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अवधी साहित्य

सूची अवधी साहित्य

भारत के अवध क्षेत्र की भाषा अवधी कहलाती है, जो राष्ट्रभाषा हिन्दी की एक उपभाषा है। अवधी का प्राचीन साहित्य बड़ा संपन्न है। इसमें भक्ति काव्य और प्रेमाख्यान काव्य दोनों का विकास हुआ। .

26 संबंधों: चौपाई, तुलसीदास, त्रिलोचन शास्त्री, द्वारका प्रसाद मिश्र, दोहा, नरोत्तमदास, निर्झर प्रतापगढ़ी, पद्मावत, प्रतापनारायण मिश्र, भक्ति काव्य, मलिक मोहम्मद जायसी, मलूकदास, रमई काका, रामजन्म, श्रीरामचरितमानस, साहित्य, संस्कृत भाषा, सुदामा चरित, सूरजदास, हिन्दी, जुमई खां आजाद, विक्रम मणि त्रिपाठी, कवि मृगेश, अमीर ख़ुसरो, अवध, अवधी

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छन्द का एक भेद है। प्राकृत तथा अपभ्रंश के १६ मात्रा के वर्णनात्मक छन्दों के आधार पर विकसित हिन्दी का सर्वप्रिय और अपना छन्द है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में चौपाइ छन्द का बहुत अच्छा निर्वाह किया है। चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है। .

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तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिंदी साहित्य के महान कवि थे। इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान् आपका जन्म राजापुर जिला बाँदा(वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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त्रिलोचन शास्त्री

कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो सतंभ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे। .

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द्वारका प्रसाद मिश्र

---- द्वारका प्रसाद मिश्र द्वारका प्रसाद मिश्र (1901 - 1988) भारत के एक स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी, राजनेता, पत्रकार एवं साहित्यकार थे। वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है। .

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दोहा

दोहा, मात्रिक अर्द्धसम छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में १३-१३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में ११-११ मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के आदि में प्राय: जगण (। ऽ।) टालते है, लेकिन इस की आवश्यकता नहीं है। 'बड़ा हुआ तो' पंक्ति का आरम्भ ज-गण से ही होता है.

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नरोत्तमदास

नरोत्तमदास हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। महाकवि नरोत्तमदास .

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निर्झर प्रतापगढ़ी

निर्झर प्रतापगढ़ी (जन्म: १९६०) अवधी के प्रसिद्द हास्य कवि व पुरातत्वविद हैं। वें उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जनपद से हैं। इनका वास्तविक नाम राजेश पांडे हैं। वें देश के प्रथम ग्रामीण पुरातत्व संग्रहालय अर्थात अजगरा संग्रहालय के संस्थापक हैं। .

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पद्मावत

१७५० ई की पद्मावत की एक पाण्डुलिपि पद्मावत हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसके रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। दोहा और चौपाई छन्द में लिखे गए इस महाकाव्य की भाषा अवधी है। यह हिन्दी की अवधी बोली में है और चौपाई, दोहों में लिखी गई है। चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद दोहा आता है और इस प्रकार आए हुए दोहों की संख्या 653 है। इसकी रचना सन् 947 हिजरी.

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प्रतापनारायण मिश्र

प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर, 1856 - जुलाई, 1894) भारतेन्दु मण्डल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार थे। वह भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथी, उनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने आप को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रतिभारतेंदु" अथवा "द्वितीयचंद्र" कहे जाने लगे थे। .

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भक्ति काव्य

भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास के मध्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता को भक्ति आन्दोलन के रूप में पहचाना जा सकता है। साहित्य के क्षेत्र में यह भक्ति काव्य के विराट रस श्रोत के रूप में प्रकट हुआ। .

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मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मुहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं। वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। जायसी मलिक वंश के थे। मिस्रमें सेनापति या प्रधानमंत्री को मलिक कहते थे। दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश राज्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा को मरवाने के लिए बहुत से मलिकों को नियुक्त किया था जिसके कारण यह नाम उस काल से काफी प्रचलित हो गया था। इरान में मलिक जमींदार को कहा जाता था व इनके पूर्वज वहां के निगलाम प्रान्त से आये थे और वहीं से उनके पूर्वजों की पदवी मलिक थी। मलिक मुहम्मद जायसी के वंशज अशरफी खानदान के चेले थे और मलिक कहलाते थे। फिरोज शाह तुगलक के अनुसार बारह हजार सेना के रिसालदार को मलिक कहा जाता था। जायसी ने शेख बुरहान और सैयद अशरफ का अपने गुरुओं के रूप में उल्लेख किया है। .

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मलूकदास

मलूकदास (संo १६३१ की वैशाख बदी ५ - सं. १७३९ वैशाख बदी १४) एक सन्त कवि थे। उनका जन्म, संo १६३१ की वैशाख बदी ५ को, कड़ा (जिo इलाहाबाद) के कक्कड़ खत्री सुंदरदास के घर हुआ था। इनका पूर्वनाम 'मल्लु' था और इनके तीन भाइयों के नाम क्रमश: हरिश्चंद्र, शृंगार तथा रामचंद्र थे। इनकी 'परिचई' के लेखक तथा इनके भांजे एवं शिष्य मथुरादास के अनुसार इनके पितामह जहरमल थे और इनके प्रपितामह का नाम वेणीराम था। उनका कहना है कि मल्लू अपने बचपन से ही अत्यंत उदार एवं कोमल हृदय के थे तथा इनमें भक्तों के लक्षण पाए जाने लगे थे। यह बात इनके माता पिता पसंद नहीं करते थे और जीविकोपार्जन की ओर प्रवृत्त करने के उद्देश्य से, उन्होंने इन्हें केवल बेचने का काम सौंपा था परंतु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी और बहुधा मंगतों को दिए जानेवाले कंबल आदि का हाल सुनकर उन्हें और भी क्लेश होने लगा। बालक मल्लू को दी गई किसी शिक्षा का विवरण हमें उपलब्ध नहीं है और ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये अधिक शिक्षित न रहे होंगे। कहते हैं, इनके प्रथम गुरु कोई पुरुषोत्तम थे जो देवनाथ के पुत्र थे और पीछे इन्होंने मुरारिस्वामी से दीक्षा ग्रहण की जिनके विषय में इन्होंने स्वयं भी कहा है, मुझे मुरारि जी सतगुरु मिल गए जिन्होंने मेरे ऊपर विश्वास की छाप लगा दी, (सुखसागर पृo १९२)। अभी तक पाए गए संकेतों के आधार पर कहा जा सकता है कि इनका विवाह संभवत: १२ वर्ष की अवस्था के अनंतर ही हुआ होगा। इनकी पत्नी का नाम ज्ञात नहीं। इनके देशभ्रमण की चर्चा करते समय केवल पुरी, दिल्ली एवं कालपी जैसे स्थानों के ही नाम विशेष रूप से लिए जाते हैं और अनुमान किया जाता है कि यह पर्यटन कार्य भी इन्होंने अधिकतर उस समय किया होगा जब ये वृद्ध हो चले थे तथा जब ये अपने मत का उपदेश भी देने लगे थे। सं.

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रमई काका

रमई काका (2 फ़रवरी 1915 - 18 अप्रैल 1982) अवधी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनका वास्तविक नाम 'चन्द्रभूषण त्रिवेदी' था। आप बैसवाड़ी अवधी के उत्तम हास्य कवि (किन्तु केवल हास्य नहीं) थे। .

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रामजन्म

रामजन्म अवधी भाषा में रचित संत सूरजदास द्वारा रचित भगवान राम पर आधारित एक संक्षिप्त पुस्तक हैं, जिसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के पूर्व हुआ था। ‘रामजन्म’ को सन 1966 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित किया गया। .

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श्रीरामचरितमानस

गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस का आवरण श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। इस ग्रन्थ को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण मण्डलों द्वारा शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है। श्री रामचरित मानस के नायक राम हैं जिनको एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। त्रेता युग में हुए ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित और हिन्दी की ही एक लोकप्रिय भाषा अवधी में रचित रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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साहित्य

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। .

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संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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सुदामा चरित

सुदामा चरित कवि नरोत्तमदास द्वारा अवधी भाषा में रचित काव्य-ग्रंथ है। इसकी रचना संवत १६०५ के लगभग मानी जाती है। इसमें एक निर्धन ब्राह्मण सुदामा की कथा है जो महान कृष्ण भक्त था, जो बालपन में कृष्ण का मित्र भी था। इस ब्राह्मण की कथा श्रीमद् भागवत महापुराण में भी लिखित है। महाकवि नरोत्तमदास दास श्री गनेस सुमिरन करूं, उपजै बुद्धि प्रकास। सो चरित्र बरनन करूं, जासों दारिद नास।। 1।। ज्‍यों गंगा जल पान तें, पावत पद निर्वान। त्‍यों सिन्‍धुर- मुख बात तें, मूढ़ होत बुधिवान।। 2।। कृस्‍न मित्र कै जन्‍म को, ताको बरनन कीन्‍ह। सुख सम्‍पति माया मिलै, सो उपदेस जु दीन्‍ह।।। 3।। बिप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। भिक्षा करि भोजन करैं, हिये जपैं हरि नाम।। 4।। ताकी धरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति। सुलज, सुसील, सुबुद्धि अति, पति सेवा में प्रीति।। 5।। कही सुदामा एक दिन, कृस्‍न हमारे मित्र। करत रहति उपदेस तिय, ऐसो परम विचित्र।। 6।। महाराज जिनके हितू, हैं हरि यदुकुल चन्‍द। ते दारिद सन्‍ताप ते, रहैं न क्‍यों निरद्वंद।। 7।। कह्यो सुदामा बाम सुनु, वृथा और सब भोग। सत्‍य भजन भगवान को, धर्म सहित जप-जोग।। 8।। लोचन-कमल दुखमोचन तिलक भाल, स्रवननि कुण्‍डल मुकुट धरे माथ हैं। ओढ़े पीत बसन गरे मैं बैजयन्‍ती माल; संख चक्र गदा और पद्म धरे हाथ हैं।। कहत नरोत्तम सन्‍दीपनि गुरू के पास, तुमही कहत हम पढ़े एक साथ हैं। द्वारिका के गए हरि दारिद हरैंगे पिय, द्वारिका के नाथ वे अनाथन के नाथ हैं।। 9।। सिच्‍छक हौं सिगरे जग को, तिय ! ताको कहा अब देति है सिच्‍छा। जे तप कै परलोक सुधारत, सम्‍पति की तिनके नहीं इच्‍छा।। मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखु परिच्‍छा। औरन को धन चाहिये बावरि, बांझन के धन केवल भिच्‍छा।। 10।। दानी बड़े तिहुँ लोकन में, जग जीवत नाम सदा जिनको लै। दीनन की सुधि लेत भली विधि, सिद्ध करौ पिय मेरो मतौ लै। दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै। श्री जदुनाथ से जाके हितू सो, तिहुँपन क्‍यों कन माँगत डोलै।। 11।। क्षत्रिन के पन जुद्ध जुवा, सजि बाजि चढ़े गजराजन ही। बैस के बानिज और कृसी पन। सूद को सेवन साजन ही। विप्रन के पन है जु यही, सुख सम्‍पति को कुछ काज नहीं। कै पढ़ियो कै तपोधन है, कन माँगत बांभनै लाज नहीं।। 12।। कोदों सवां जुरतो भरि पेट, न चाहति हौं दधि-दूध मिठौती। सीत वितीत भयो सिसियातहि; हौं हठती पै तुम्‍हैं न पठौती। जौ जनती न हितू हरि सों, तुम्‍हें काहे को द्वारिका ठेलि पठौ‍ती। या घरतें न गयो कबहूँ, पिय ! टूटो तवा अरु फूटी कठौती।। 13।। छांड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै जिय ठानी। जातहिं दैहैं लदाय लढ़ाभरि, लैहों लदाय यहै जिय जानी। पैहौं कहाँ ते अटारी अटा, जिनके विधि दीन्‍ही है टूटी सी छानी। जो पै दरिद्र लिख्‍यो है लिलार, तो काहू पै मेटि न जात अजानी।। 14।। पूरन पैज करी प्रहलाद की, खम्‍भ सों बांध्‍यो पिता जिहि बेरे। द्रौपदी ध्‍यान धर्यो जबहीं तबहीं पट कोटि लगे चहुँ फेरे।। ग्राह ते छूटि गयन्‍द गयो पिय, याहि सो है निह्चय जिय मेरे। ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे कृपानिधि लोचन-कोर के हेरे।। 15।। चक्‍कवै चौकि रहे चकि से, तहाँ भूले से भूप कितेक गिनाऊं। देव गन्‍धर्व औ किन्‍नर जच्‍छ से, सांझ लौं ठाढ़े रहैं जिहि ठांऊ।। ते दरबार बिलोक्‍यों नहीं अब, तोही कहा कहिके समझाऊं रोकिए लोकन के मुखिया, तहँ हौं दुखिया किमि पैरुन पाऊं।। 16।। भूल से भूप अनेक खरे रहौ, ठाढ़े रहौं तिमि चक्‍कवे भारी। देव गन्‍धर्व औ किन्‍नर जच्‍छ से, मेलो करैं तिनकौ अधिकारी।। अन्‍तरयामी ते आपुही जानिहैं मानौ यहै सिखि आजु हमारी। द्वारिकानाथ के द्वा गए, सब ते पहिले सुधि लैहैं तिहारी।। 17।। दीन दयाल को ऐसोई द्वार है, दीनन की सुधि लेत सदाई। द्रौपदी तैं गज तैं प्रह्लाद तैं, जानि परी ना बिलम्‍ब लगाई।। याही ते भावति मो मन दीनता- जौ निबहै निबहै जस आई। जौ ब्रजराज सौं प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।। 18।। फाटे पट टूटी छानि खाय भीक मांगि मांगि, बिना यज्ञ विमुख रहत देव तित्रई। वे हैं दीनबन्‍धु दुखी देखि कै दयालु ह्रैहैं, दै हैं कछु जौ सौ हौं जानत अगन्‍तई।। द्वारिका लौं जात पिया! एतौ अरसात तुम, काहे कौ लजात भई कौनसी विचित्रई। जौ पै सब जन्‍म या दरिद्र ही सतायौ तोपै, कौन काज आई है कृपानिधि की मित्रई।। 19।। तैं तो कही नीकी सुनु बात हित ही की। यही रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए। चित्त के मिलेते चित्त धाइए परसपर, मित्र के जौ जेइए तौ आपहू जेंवाइए।। वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप, तहाँ यहि रूप जाइ कहा सकुचाइए। दुख सुख के दिन तौ अब काटे ही बनैगे भूलि, बिपत परे पै द्वार मित्र के न जाइए।। 20।। विप्रन के भगत जगत के विदित बन्‍धु लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं। पढ़े एक चटसार कही तुम कय बार, लोचन अपार वै तुम्‍हैं न पहिचानि हैं।। एक दीनबंधु, कृपासिंधु केरि गुरुबन्‍धु, तुम सम को दीन जाहि निजजिय जानिहैं। नाम लेत चौगुनी, गए ते द्वार सौगुनी सो, देखत सहस्रगुनी प्रीति प्रभु मानिहैं।। 21।। प्रीति में चूक नहीं उनके हरि, मो मिलि हैं उठि कण्‍ठ लगाय कै। द्वार गए कछु दै हैं पै दै हैं, वे द्वारिका द्वारिका जू हैं सब लायकै।। जै बिधि बीति गए पन दै, अब तो पहुँचो बिरधापन आय कै। जीवन शेष अहै दिन केतिक, होहुँ हरी सें कनावड़ो जाए कै।। 22।। हुजै कनावड़ो बार हजार लौं, जौ हितू दीन दयालु सों पाइए। तीनिहु लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार न जात लजाइए।। मेरी कही जिय मैं धरि कै पिए, भूलि न और प्रसंग चलाइए। और के द्वा सों काज कहा पिय, द्वारिका नाथ के द्वारे सिधाइए।। 23।। द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे। जौ न कहौ करिए तौ बड़ो दुख, जैये कहां अपनी गति हेरे।। द्वार खड़े प्रभु के छरिया तहं, भूपति जान न पावत नेरे। पांचु सुपारि तौ देखु बिचारि कै, भेंट को चारि न चांवर मेरे।। 24।। यहि सुनि कै तब ब्राह्मणी, गई परोसिन पास। पाव सेर चाउर लिए आई सहित हुलास।। 25।। सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बांधि दुपटिया खूंट। मांगत खात चले तहां, मारग बाली-बूंट।। 26।। तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पांय। एक ठौर सोए कहूँ, घास पयार बिछाय।। 27।। अन्‍तरजामी आपु हरि, जानि जगत की पीर। सोबत लै ठांढ़ो कियो, नदी गोमती तीर।। 28।। प्रात गोमती दरस तें, अति प्रसन्‍न भो चित्त। विप्र तहां असनान करि, कीन्‍हो नित्त निमित्त।। 29।। भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरिनी हाथ। देखि दिव्‍य द्रारावती, भयो अनाथ सनाथ।। 30।। दीठि चकाचौंधि गई देखत सुबर्नमई, एक ते आछे एक द्वारिका के भौन हैं। पूछे बिनु कोऊ कहूँ काहू सों बात करै, देवता से बैठे सब साधि साधि मौन हैं।। देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पांय, कृपा करि कहो विप्र कहां कीन्‍हों गौन हैा धीरज अधीर के हरन पर पीर के, बताओ बलबीर के महल यहाँ कौन है।। 31।। दीन जानि काहू पुरुस, कर गहि लीन्‍हो आय। दीन द्वार ठाढ़ो कियो, दीन दयाल के जाय।। 32।। द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्‍ही दण्‍ड प्रनाम। विप्र कृपा करि भाषिए, सकुल आपनो नाम।। 33।। नाम सुदामा, कृस्‍न हम, पढ़े एकई साथ। कुल पांडे वृजराज सुनि, सकल जानि हैं गाथ।। 34।। द्वार पाल चलि तहं गयो, जहाँ कृस्‍न यदुराय। हाथ जोरि ठाढ़ो भयो, बोल्‍यो सीस नवाय।। 35।। सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु ! जानै को आहि बसे केहि ग्रामा। धोती फटी-सी लटी-लुपटी अरु, पांय उपानह की नहिं साम।। द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा। पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत अपनो नाम सुदामा।। 36।। बोल्‍यो द्वारपाल एक 'सुदामा नाम पांडे' सुनि, छांड़े काज ऐसे जी की गति जानै को? द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पांय, भेटे भरि अंक लपटाय दुख साने को। नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि, विप्र बोल्‍यो विपदा में मोहि पहिचानै को? जैसी तुम करी तैसी करी को दया के सिन्‍धु, ऐसी प्रीति दीनबन्‍धु ! दीनन सों मानै को?।। 37।। लोचन पूरि रहे जलसों, प्रभु दूरि ते देखत ही दुख भेट्यो। सोच भयो सुरनायक के, कलपद्रुम के हिय माझ खसेट्यो1।। कम्‍प कुबेर हिये सरस्‍यो, परसे पग जात सुमेरु समेट्यो। रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो।। 38।। भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहि त्रिभुवनराय। अन्‍त:पुर को लै गए, जहाँ न दूजो जाय।। 39।। मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय। पानी धर्यो परात में पग धोवन को लाय।। 40।। राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन समीत2। आठों पटरानी भईं, चितै चकित यह प्रीति।। 41।। जिनके चरनन को सलिल, हरत जगत सन्‍ताप। पांय सुदामा विप्र के धोवत ते हरि आप।। 42।। ऐसे बेहाल बिवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए। हाय महा दुख पायो सखा तुम, आए इतै न कितै दिन खोए।। देखी सुदामा की दीन दसा, करुना करि कै करुना-निधि रोए। पानी परात को हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।। 43।। धोय पाँय पट-पीत सों, पोंछत हैं जदुराय। सतभामा सों यों कही, करो रसोई जाय।। 44।। तन्‍दुल तिय दीने हते, आगे धरियों जाय। देखि राज सम्‍पत्ति विभव, दै नहिं सकत लजाय।। 45।। अन्‍तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति। सुह्द सुदामा विप्र सों, प्रकट जनाई प्रीति।। 46।। कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत। चाँपि पोटरी काँख में, रहो कहो केहि हेत।। 47।। आगे चना गुरुमातु दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने। स्‍याम कह्यो मुसुकाय सुदामा सों, चोरी की बानि में हौ जू प्रवीने।। पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधारस भीने। पाछिली बानि अजौं न तजी तुम, तैसई भाभी के तन्‍दुल कीने। 48।। खोलत सकुचत गाँठरी, चितवत हरि की ओर। जीरन पट फटि छुटि पख्‍यो, बिथरि गये तेहि ठौर।। 49।। एक मुठी हरि भरि लई, लीन्‍हीं मुख में डारि। चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।। 50।। कांपि उठी कमला मन सोचत, मोसों कहा हरि को मन ओंको? ऋद्धि कँपी सब सिद्धि कँपी; नवनिद्धि कँपी बम्‍हना यह धौं को? सोच भयो सुरनायक के, जब दूसरी बार लियो भरि झोंको। मेरु डस्यो बकसे निज मेहिं, कुबेर चबावत चाउर चोंको।। 51।। हूल हियरा में सब कानन परी है टेर, भेंटत सुदामा स्‍याम चाबि न अघात ही। कहै नर उत्तम रिधि सिद्धिन में सोर भयो, ठाढ़ी थर हरै और सोचे कमला तहीं।। नाक लोग नाग लोक, ओक-ओ‍क थोक-थोक, ठाढ़े थरहरे मुख सूखे सब गात ही। हाल्‍यो पर्यो थोकन में, लालो पर्यो लोकन में चाल्‍यो पर्यो चक्रन में चाउर चबात ही।। 52।। भौन भरो पकवान मिठाइन, लोग कहैं निधि हैं सुखमा के। साँझ सबेरे पिता अभिलाखत, दाखन चाखत सिन्‍धु छमा के।। बाभन एक कोउ दुखिया सेर- पावक चाउर लायो समा के। प्रीति की रीति कहा कहिए, तेहि बैठि चबात है कन्‍त रमा के।। 53।। मुठी तीसरी भरत ही, रुकमिनि पकरि बांह। ऐसी तुम्‍हें कहा भई, सम्‍पति की अनचाह।। 54।। कही रुकमिनि कान में, यह धौं कौन मिलाप। करत सुदामा आपु सों, होत सुदामा आपु।। 55।। क्‍यों रस में विष बाम कियो, अब और न खान दियो एक फंका। विप्रहिं लोक तृतीयक देत, करी तुम क्‍यों अपने मन संका।। भामिनि मोहि जेंवाइ भली विधि, कौन रह्यौ जग में नर रंका। लोक कहै हरि मित्र दुखी, हमसों न सहृो यह जात कलंका।। 55अ।। भार्गव हू सब जीति धरा, दय विप्रन को अति ही सुख मानो। विप्रन काढ़ि दियो तुमको, निशि तादिन को बिसरो खिसियानो।। सिन्‍धु हटाय करो तुम ठौर, द्विजन्‍म सुभाव भली विधि जानो। सो तुम देत द्विजै सब लोक, कियौ तुमने अब कौन ठिकानो।। 55ब।। भामिनि देव द्विजै सब लोक, तजौं हट मोर यहै मन भाई। लोक चतुर्दस की सुख सम्‍पति, लागत विप्र बिना दुखदाई।। जाय रहौं उनके घर में, औ करौं द्विज दम्‍पति की सेवकाई तो मन माहि रुचै न रुचै, सो रुचै हम कौ वह ठौर सुहाई।। 55स।। भामिनि क्‍यों बिसरीं अबहीं, निज ब्‍याह समय द्विज की हितुआई। भूलि गईं द्विज की करनी, जेहि के कर सों पतिया पठवाई।। विप्र सहाय भयो तेहि औसर, को द्विज के समुहे सुखदाई। योग्‍य नहीं अर्द्धांगिनी है, तुमको द्विज हेतु इती निठुराई।। 55द।। यहि कौतुक के समय में कही सेवकनि आय। भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय।। 56।। विप्र सुदामहि न्ह्याय कर धोती पहिरि बनाय। सन्‍ध्‍या करि मध्‍यान्‍ह की, चौका बैठे जाय।। 57।। रूपे के रुचिर थार पायस सहित सिता, सोभा सब जीती जिन सरद के चन्‍द की। दूसरे परोसो भात सोंधो सुरभी को घृत, फूले फूले फुलका प्रफुल्‍ल दुति मन्‍द की।। पापर मुंगोरीं बरा व्‍यंजन अनेक भांति देवता विलोक रहे देवकी के नन्‍द की। या विधि सुदामा जु को आछे कै जेंवायें प्रभु, पाछै कै पछ्यावरि परोसी आनि कन्‍द की।। 58।। सात दिवस यहि विधि रहे, दिन दिन आदर भाव। चित्त चल्‍यो घर चलन को, ताकौ सुनहु हवाल।। 59।। दाहिने वेद पढ़ै चतुरानन, सामुहें ध्‍यान महेस धर्यो है।। बाँए दोउ कर जोरि सुसेवक, देवन साथ सुरेस खर्यो है।।। एतइ बीच अनेक लिए धन, पायन आय कुबेर पर्यो है। देखि विभौ अपनो सपनो, बापुरो वह बांभन चौंकि पर्यो है।। 60।। देनो हुतो सो दै चुके, विप्र न जानी गाथ। मन में गुनो गुपाल जू, कछु ना दीनो हाथ।। 61।। वह पुलकनि वह उठि मिलन, वह आदर की बात। यह पठवनि गोपाल की, कछू न जानी जात।। 62।। घर घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज। कहा भयो जो अब भयो, हरि को राज-समाज।। 63।। हौं आवत नाहीं हुतौ, वाहि पठायो ठेलि। अब कहि हौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।। 64।। बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं साप। जैसो हरि हमको दियौ, तैसो पैइहैं आप।। 65।। नौ गुन धारी छगन सों, तिगुने मध्‍ये जाय। लायो चापल चौगुनी, आठों गुननि गंवाय।। 66।। और कहा कहिए जहाँ, कंचन ही के धाम। निपट कठिन हरि को हियो, मोको दियो न दाम।। 67।। बहु भंडार रतनन भरै, कौन करै अब रोष। लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।। 68।। इमि सोचत-सोचत झखत, आये निज पुर तीर। दीठि परी एक बार ही, हय गयन्‍द की भीर।। 69।। हरि दरसन से दूरि दुख, भयो गये निज देस। गौतम ऋषि को नाउँ लै, कीन्‍हो नगर प्रवेस।। 70।। वैसोइ राज समाज बनो गज, बाजि घने मन सम्‍भ्रम छायो। कैधौ पर्यो कहुँ मारग भूलि, कि फेरि कै मैं अब द्वारिका आयो।। भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गांव मंझायो। पूछ़त पांड़े फिरे सब सों पर, झोपरी को कहुँ खोज न पायो।। 71।। देव नगर कै जच्‍छ पुर, हौं भटक्‍यो कित आय। नाम कहा यहि नगर को, सो न कहौ समुझाय।। सो न कहौ समुझाय नगर वासी तुम कैसे। पथिक जहाँ झंखाहिं तहाँ के लोग अनैसे।। लोग अनैसे नाहिं, लखौ द्विज देव नगर तैं कृपा करी हरि देव, दियौ है देव नगर कै।। 72।। सुन्‍दर महल मनि-मानिक जटिल अति, सुबरन सूरज-प्रकास मानो दै रह्यौ। देखत सुदामा जू को नगर के लोग धाये, भेंटें अकुलाय जोई सोई पग छूवै रह्यौ।। बांभनी के भूसन विविध विधि देखि कह्यौ जैहौं हौं निकासो सो तमासो जग ज्‍वै रह्यौ। ऐसी दसा फिरी जब द्वारिका दरस पायो, द्वारिका के सरिस सुदामापुर ह्वै रह्यौ।।। 73।। कनक दण्‍ड कर में लिए, द्वारपाल हैं द्वार। जाय दिखायो सबनि लै, या हैं महल तुम्‍हार।। 74।। कही सुदामा हँसत हौ, ह्वै करि परम प्रवीन। कुटि दिखावहु मोहिं वह, जहाँ बाँझनी दीन।। 75।। द्वारपाल सो तिन कही, क‍हि पठवहु यह गाथ। आये विप्र महाबली, देखहु होहु सनाथ।। 76।। सुनत चली आनन्‍द युत, सब सखियन लै संग। नूपुर किंकिनि दुन्‍दुभी, मनहु काम चतुरंग।। 77।। कही बाँभनी आय कै, यहै कन्‍त निज गेह। श्रीजदुपति तिहुँ लोक में, कीन्‍हो प्रकट सनेह।। 78।। हमै कन्‍त जनि तुम कहौ, बोलौ बचन सँभारि। इहैं कुटी मेरी हती, दीन बापुरी नारि।। 79।। मैं तो नारि तिहारि पै, सुधि सँभारिये कन्‍त। प्रभुता सुन्‍दरता सबै, दई रुक्मिनी कन्‍त।। 80।। टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर, तामे परी दुख काटे कहा हेम धाम री। जेवर जराऊ तुम साजे सब अंग अंग, सखी सोहैं संग वह छूछी हुती छामरी।। तुम तो पटम्‍बर सो ओढ़े हौ किनारीदार, सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी। मेरी पंडिताइनि तिहारे अनुहारि पतो मोक

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सूरजदास

सूरजदास एक प्राचीन संत एवं कवि थे। इन्होने भगवान श्रीराम पर आधारित संक्षित्प्त पुस्तक रामजन्म की रचना की थी। सूरजदास कृति ‘रामजन्म’ को सन १९६६ में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित किया गया। अवधी में सूरजदास कृत ‘रामजन्म’ नामक पुस्तक के सम्बन्ध में डाॅ वासुदेव शरण अग्रवाल का एक महत्वपूर्ण शोध आलेख है। डाॅ.

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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जुमई खां आजाद

जुमई खां आजाद (जन्म: ५ अगस्त १९३०; मृत्यु: २९ दिसम्बर २०१३) अवधी भाषा के प्रख्यात कवि और शायर थे। इन्हें अवधी के रसखान व अवधी सम्राट कहा जाता था। इन्हें अवधी अकादमी व लोकबन्धु राजनारायण स्मृति सम्मान से भी नवाजा गया था। .

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विक्रम मणि त्रिपाठी

एक नेपाली और अवधी साहित्यकार। .

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कवि मृगेश

गुरु प्रसाद सिंह 'मृगेश' (1910 -1985), अवधी भाषा के कवि थे। .

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अमीर ख़ुसरो

अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो (1253-1325) चौदहवीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कवि शायर, गायक और संगीतकार थे। उनका परिवार कई पीढ़ियों से राजदरबार से सम्बंधित था I स्वयं अमीर खुसरो ने आठ सुल्तानों का शासन देखा था I अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I उन्हे खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है I वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए हिन्दवी का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में महत्त्व है। मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् (६५२ हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (१२६६ -१२८६ ई0) के राज्यकाल में ‘’शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की माँ बलबनके युद्धमंत्री इमादुतुल मुल्क की पुत्री तथा एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और २० वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। खुसरो में व्यवहारिक बुद्धि की कोई कमी नहीं थी। सामाजिक जीवन की खुसरो ने कभी अवहेलना नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया। राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे। साहित्य के अतिरिक्त संगीत के क्षेत्र में भी खुसरो का महत्वपूर्ण योगदान है I उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों का सुन्दर मिश्रण किया और एक नवीन राग शैली इमान, जिल्फ़, साजगरी आदि को जन्म दिया I भारतीय गायन में क़व्वालीऔर सितार को इन्हीं की देन माना जाता है। इन्होंने गीत के तर्ज पर फ़ारसी में और अरबी ग़जल के शब्दों को मिलाकर कई पहेलियाँ और दोहे भी लिखे हैं। .

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अवध

अवध अवध वर्तमान उत्तर प्रदेश के एक भाग का नाम है जो प्राचीन काल में कोशल कहलाता था। इसकी राजधानी अयोध्या थी। अवध शब्द अयोध्या से ही निकला है। अवध की राजधानी प्रांरभ में फैजाबाद थी किंतु बाद को लखनऊ उठ आई थी। अवध पर नवाबों का आधिपत्य था जो प्राय: स्वतंत्र थे, क्योंकि अवध के नवाब शिया मुसलमान थे अत: अवध में इसलाम के इस संप्रदाय को विशेष संरक्षण मिला। लखनऊ उर्दू कविता का भी प्रसिद्ध केंद्र रहा। दिल्ली केंद्र के नष्ट होने पर बहुत से दिल्ली के भी प्रसिद्ध उर्दू कवि लखनऊ वापस चले आए थे। अवध की पारम्परिक राजधानी लखनऊ है। भौगोलिक रूप से अवध की आधुनिक परिभाषा - लखनऊ, सुल्तानपुर, रायबरेली, उन्नाव, कानपुर, भदोही, इलाहाबाद, बाराबंकी, फैजाबाद, प्रतापगढ़, बहराइच, बलरामपुर, गोंडा, हरदोई, लखीमपुर खीरी, कौशाम्बी, सीतापुर, श्रावस्ती, बस्ती, सिद्धार्थ नगर, खलीलाबाद, उन्नाव, फतेहपुर, कानपुर, (जौनपुर, और मिर्जापुर के पश्चिमी हिस्सों), कन्नौज, पीलीभीत, शाहजहांपुर से बनती है। .

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अवधी

अवधी हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। यह उत्तर प्रदेश में "अवध क्षेत्र" (लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर, बाराबंकी, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, फैजाबाद, प्रतापगढ़), इलाहाबाद, कौशाम्बी, अम्बेडकर नगर, गोंडा, बहराइच, श्रावस्ती तथा फतेहपुर में भी बोली जाती है। इसके अतिरिक्त इसकी एक शाखा बघेलखंड में बघेली नाम से प्रचलित है। 'अवध' शब्द की व्युत्पत्ति "अयोध्या" से है। इस नाम का एक सूबा के राज्यकाल में था। तुलसीदास ने अपने "मानस" में अयोध्या को 'अवधपुरी' कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम 'कोसल' भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है। भाषा शास्त्री डॉ॰ सर "जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन" के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 28399552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। उत्तर प्रदेश के 19 जिलों- सुल्तानपुर, अमेठी, बाराबंकी, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, कौशांबी, फतेहपुर, रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, फैजाबाद व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 6 जिलों- जौनपुर, मिर्जापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, बस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के 8 जिलों में यह प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। .

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