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उपालम्भ काव्य और चंडीदास

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

उपालम्भ काव्य और चंडीदास के बीच अंतर

उपालम्भ काव्य vs. चंडीदास

उपालम्भ काव्य का विवरण। उपालम्भ काव्य का विवरण प्राचीन संस्कृत हिंदी काव्याचार्यों के मतानुसार उपालंभ काव्य मुख्यत: शृंगारकाव्य का एक भेद, जिसमें नायिका की विश्वस्त सखी उपालंभ (उलाहना) देकर नायक को नायिका के अनुकूल करती है। लेकिन सर्वत्र सखी द्वारा ही नायिका नायक को उपालंभपूर्ण संदेश नहीं देती, बल्कि संयोग शृंगार में नायिका स्वयं ही नायक को उपालंभ देती है। कहीं-कहीं नायिका, पक्षी, मेघ अथवा पवन द्वारा भी नायक को उपालंभ भेजती है। ऐसा प्राय: वियोग शृंगार में देख पड़ता है। लोककाव्य में विरहिणी नायिका कागा आदि पक्षियों के माध्यम से अथवा प्रवासी पति के नगरादि से आए पथिक के माध्यम से उपालंभ देती है। नवपरिणीता युवती मायके के आत्मीय जनों की अभावजन्य वेदना तथा बहन भाई की कल्पित उपेक्षा का उपालंभ देती देख पड़ती है। इष्टदेव के प्रति दास्य भाव रखनेवाले भक्त कवियों ने (यथा सूरदास) भी उपालंभ का आश्रय लिया है। किंतु यह परिभाषा अपने में पूर्ण नहीं है। उपालंभ में मात्र उलाहना नहीं होता या प्रियपात्र की निंदा ही नहीं होती; इसका मुख्य भाव है, किसी प्रकार प्रिय साहचर्य की अनुभूति या चेष्टा, सहयोगाकांक्षाजन्य विकलता और मिलन की अभिलाषा। परिभाषा के इसी वैशिष्ट्य के कारण उपालंभ काव्य केवल शृंगार तक ही सीमित नहीं माना जा सकता। हिंदी भक्तिकाव्य में उपालंभ पर्याप्त मात्रा में मिलता है। राधा तथा गोपियों के उपालंभ के साथ माता यशोदा का कृष्ण के प्रति मधुर उपालंभ, कृष्ण का यशोदा तथा बलराम के प्रति उपालंभ तथा विनयभावना के अंतर्गत भक्तों का अपने आराध्य के प्रति उपालंभ भी भक्तिकाव्य के सुंदर प्रसंग हैं। कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद जब नंद, यशोदा, राधा, गोप, गोपियाँ सब अत्यंत दु:खी हैं, उसी समय उद्धव कृष्ण की ओर से गोपियों को समझाने-बुझाने आते हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में गोपियों द्वारा उद्धव को उपलक्ष्य बनाकर कृष्ण को उपालंभ देने का अत्यंत सुंदर वर्णन है। इसी प्रसंग को काव्य में "भ्रमरगीत" के नाम से अभिहित किया गया है। मैथिल कवि विद्यापति, चंडीदास, सूरदास, नंददास आदि प्राचीन कवियों ने; भारतेंदु हरिश्चंद्र और जगन्नाथदास रत्नाकर आदि इधर के कवियों ने उपालंभ काव्य का पर्याप्त प्रयोग किया है। कुछ हास्यरस के कवियों ने भी यत्र-तत्र उपालंभ का सहारा लिया है। श्रेणी:काव्य श्रेणी:साहित्य. चंडीदास राधकृष्ण लीला संबंधी साहित्य का आदिकवि माने जाते हैं। इनका बंगाली वैष्णव समाज में बड़ा मान है। बहुत दिनों तक इनके बारे में कुछ विशेष ज्ञात नहीं था। चंडीदास को द्विज चंडीदास, दीन चंडीदास, बडु चंडीदास, अनंतबडु चंडीदास इन कई नामों से युक्त पद प्राप्त थे। इनकी पदावली को प्राय: कीर्तनियाँ लोग गाया करते थे। चन्डीदास इसके पर्दो का सर्वप्रथम आधुनिक संग्रह जगद्बंधु भद्र द्वारा "महाजन पदावली" नाम से किया गया। इस संग्रह ग्रंथ की द्वितीय संख्या में चंडीदास नामांकित दो सौ से अधिक पद संग्रहीत हैं। यह संग्रह सन् 1874 ई. में प्रकाशित हुआ था। सन् 1916 ई. तक चंडीदास के परिचय, समय इत्यादि के संबंध में कोई निश्चित मत न होते हुए भी इस बात की कोई समस्या नहीं थी कि चंडीदास नाम के एक ही व्यक्ति थे या अनेक। इसी समय वसंतरंजन राय ने स्वयं प्राप्त की हुई "श्रीकृष्णकीर्तन" नाम की। हस्तलिखित ग्रंथ की प्रति को संपादित कर प्रकाशित किया। यह ग्रंथ कृष्णलीला काव्य है। प्रचलित पदावली की भाषा और वर्ण्य विषय से "श्रीकृष्णकीर्तन" की भाषा एवं वर्ण्य विषय में अंतर होने के कारण इस बात की संभावना जान पड़ी कि चंडीदास नाम के एकाधिक व्यक्ति अवश्य थे। बहुत छानबीन के उपरांत प्राय: सभी विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दो चंडीदास अवश्य थे। चैतन्यदेव के पूर्ववर्ती एक चंडीदास थे, इस बात का निर्देश "चेतन्य-चरितामृत" एवं "चैतन्यमंगल" में मिलता है। चैतन्यचरितामृत में बताया गया है कि चैतन्य महाप्रभु चंडीदास एवं विद्यापति की रचनाएँ सुनकर प्रसन्न होते थे। जीव गोस्वामी ने भागवत की अपनी टीका "वैष्णव तोषिनी" में जयदेव के साथ चंडीदास का उल्लेख किया है। नरहरिदास और वैष्णवदास के पदों में भी इनका नामोल्लेख है। इन चंडीदास का जो कुछ परिचय प्राप्त है वह प्राय: जनश्रुतियों पर ही आधारित है। ये ब्राह्मण थे और वीरभूम जिले के नामूर ग्राम के निवासी थे। "तारा", "रामतारा" अथवा "रामी" नाम की धोबिन इनकी प्रेमिका थी, यह एक जनश्रुति है। दूसरी जनश्रुति के अनुसार ये बाँकुड़ा जिले के छातना ग्राम के निवासी थे। ये "वाशुली" देवी के भक्त थे। इनके नाम से प्रकाशित ग्रंथ "श्रीकृष्णकीर्तन" में प्रबंधात्मकता है। यह प्राचीन यात्रानाट्य और पांचाली काव्य का मिलाजुला रूप है। दीन चंडीदास नामक एक व्यक्ति चैतन्यदेव के परवर्ती थे, इस बात का भी पता चलता है। दीन चंडीदास के नाम से नरोत्तमदास का वंदना संबंधी एक पद प्राप्त है। इससे वे नरोत्तमदास के शिष्य ज्ञात होते हैं। दीन चंडीदास नांमाकित बहुत से पद प्राप्त हैं। इनका संपादित संग्रह श्री मणींद्रमोहन वसु ने प्रकाशित किया है। .

उपालम्भ काव्य और चंडीदास के बीच समानता

उपालम्भ काव्य और चंडीदास आम में एक बात है (यूनियनपीडिया में): विद्यापति

विद्यापति

विद्यापति भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के भी प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव, शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की शृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं। .

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उपालम्भ काव्य और चंडीदास के बीच तुलना

उपालम्भ काव्य 11 संबंध है और चंडीदास 9 है। वे आम 1 में है, समानता सूचकांक 5.00% है = 1 / (11 + 9)।

संदर्भ

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