसीलिए राजशेखर के परवर्ती आचार्यों के कविशिक्षा पर लिखते समय "काव्यमीमांसा' में उपलब्ध सामग्री का जमकर उपयोग किया है। क्षेमेंद्र ने १०५० ई. के समीप अपने ग्रंथ कविकंठाभरण (संधि १: २) में काव्यरचना में रुचि रखनेवाले व्यक्तियों को निर्देश दिया है कि वे नाटक, शिल्पकौशल, सुंदर चित्र, मानवस्वभाव, समुद्र, नदी, पर्वत आदि विभिन्न स्थानों का निरीक्षण करने के साथ-साथ साहित्यमर्मज्ञ गुरुओं की सेवा तथा वाक्यार्थशून्य पदों के संनिवेश से काव्यसर्जना का अभ्यास आरंभ करें। वाग्भट (वाग्भटालंकार, १: २, ७ १६ तथा २६) ने ईसा की १२वीं शती के पूर्वार्ध में काव्यरचना के लिए विविध शास्त्रों, कविसमयों आदि के ज्ञान के अतिरिक्त कवि का छंदयोजना तथा अलंकारप्रयोग पर अधिकार होना भी आवश्यक माना है। इतना ही नहीं, वाग्भट ने तो यह भी कहा है कि कवि तभी काव्यरचना करे जब उसका मन प्रसन्न हो। हेमचंद्र (१०८८-११७२) के "काव्यानुशासन" अमरचंद्र (१३वीं शती ई.) के "काव्यकल्पलता', देवेश्वर (१४वीं शती ई.) के "कविकल्पलता' तथा केशव मिश्र (१६वीं शती ई.) के "अलंकारशेखर' इत्यादि ग्रंथों में कविशिक्षा संबंधी पर्याप्त विवरण उपलब्ध हैं जो अधिकांशत: राजशेखर के अनुसार हैं। हिंदी काव्यशास्त्र में कविशिक्षा संबंधी ग्रंथ बहुत कम हैं, तो भी रीतिकाल का पूरा काव्य संस्कृत के उपर्युक्त ग्रंथों से प्रभावित है और इस काल में संस्कृत ग्रंथों की मान्यताओं का परंपरा के रूप में अनुसरण भी किया गया है। आचार्य केशवदास (१५५५-१६१७ ई.) ने "कविप्रिया' में कविता के विषय, काव्यरचना के तरीके, कविनियम (कविसमय) तथा वर्णन परिपाटी को प्रस्तुत किया है। लेकिन उक्त ग्रंथ की अधिकांश सामग्री "अलंकारशेखर' और "काव्यकल्पलता' पर आधृत है। जगन्नाथप्रसाद "भानु' कृत "काव्यप्रभाकर' (१९१० ई. में प्रकाशित) में भी कविशिक्षा संबंधी प्रामाणिक सामग्री मिलती है। उर्दू साहित्य में नए कवि पुराने या प्रतिष्ठित कवियों के संमुख अपनी रचनाएँ इस्लाह (संशोधन) के लिए प्रस्तुत करते रहे हैं। यह भी एक प्रकार की कविशिक्षा ही है। आधुनिक हिंदी साहित्य (१९०० ई. से प्रारंभ) में न केवल साहित्य एवं काव्य संबंधी मान्यताएँ बदली हैं अपितु कविता के प्रतिमान भी परिवर्तित हो गए हैं। आज का कवि रूढ़ परिपाटियों से मुक्त होकर स्वंतत्रचेता होने का प्रयास कर रहा है। प्रकृति, व्यक्ति और समसामयिक सामाजिक परिवेश को वह नए ढंग से नवीन बिंबविधान एवं स्वप्रसूत सरलीकृत छंदों के माध्यम से रूपायित करने की दिशा में अग्रसर हो रहा है। अत: काव्यरचना संबंधी पुराने विधिविधान उसे यथावत्‌ ग्राह्य नहीं हैं। परंतु कविता के स्वरूप तथा शक्ति को बनाए रखने के लिए प्राचीन काल की तरह आज भी यह आवश्यक है कि कवि काव्यरचना आरंभ करने के पूर्व काव्यभाषा, छंद, सामाजिक व्यवहार एवं परिवेश आदि से पूरी तरह परिचित हो जाए। . क्षेमेन्द्र (जन्म लगभग 1025-1066) संस्कृत के प्रतिभासंपन्न काश्मीरी महाकवि थे। ये विद्वान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। ये सिंधु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र और प्रकाशेंद्र के पुत्र थे। इन्होंने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंतरशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना बोधिसत्त्वावदानकल्पलता को एक नया पल्लव (कथा) जोड़कर पूरा किया था। .

कविशिक्षा और क्षेमेंद्र के बीच समानता

कविशिक्षा और क्षेमेंद्र आम में 3 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): संस्कृत भाषा, कामशास्त्र, काव्य

संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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कामशास्त्र

विभिन्न जन्तुओं में संभोग का चित्रण (ऊपर); एक सुन्दर युवती का विविध प्राणियों से संभोग का चित्रण (नीचे) मानव जीवन के लक्ष्यभूत चार पुरुषार्थों में "काम" अन्यतम पुरुषार्थ माना जाता है। संस्कृत भाषा में उससे संबद्ध विशाल साहित्य विद्यमान है। .

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काव्य

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो। अर्थात् वहजिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है। उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं। गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं- कथा और आख्यायिका। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। .

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कविशिक्षा और क्षेमेंद्र के बीच तुलना

कविशिक्षा 14 संबंध है और क्षेमेंद्र 16 है। वे आम 3 में है, समानता सूचकांक 10.00% है = 3 / (14 + 16)।

संदर्भ

यह लेख कविशिक्षा और क्षेमेंद्र के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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