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उलटबाँसी और गोपीनाथ कविराज

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

उलटबाँसी और गोपीनाथ कविराज के बीच अंतर

उलटबाँसी vs. गोपीनाथ कविराज

सीधे-सीधे न कहकर, घुमा-फिराकर उलटकर कविता माध्यम से कही हुई बात अथवा व्यंजना उलटवाँसी कहलाती है। संतों और विशेष रूप से कबीर ने अनेक उलटवाँसियों की रचना की है जिन्हें लेकर ऐतिहासिक दृष्टि तथा संतमानस की ठीक ठीक समझ के अभाव के कारण न केवल भारी भ्रम फैला है, अपितु काफी विवाद भी हुआ है। डॉ॰ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल (हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय, प्रथम संस्करण, पृ. ३७०-७१) के मत से आध्यात्मिक अनुभव की अनिर्वचनीयता के कारण साधक को कभी-कभी परस्पर विरोधी उक्तियों द्वारा (अपना मनोगत) व्यक्त करने का ढंग अपनाना पड़ता है, जैसे चंद्रविहीन चाँदनी, सूर्यविहीन सूर्यप्रकाश आदि और इसके आधार पर ऐसे गूढ़ प्रतीकों की सृष्टि हो जाती है जिन्हें "उलटवाँसी" या "विपर्यय" कहते हैं। जब सत्य की अभिव्यक्ति बिना इन परस्पर विरोधी कथनों के सहारे नहीं हो पाती तो उसे आवश्यक सत्याभास कह सकते हैं। किंतु कभी-कभी इन उलटवाँसियों का प्रयोग अर्थ को जान बूझकर छिपाने के लिए भी हुआ करता है जिससे आध्यात्मिक मार्ग के रहस्यों का पता अयोग्य व्यक्तियों को न लगने पाए। ऐसी उलटवाँसियों को जान बूझकर रची गई उलटवाँसियाँ कर सकते हैं। साधारण प्रकार से आध्यात्मिक साधनाओं को ही ऐसी उलटवाँसियों में स्पष्ट किया जाता है। उक्त पहले प्रकार की उलटवाँसियाँ सांकेतिक होती हैं जहाँ दूसरी का स्वरूप रहस्यमय हुआ करता है। इसमें संदेह नहीं कि सांकेतिक उलटवाँसियों में उच्च श्रेणी का काव्य रहा करता है। किंतु गुह्य उलटवाँसियों स्वभावत: काव्यगत सौंदर्य से हीन हुआ करती हैं। डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी (कबीर, तृतीय संस्करण, पृ. ८०-८१) के मतानुसार संतों पर योगियों का व्यापक प्रभाव था और योगियों की अद्भुत क्रियाएँ साधारण जनता के लिए आश्चर्य तथा श्रद्धा का विषय थीं। योगियों का अपने विषय में कहना था कि वे तीन लोक से न्यारे हैं। सारी दुनिया भ्रम में उलटी बही जा रही है। हठयोग के सिद्धांतों और व्यवहारों का माननेवाले लोग ही रास्ते पर हैं। गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह (सं. महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, काशी, १९२५, पृ. ५८-५९) के अनुसार एक योग संप्रदाय को छोड़कर शेष सभी मतों की बात उलटी है। नाथ का अंश नाद है और नाद का अंश है प्राण। दूसरी और शक्ति का अंश बिंदु हैं और बिंदु का अंश है शरीर। अत: स्पष्ट ही नाद और प्राण बिंदु तथा शरीर से अधिक महत्वपूर्ण हैं, अर्थात्‌ पुत्रक्रम की अपेक्षा शिष्यक्रम आधिक मान्य है। परंतु दुनिया की रीत इससे उलटी है। वह पुत्रक्रम को प्रमुख मानती है ओर शिष्यक्रम को गौण। दुनिया के अनुसार क्रम है: धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश-ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि; यानी सब उलटा, इसलिए कि जो श्रेष्ठ है उसे पहले रखना चाहिए और जो अपेक्षाकृत कम श्रेष्ठ है उसे बाद में। सही क्रम इससे बिलकुल उलटा होता है। यथा, मोक्ष-धर्म-अर्थ-काम, आकाश-वायु-तेज-जल-पृथ्वी, शिव-विष्णु-ब्रह्मा आदि। फलस्वरूप योगी, तांत्रिक और संत (योगियों के प्रभाव के कारण) दुनिया से उलटी बात कहने लगे। काव्यबद्ध इन्हीं उलटी बातों को "उलटवाँसी' की संज्ञा दी गई है। लोक में गो-मांस-भक्षण महापाप है जबकि उलटवाँसी में "गो" जिह्वा है और उसे तालु में उलटकर ब्रह्मर्ध्रां की ओर ले जाना "गो-मांस-भक्षण" है। गंगा, यमुना और सरस्वती से सामान्यत: भारत की तीन नदियों का ज्ञान होता है जबकि उलटवाँसियों में गंगा इड़ा है, यमुना पिंगला और सरस्वती इड़ा पिंगला की मध्यवर्तिनी सुषुम्ना है जिसके अंदर स्थित कुंडलिनी नामक बालरंडा को जर्बदस्ती ऊपर उठा ले जाना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है। एक उदाहरण के माध्यम से उलटवाँसियों को समझने में सहायता मिल सकती है: अवधू ऐसा ग्यान विचारै। भेरैं बढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं।। टेक।। ऊघट चले सु नगरि पहूँते, बाट चले ते लूटे। एक जेवड़ी सब लपटाँने, के बाँधे के छूटे।। (कबीर ग्रंथावली, ना.प्र. सभा, ११वाँ संस्करण, पृ. ११०) कबीर कहते हैं, "हे अवधू ! जो लोग नाव पर चढ़े (भिन्न-भिन्न इष्टदेवों का आधार लेकर चले) वे समुद्र में डूब गए (संसार में ही लिप्त रहे), किंतु जिन्हें ऐसा कोई भी साधन न था वे पार लग गए (मुक्त हो गए)। जो बिना किसी मार्ग के चले वे नगर (परम पद) तक पहुँच गए, किंतु जिन व्यक्तियों ने मार्ग (अंधविश्वासपूर्ण परंपराओं) का सहारा लिया, वे लूट लिए गए (उनके आध्यात्मिक गुणों का ह्रास हो गया)। सभी बंधन (माया) में बँधे हुए हैं, किसे मुक्त और किसे बद्ध कहा जाए। श्रेणी:साहित्य. महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज (७ सितम्बर 1887 - १२ जून 1976) संस्कृत के विद्वान और महान दार्शनिक थे। १९१४ में पुतकालयाक्ष्यक्ष से आरम्भ करते हुए वे १९२३ से १९३७ तक वाराणसी के शासकीय संस्कृत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य रहे। इस कालावधि में वे सरस्वती भवन ग्रन्थमाला के सम्पादक भी रहे। गोपीनाथ कविराज बंगाली थे और इनके पिताजी का नाम वैकुण्ठनाथ बागची था। आप का जन्म ब्रिटिश भारत के ग्राम धमरई जिला ढाका (अब बांग्लादेश) मे हुआ था। उनका जन्म प्रतिष्ठित बागची घराने मे हुआ था और "कविराज" उनको सम्मान में कहा जाता था। आपने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा श्री मधुसूदन ओझा एवं शशिधर "तर्क चूड़ामणि" के निर्देशन मे जयपुर मे प्रारंभ किया। महामहोपाध्याय पं॰ गोपीनाथ कविराज वर्तमान युग के विश्वविख्यात भारतीय प्राच्यविद् तथा मनीषी रहे हैं। इनकी ज्ञान-साधना का क्रम वर्तमान शताब्दी के प्रथम दशक से आरम्भ हुआ और प्रयाण-काल तक वह अबाधरूप से चलता रहा। इस दीर्घकाल में उन्होंने पौरस्त्य तथा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की विशिष्ट चिन्तन पद्धतियों का गहन अनुशीलन कर, दर्शन और इतिहास के क्षेत्र में जो अंशदान किया है उससे मानव-संस्कृति तथा साधना की अंतर्धाराओं पर नवीन प्रकाश पड़ा है, नयी दृष्टि मिली है। उन्नीसवीं शती के धार्मिक पुनर्जागरण और बीसवीं शती के स्वातन्त्र्य-आन्दोलन से अनुप्राणित उनकी जीवन-गाथा में युगचेतना साकार हो उठी है। प्राचीनता के सम्पोषक एवं नवीनता के पुरस्कर्ता के रूप में कविराज महोदय का विराट् व्यक्तित्व संधिकाल की उन सम्पूर्ण विशेषताओं से समन्वित है, जिनसे जातीय-जीवन प्रगति-पथ पर अग्रसर होने का सम्बल प्राप्त करता रहा है। इनके द्वारा रचित एक शोध तांत्रिक वाङ्मय में शाक्त दृष्टि के लिये उन्हें सन् १९६४ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (संस्कृत) से सम्मानित किया गया। .

उलटबाँसी और गोपीनाथ कविराज के बीच समानता

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उलटबाँसी और गोपीनाथ कविराज के बीच तुलना

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