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कर्कट रोग और गर्भावस्था

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

कर्कट रोग और गर्भावस्था के बीच अंतर

कर्कट रोग vs. गर्भावस्था

कर्कट (चिकित्सकीय पद: दुर्दम नववृद्धि) रोगों का एक वर्ग है जिसमें कोशिकाओं का एक समूह अनियंत्रित वृद्धि (सामान्य सीमा से अधिक विभाजन), रोग आक्रमण (आस-पास के उतकों का विनाश और उन पर आक्रमण) और कभी कभी अपररूपांतरण अथवा मेटास्टैसिस (लसिका या रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फ़ैल जाता है) प्रदर्शित करता है। कर्कट के ये तीन दुर्दम लक्षण इसे सौम्य गाँठ (ट्यूमर या अबुर्द) से विभेदित करते हैं, जो स्वयं सीमित हैं, आक्रामक नहीं हैं या अपररूपांतरण प्रर्दशित नहीं करते हैं। अधिकांश कर्कट एक गाँठ या अबुर्द (ट्यूमर) बनाते हैं, लेकिन कुछ, जैसे रक्त कर्कट (श्वेतरक्तता) गाँठ नहीं बनाता है। चिकित्सा की वह शाखा जो कर्कट के अध्ययन, निदान, उपचार और रोकथाम से सम्बंधित है, ऑन्कोलॉजी या अर्बुदविज्ञान कहलाती है। कर्कट सभी उम्र के लोगों को, यहाँ तक कि भ्रूण को भी प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकांश किस्मों का जोखिम उम्र के साथ बढ़ता है। कर्कट में से १३% का कारण है। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, २००७ के दौरान पूरे विश्व में ७६ लाख लोगों की मृत्यु कर्कट के कारण हुई। कर्कट सभी जानवरों को प्रभावित कर सकता है। लगभग सभी कर्कट रूपांतरित कोशिकाओं के आनुवंशिक पदार्थ में असामान्यताओं के कारण होते हैं। ये असामान्यताएं कार्सिनोजन या का कर्कटजन (कर्कट पैदा करने वाले कारक) के कारण हो सकती हैं जैसे तम्बाकू धूम्रपान, विकिरण, रसायन, या संक्रामक कारक. गर्भवती महिला प्रजनन सम्बन्धी अवस्था, एक मादा के गर्भाशय में भ्रूण के होने को गर्भावस्था (गर्भ + अवस्था) कहते हैं, तदुपरांत महिला शिशु को जन्म देती है। आमतौर पर यह अवस्था मां बनने वाली महिलाओं में ९ माह तक रहती है, जिसे गर्भवधी कहते है। कभी कभी संयोग से एकाधिक गर्भावस्था भी अस्तित्व में आ जति है जिस्से जुडवा एक से अधिक सन्तान कि उपस्थिति होती है। .

कर्कट रोग और गर्भावस्था के बीच समानता

कर्कट रोग और गर्भावस्था आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): भ्रूण, रक्त

भ्रूण

झुर्रीदार मेढक (राना रूगोसा) के भ्रूण (और एक बेंगची) भ्रूण (Embryo) प्राणी के विकास की प्रारंभिक अवस्था को कहते हैं। मानव में तीन मास की गर्भावस्था के पश्चात्‌ भ्रूण को गर्भ की संज्ञा दी जाती है। एक निषेचित अंडाणु जब फलोपिओन नालिका (fallopian tube) से गुजरता है तब उसका खंडीभवन (segmentation) होता हें तथा यह अवस्था मोरूला (morula) बन जाता हें। प्रथम तीन सप्ताह में ही प्रारंभिक जननस्तर (primary germ layers) प्रारंभिक जनन स्तर के तीन भाग होते हैं। बाहर का भाग बाह्यत्वचा (ectoderm), अंदर का भाग अंतस्त्वचा (endoderm) और दोनों के बीच का भाग मध्यस्तर (mesoderm) कहलाता है। इन्हीं से विभिन्न कार्य करनेवाले अंग विकसित होते हैं। भ्रुण अवस्था अष्टम सप्ताहश् के अंत तक रहती है। नाना आशयों तथा अंगों के निर्माण के साथ साथ भ्रूण में अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। इसके पश्चात्‌ तीसरे मास से गर्भ कहानेवाली अवस्था प्रसव तक होती है। भ्रूण अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में अपना पोषण प्राथमिक अंडाणु के द्वारा लाए गए पोषक द्रव्यों से पाता है। इसके पश्चात्‌ ब्लास्टोसिस्ट गर्भाशय की ग्रंथियों तथा वपन की क्रिया में हुए ऊतकलयन के फलस्वरूप एकत्रित रक्त से पोषण लेता है। भ्रूणपट्ट (embryonic disc), उल्व (amnion), देहगुहा (coelom) तथा पीतक (yolk) थैली में भरे द्रव्य से पोषण लेता है। अंत में अपना तथा नाभि नाल के निर्माण के पश्चात्‌ माता के रक्तपरिवहन के भ्रूणरक्त का परिवहनसंबंध स्थापित होकर, भ्रूण का पोषण होता है। 270 दिन तक मातृ गर्भाशय में रहने के पश्चात प्रसव होता है और शिशु गर्भाशय से निकलता है। भ्रूण (अनियमित रूप से ग्रीक: बहुवचन lit. से आया शब्द है जिसका अर्थ होता है -"वह जो विकसित होता है", en से-"in"+bryin "फूलना, भरना; इसका सही लातिन रूप होगा embryum) अपने विकास के शुरूआती चरण में, प्रथम कोशिका विभाजन से लेकर जन्म, प्रसव या अंकुरण तक, एक बहुकोशिकीय डिप्लॉयड यूक्रायोट होता है। इंसानों में, इसे निषेचन के आठ सप्ताह तक (मतलब एलएमपी के 10वें सप्ताह तक) भ्रूण कहा जाता है और उसके बाद से भ्रूण की बजाय इसे गर्भस्थ शिशु (फेटस) कहा जता है। भ्रूण के विकास को एंब्रियोजेनेसिस कहा जाता है। जीवों में, जो यौन प्रजनन करते हैं, एक बार शुक्राणु अण्ड कोशिका को निषेचित कर लेता है, तो परिणाम स्वरूप एक कोशिका जन्म लेती है, जिसे जाइगोट कहते हैं, जिसमें दोनों अभिभावकों का आधा डीएनए होता है। पौधों, जानवरों और कुछ प्रोटिस्ट में समविभाजन के द्वारा एक बहुकोशिकीय जीव को पैदा करने के लिए जाइगोट विभाजित होना शुरू हो जाएगा.

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रक्त

मानव शरीर में लहू का संचरण लाल - शुद्ध लहू नीला - अशु्द्ध लहू लहू या रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो लहू वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता (अनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली (Phagocytosis) में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है (In 7 steps)। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। मनुष्यों में लहू ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। एटीजंस से लहू को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्तदान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए, बी, ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नहीं होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ-वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता तथा एबी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु एबी रक्त वाले को एबी रक्त ही दिया जाता है। जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। लहू का pH मान 7.4 होता है कार्य.

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कर्कट रोग और गर्भावस्था के बीच तुलना

कर्कट रोग 122 संबंध है और गर्भावस्था 29 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 1.32% है = 2 / (122 + 29)।

संदर्भ

यह लेख कर्कट रोग और गर्भावस्था के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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